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पीएम मोदी: 2014 में विकल्प बने, 2019 में 'टीना' फैक्टर से उम्मीद

पीएम मोदी के पक्ष में जो चीज जाती है वो है 'टीना' (TINA) यानि देयर इज़ नो अल्टरनेटिव. इसका मतलब यह कि जनता के पास कोई विकल्प नहीं है इसलिए वह स्वाभाविक रूप से दोबारा मोदी को चुनेगी

Nilanjan Mukhopadhyay

देश के कितने लोग जीडीपी अनुपात को समझते हैं? मेरा ये सवाल खासकर उस आम आदमी से है जिसकी लगभग हर नेता कसमें खाता है. चलिए अगला सवाल पूछता हूं, करंट अकाउंट डेफिसिट का क्या मतलब होता है? या फिर ये ही बता दीजिए कि विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने से लोगों को क्या फायदा होता है?

देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और उसके वित्तीय उपाय के लिए इस तरह के गूढ़ शब्द और बड़े-बड़े आंकड़े प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते बुधवार को पेश किए. खास बात ये है कि, पीएम मोदी का ये व्याख्यान देश के उस मध्यमवर्ग के लिए था जो उनका बड़ा समर्थक है. अपनी स्पीच के दौरान पीएम मोदी ने हवाला दिया कि इस साल जून से यात्री कारों की बिक्री में खासा इजाफा हुआ है. साथ ही उन्होंने कमर्शियल वाहनों और दुपहिया वाहनों की बिक्री बढ़ने पर भी खुशी जताई.


इसके अलावा मोदी ने एफएमसीजी (रोजमर्रा के उपयोग का सामान) की मांग बढ़ने का भी दावा किया. इन आंकड़ों के जरिए मोदी ने ये साबित करना चाहा है कि उनके नेतृत्व में अर्थव्यवस्था पूरी तरह से पटरी पर है. दरअसल, मोदी ने ये आंकड़े खासकर अपने उन आलोचकों के लिए पेश किए, जो देश की खराब अर्थव्यवस्था को लेकर लगातार उनपर हमलावर रुख अपना रहे हैं.

मेरा मकसद यहां देश के आर्थिक आयाम पर बेवजह की बहस शुरू करना नहीं है, और न ही मैं ये साबित करना चाहता हूं कि आर्थिक मुद्दे पर किसकी प्रस्तुति अच्छी है. यानी मैं ये फैसला करने नहीं बैठा हूं कि पीएम मोदी ने जो आंकड़े पेश किए वो ज्यादा विश्वसनीय हैं या जो उनके आलोचक कह रहे हैं वो आंकड़े ज्यादा तथ्यात्मक हैं. इसके बजाए, मेरी कवायद तो मोदी की स्पीच (व्याख्यान) के राजनीतिक आयाम की जांच-परख करना भर है. साथ ही मुझे ये जानने की भी जिज्ञासा है कि आखिर वो कौन सी वजहें रहीं, जिन्होंने मोदी को रक्षात्मक मुद्रा में आने को मजबूर कर दिया.

राजनीति का एक ऐसा खिलाड़ी जो हमेशा फ्रंट फुट पर खेलता आया हो, एक ऐसा नेता जिसकी शैली हमेशा से आक्रामक रही हो, वो अचानक रक्षात्मक होकर बैकफुट पर आ जाए तो अचंभा तो होगा ही. एक वक्त मोदी ने कहा था कि उन्हें और उनकी सरकार को आर्थिक सलाहकारों की जरूरत नहीं है. लेकिन अब वही मोदी इकॉनामिक एडवाइजरी काउंसिल (आर्थिक सलाहकार परिषद) के पुनरुत्थान की बात कर रहे हैं, ऐसा क्यों?

एक ऐसा इंसान जो कभी किसी दबाव के आगे नहीं झुका, उसने यशवंत सिन्हा की आलोचना के दबाव में आकर तेल (पेट्रोल-डीजल) की कीमतें कम क्यों की? इसके अलावा, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जैसे ही जीएसटी से प्रभावित छोटे कारोबारियों का मुद्दा उठाया, उसके एक हफ्ते के भीतर ही पीएम मोदी ने जीएसटी के नियमों में बदलाव कर दिए, ऐसा क्यों ?

पीएम को जाना पड़ा बैकफुट पर

मोदी ने साल 2014 में जब लोकसभा चुनाव जीता था, तब उन्हें विभिन्न सामाजिक और आर्थिक वर्गों का अपार समर्थन मिला था. लेकिन चुनाव में मोदी को विजयी बनाने में सबसे अहम भूमिका देश के उस पेशेवर मध्यमवर्ग ने निभाई थी, जो बीजेपी का पारंपरिक वोट बैंक नहीं माना जाता. इस पेशेवर मध्यमवर्ग में ऐसे अनगिनत लोग थे, जो अर्थशास्त्र की अच्छी समझ रखते थे और जिनका राजनीतिक झुकाव दक्षिणपंथी था. खास बात ये है कि इस वर्ग के ज्यादातर लोगों ने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का समर्थन किया. हालांकि तब बीजेपी की आर्थिक नीतियां खासी लोकलुभावन थीं. इसकी वजह ये मानी जाती है कि तब बीजेपी (खासकर मोदी ने) कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे पर विराम लगा रखा था.

यूपीए सरकार के आखिरी सालों में जब उसकी नीतियां लड़खड़ाने लगीं, तब बीजेपी ने मोदी को अपना प्रधाानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. उस वक्त मोदी को विकास पुरुष कहकर जोरदार तरीके से प्रचारित किया गया. जिसका नतीजा ये हुआ कि मोदी को भारी जनसमर्थन मिला. मोदी का उस वक्त समर्थन करने वालों में वो लोग भी शामिल थे, जो आर्थिक और सामाजिक उदारवाद के पक्षधर थे और मोदी के प्रतिद्वंदी माने जाते थे. पीएम मोदी ने उस वक्त जो वादे किए थे, उनसे जनता के मन में नई उम्मीदें जगीं थीं, क्योंकि मोदी तब लोगों को ताजा हवा के झौंके की तरह लगे थे.

फरवरी 2013 में मोदी ने दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में छात्रों को संबोधित किया था, तब अपने भाषण और उपदेशों के बल पर मोदी ने काफी सहानुभूति और समर्थन हासिल किया था. मंच पर खड़े होकर मोदी ने पानी से आधे भरे गिलास को उठाकर कहा था कि वो इस गिलास को आधे भरे या आधे खाली के रूप में नहीं देखते, बल्कि उनका मानना कि, गिलास आधा पानी से भरा है और आधा हवा से. मोदी की इस सरलता, सकारात्मकता और आशावादी दलील ने वहां मौजूद लोगों को खासा प्रभावित किया था.

इस तरह, उस वक्त मोदी, अपने वादों, इरादों और विजन से लगभग हर वर्ग के लोगों को प्रभावित करके मजबूत विकल्प बन बैठे थे. ये वो समय था, जब मोदी कुछ भी बोलते थे, तो कोई भी ऊपर उंगली नहीं उठाता था, और न ही कोई उनसे सवाल पूछता था. ये वो समय था जब मतदाता मोदी की हर इच्छा, हर मांग को पूरा करने के लिए बेताब थे, क्योंकि तब मोदी की विश्वसनीयता बुलंदियों पर थी. अपनी इसी विश्वसनीयता के दम पर मोदी ने तब बीजेपी के मिशन 272+ को पूरा किया था.

लोकसभा चुनाव के बाद मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने कई राज्यों में भी जीत का परचम लहराया. इनमें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत सबसे अहम मानी जाती है. क्योंकि तब समर्थकों ने दावा किया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी की जीत अटल है.

यहां तक कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने ये कह दिया था कि, विपक्षी दलों को 2019 के लोकसभा चुनाव की बजाए, 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियां करनी चाहिए, क्योंकि 2019 में बीजेपी की जीत निश्चित है. लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की चमत्कारिक जीत के महज सात महीने बाद ही वक्त ने अचानक करवट बदली और राजनीतिक परिदृश्य में नाटकीय बदलाव आ गया.

गुजरात में जहां लगभग चुनाव में बीजेपी की जीत एक आम बात हो चुकी है, वहां के हालात अचानक विपरीत हो गए हैं, जिससे पार्टी नेताओं में झुंझलाहट नजर आने लगी है. इसका मतलब ये नहीं है कि गुजरात में विपक्ष मजबूत हो गया है और जीत की तरफ बढ़ रहा है. दरअसल गुजरात में बीजेपी नेताओं की चिंताएं इसलिए बढ़ी हुई हैं कि मोदी के गृह राज्य में पार्टी को उस तरह का बहुमत मिलता नजर नहीं आ रहा जैसी कि अपेक्षा थी. गुजरात में कई मोर्चों पर नाकाम होने के बावजूद बीजेपी अमित शाह के 182 में से 150 सीटें जीतने के लक्ष्य को हर हाल में हासिल करना चाहती है.

वहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी बीजेपी और मोदी के खिलाफ असंतोष के सुर बुलंद होने लगे हैं. मोदी से सबसे ज्यादा शिकायत देश के उसी मध्यमवर्ग को है, जिसने 2014 में मोदी का न सिर्फ जोरदार प्रचार किया था बल्कि शानदार जीत भी दिलाई थी.

सोशल मीडिया पर उड़ता है मजाक

जमीनी स्तर के साथ-साथ मोदी सोशल मीडिया पर भी पस्त होते नजर आ रहे हैं. हालांकि कुछ अरसा पहले तक सोशल मीडिया मोदी का गढ़ माना जाता था. तब मोदी समर्थक हर वक्त सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते थे और उनकी नीतियों और फैसलों का बचाव करते थे. लेकिन अब ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब सोशल मीडिया पर मोदी का मजाक नहीं उड़ाया जाता हो. मोदी की कार्यशैली और फैसलों की खिल्ली उड़ाने वाले तरह-तरह के मैसेज रोजाना ही सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहे हैं.

नवरात्रि के दौरान गुजरात में मोदी के 'विकास' के नारे का जमकर मजाक उड़ाया गया और कहा गया कि विकास ‘पागल’ हो गया है. यही नहीं सोशल मीडिया पर विकास को मोदी के रूप में पेश किया गया. सोशल मीडिया पर मोदी की इस किरकरी से बीजेपी को गहरी ठेस लगी. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने तो भड़कते हुए इसके लिए कांग्रेसियों को जिम्मेदार ठहरा दिया.

अमित शाह के आरोप अगर सही भी मान लिए जाएं तब भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया पर विपक्षी दलों का ऐसा अभियान बिना जनसमर्थन के कामयाब नहीं हो सकता. मतलब साफ है कि जनता का मूड बदल गया है. लेकिन अभी ये कहना मुश्किल है कि ऊंट किस करवट बैठेगा. यानी गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव में लोग इस बार विपक्ष को वोट करेंगे या एक बार फिर से बीजेपी पर ही भरोसा जताएंगे, ये कहना अभी जल्दबाजी होगी.

अमित शाह के आरोपों के बावजूद सच्चाई ये है कि कांग्रेस फिलहाल पुनरुत्थान से कोसों दूर है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी लगातार विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहे हैं और लोग उनपर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. वो सोशल मीडिया पर और मध्यमवर्ग के लोगों के बीच मजाक का पात्र बनकर रह गए हैं. ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि गंभीर चुनौतियों का अभाव मोदी के लिए अच्छी खबर नहीं है.

साल 2014 में मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वोत्तम दावेदार माना गया था. तब लोगों को उनमें इकलौता विकल्प नजर आया था. जिसके चलते उन्हें ऐतिहासिक जीत मिली थी. लेकिन अब विकल्प के रूप में मोदी की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आ रही है, जो बीजेपी के लिए बुरी खबर है.

पीएम मोदी साल 2014 से लगातार आम जनता को लुभाते आ रहे हैं. पिछले साल नोटबंदी के जरिए उन्होंने मध्यमवर्ग को लुभाने की कोशिश की ताकि उनका जनाधार बरकरार रहे. दरअसल बीजेपी देश के मध्यमवर्ग को अपना भोंपू मानती है. पार्टी को लगता है कि उसका प्रचार-प्रसार जिस तरह से मध्यमवर्ग करता है वैसा कोई दूसरा वर्ग नहीं कर पाता. लिहाजा अगर बीजेपी की पैठ मध्यमवर्ग में बरकरार रही तो समझो उसने आधी लड़ाई जीत ली है.

लेकिन इस कवायद से बाकी जनता को नजरअंदाज किया जा रहा है. द इंस्टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेटरीज ऑफ इंडिया (आईसीएसआई) में अपनी स्पीच के दौरान मोदी ने इस बात के बहुत ही कम सबूत दिए कि उनकी सरकार ने आम आदमी की स्थिति में सुधार के लिए क्या-क्या किया है. दरअसल सबसे बड़ी समस्या ये है कि आम जनता और मध्यमवर्ग की जरूरतें और मांगे राजनेताओं की प्राथमिकताओं से बिल्कुल अलग हैं.

डेढ़ साल में फिर चमका सकते है छवि

ज्यादातर नेताओं का ध्यान अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों पर केंद्रित होता है, वो देश के बाकी लोगों की समस्याओं की खास चिंता नहीं करते. ऐसे में मोदी के अंदर असुरक्षा और अनिश्चतता की भावना पैदा हो गई है, उन्हें ऐसा लगने लगा है कि कहीं वो जनादेश के बेहद नजदीक पहुंचकर चूक तो नहीं जाएंगे.

जो चीज यहां उनके पक्ष में है वो है 'टीना' (TINA) यानि देयर इज़ नो अल्टरनेटिव. इसका मतलब यह कि जनता के पास कोई विकल्प नहीं है इसलिए वह स्वाभाविक रूप से दोबारा मोदी को चुनेगी.

बहरहाल, मोदी के पास अभी भी डेढ़ साल का वक्त है. इस दौरान वो फीकी पड़ती जा रही अपनी छवि को फिर से चमका सकते हैं और विकास की अपनी गाथा को नए सिरे से लिख सकते हैं. लेकिन ये तभी संभव होगा जब सरकार के सभी मंत्री मिलकर काम करें और मोदी के विजन को पूरा करें. अगर ऐसा हुआ तो मोदी अपनी करिश्माई छवि को यकीनन दोबारा हासिल कर लेंगे. वहीं दो साल का ये वक्त विपक्षी दलों के लिए काफी महत्वपूर्ण है, इस दौरान वो खुद को नए सिरे से संगठित और व्यवस्थित करके बीजेपी के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं.

आने वाले कुछ महीने मोदी के लिए बेहद अहम हैं. लेकिन सवाल ये उठता है कि एकाएक रक्षात्मक होने के बाद क्या उनके लिए फिर से आक्रामक हो पाना संभव होगा? और क्या वो फिर से अपनी खो चुकी सियासी जमीन को वापस पा सकेंगे? कांग्रेस समेत लगभग सभी विपक्षी दल लगातार मोदी की काट कर रहे हैं और उनपर निशाना साध रहे हैं. लेकिन विपक्षी दलों को अगर वाकई मोदी के लिए समस्या पैदा करनी है तो उन्हें आम जनता के पास जाना चाहिए. मोदी की कथनी और करनी से असंतुष्ट जनता को संगठित करके विपक्ष बड़ी कामयाबी हासिल कर सकता है.

वहीं मोदी का काम और भी ज्यादा मुश्किल है. साल 2014 से लेकर अबतक हालात और माहौल काफी बदल चुके हैं. खासकर बीते दो महीनों में तो परिस्थितियां पूरी तरह से पलट चुकीं हैं. कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कि देश ज्यादातर किसान कहते हैं कि, ‘फसल खराब होने में देर नहीं लगती.’