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पीएम मोदी की डीएमके मुखिया करुणानिधि से मुलाकात के सियासी मायने क्या हैं

गुजरे इन तमाम सालों के बाद सत्ताधारी बीजेपी के सबसे बड़े नेता ने किसी वक्त सहयोगी रह चुकी तमिल पार्टी के नेता से भेंट करने की सचेत कोशिश की है

Sanjay Singh

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने डीएमके के मुखिया के घर जाकर उनसे मुलाकात की. मुलाकात तो बस पंद्रह मिनटों की थी लेकिन सियासी हलके में इस मुलाकात के कई मानीखेज मतलब निकलते हैं.

महत्वपूर्ण यह नहीं है कि प्रधानमंत्री डीएमके के बीमार चल रहे मुखिया और उनके परिवार-जन से भेंट करने के लिए उनके घर पहुंचे तो वहां चर्चा किन बातों पर हुई. बल्कि अहम यह है कि गुजरे इन तमाम सालों के बाद सत्ताधारी बीजेपी के सबसे बड़े नेता ने किसी वक्त सहयोगी रह चुकी तमिल पार्टी के नेता से भेंट करने की सचेत कोशिश की. छोटी सी मुलाकात में मौजूदा सियासी माहौल पर कोई बात हुई या नहीं या सियासत को लेकर कोई चर्चा चली या नहीं- इस बात की कोई खास अहमियत नहीं है.


राजनीति में शुरुआत छोटी-मोटी भाव-भंगिमाओं के सहारे ही होती है. करुणानिधि के दरवाजे पर पहुंच कर नरेन्द्र मोदी ने डीएमके और बीजेपी के रिश्तों के बीच बरसों से जमी चली आ रही बर्फ और ठंढेपन को तोड़ने का काम किया है. बीजेपी या फिर डीएमके अपने मौजूदा सियासी मोर्चेबंदी से अलग कदम बढ़ाएंगे ऐसा सोचना फिलहाल ख्याली पुलाव पकाना है. इस मुलाकात का नफा-नुकसान आगे आने वाले महीनों और सालों में पता चलेगा.

ये सिर्फ दो नेताओं की शिष्टाचार मुलाकात नहीं है

नब्बे की उम्र पार कर चुके के. करुणानिधि तमिलनाडु के पांच दफे मुख्यमंत्री रहे हैं और वे देश के सबसे वरिष्ठतम राजनेताओं में शुमार हैं. तबियत का हाल-चाल जानने और कुशल-क्षेम पूछने के लिए प्रधानमंत्री का उनके निवास पर पहुंचना पहली नजर में राजनीतिक शिष्टाचार का मामला जान पड़ेगा. लेकिन मौजूदा सियासी माहौल पर नजर रखें और राजनीतिक समीकरणों में हमेशा होते रहने वाले बदलाव के एतबार से सोचें तो मोदी का डीएमके के मुखिया के घर पहुंचना सिर्फ राजनीतिक शिष्टाचार और एक वरिष्ठ नेता के प्रति आदर-भाव जताने भर का मामला नहीं रह जाता.

इसकी एक खास वजह यह भी है कि डीएमके समेत ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम करती हैं और पार्टी में नेतृत्व खानदानी चलन के हिसाब से तय होता है, नेतृत्व का निर्णय लोकतांत्रिक तरीके से नहीं होता.

ध्यान देने की बात यह भी है कि डीएमके के मुखिया के घर पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी की अगवानी में करुणानिधि की सियासत के वारिस उनके बेटे एमके स्टालिन और बेटी कणिमोझी पलक-पांवड़े बिछाये दिखे और घर के अंदर जाते समय प्रधानमंत्री ने अपने कदमों की रफ्तार थोड़ी धीमी की ताकि स्टालिन उनके साथ हो सकें.

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घर के अंदर करुणानिधि की पत्नी रजथी अम्मल और दयालु अम्मल प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए मौजूद थीं. इन बातों को नजर में रखें तो मन में यह सवाल कौंधेगा ही नहीं कि आखिर करुणानिधि और मोदी की पिछली मुलाकात कब हुई थी या फिर स्टालिन और मोदी की मुलाकात इससे पहले कभी हुई भी है या नहीं. मुलाकात के मौके पर प्रसारित होने वाले विजुअल्स में सभी बहुत खुश और गर्मजोशी से भरे दिखाई देते हैं.

इस मुलाकात के सियासी मायने बड़े हैं

प्रधानमंत्री का करुणानिधि के चेन्नई के घर पर पहुंचकर उनसे मुलाकात करना देश को अचरज भरा लग सकता है लेकिन इस मुलाकात की योजना पूरी सतर्कता के बहुत पहले ही बनाई गई होगी और इससे जुड़े तमाम जोड़-जमा पर खूब सोच-विचार किया गया होगा. तथ्य यह है कि करुणानिधि के साथ मुलाकात के लिए प्रधानमंत्री के साथ रक्षामंत्री भी गयी थीं. वो तमिलनाडु से हैं और डीएमके परिवार के सभी प्रमुख सदस्य इस मौके पर मौजूद थे. इससे जाहिर होता है कि दूसरी पीढ़ी के नेताओं के बीच आगे के हेल-मेल के लिए रास्ता खुल गया है.

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फिलहाल डीएमके ने एक सहयोगी के रूप में कांग्रेस पार्टी का बराबर साथ दिया है. बीते 17 सालों से डीएमके कांग्रेस की सहयोगी है. कांग्रेस ने नोटबंदी, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में मोदी सरकार और बीजेपी के खिलाफ जो बैठकें कीं उसमें डीएमके के नुमाइंदे के रूप में कणिमोझी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ दिखीं.

दरअसल, प्रधानमंत्री के डीएमके के मुखिया के घर पहुंचने और वहां दोनों पक्ष की ओर से दिखायी गई गर्मजोशी पर कांग्रेस का नेतृत्व अपनी नजरें टिकाये होगा और मुलाकात से निकलने वाले मायनों पर कांग्रेस नेतृत्व ने हर पहलू से गौर किया होगा. हालांकि राहुल गांधी और कणिमोझी के बीच कई दफे मुलाकात हुई है लेकिन करुणानिधि के चेन्नई के निवास से सोमवार को जो तस्वीरें आई हैं, डीएमके साथ कांग्रेस की वैसी तस्वीरें नहीं मिलतीं.

यूपीए सरकार में करुणानिधि की खास भूमिका रही.

14 साल बाद रिश्तों में जमी बर्फ पिघली है

डीएमके बीजेपी की सहयोगी पार्टी रही है और इस रूप में उसने केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शिरकत की थी. लेकिन 2003 के दिसंबर में डीएमके ने बीजेपी और एनडीए से रिश्ता तोड़ लिया. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शामिल रही तमिलनाडु की पार्टी डीएमके को इस सरकार से कुछ खास शिकायतें थीं.

पार्टी वाजपेयी से नाराज थी, लालकृष्ण आडवाणी और बीजेपी से भी क्योंकि उसे लगा कि इन नेताओं से निजी और सियासी तौर पर रिश्ते तो बड़े अच्छे हैं लेकिन ये राजनेता और बीजेपी उस आड़े वक्त में उसके साथ खड़े नहीं हुए जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता ने 2001 के बाद से अपनी कार्रवाइयों से डीएमके को लगातार सांसत में डाला. डीएमके को लगा कि जे जयललिता बदले की भावना से उसके खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं.

तमिलनाडु पुलिस ने करुणानिधि को गिरफ्तार करने के लिए आधी रात के वक्त उनके निवास पर छापा मारा, वरिष्ठ नेता मारन को इस घटना में चोट लगी और बाद में जयललिता ने वायको समेत अपने विरोधी नेताओं पर ‘पोटा’ कानून के तहत मनमाने ढंग से कार्रवाई की.

हालांकि डीएमके ने एनडीए से अपना दामन छुड़ा लिया था लेकिन वाजपेयी ने मुरासोली मारन के साथ अपना निजी समीकरण बनाये रखा. मुरासोली मारन बीमार पड़े तो वाजपेयी उनसे मिलने अस्पताल पहुंचे और बाद में उनके अंतिम-संस्कार में भी शामिल हुए. डीएमके को बीजेपी ने विश्वस्त सहयोगी माना लेकिन उस वक्त प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी इस स्थिति में नहीं थे कि डीएमके की कुछ मांगों को पूरा कर सकें.

इन मांगों में लोकतांत्रिक रीति से चुनकई सत्ता में आयी जयललिता की सरकार को बर्खास्त करने की मांग भी शामिल थी. 2004 में डीएमके ने कांग्रेस से नाता जोड़ा और बीजेपी ने एआईएडीएमके से. इसी साल लोकसभा के चुनाव हुए, एआईएडीएमके का सूपड़ा साफ हो गया और डीएमके ने भारी कामयाबी हासिल की.

बीजेपी 'दक्षिण की रणनीति' में बदलाव कर सकती है

अब जरा 2017 के हालात पर नजर दौड़ाइए. बीजेपी अब भी एआईएडीएमके की तरफ झुकी हुई है और एआईएडीएमके का रूख भी बीजेपी की ओर है. हालांकि दोनों के बीच गठबंधन नहीं है लेकिन बीजेपी ने लोकसभा के उपाध्यक्ष (डेप्यूटी स्पीकर) का पद एआईएडीएमके के सांसद एम थम्बीदुरै को दिया है.

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स्वर्गीय जे जयललिता और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच भी निजी तौर पर अच्छी निभती थी. मोदी सरकार ने जयललिता की मृत्यु के बाद उनकी पार्टी की सरकार को अपना समर्थन दिया. लेकिन अब ऐसा लगता है कि बीजेपी 2019 के चुनावों के मद्देनजर अपने लिए विकल्प खुला रखना चाहती है.

सत्ताधारी बीजेपी के एक सूत्र ने कहा कि चेन्नई जाकर करुणानिधि से मिलने का मोदी का फैसला इस बात के संकेत करता है कि वे अपने दम पर अथवा सहयोगी पार्टियों को साथ लेकर नयी राह खोलने के लिए हमेशा कोशिश कर रहे हैं. वे एक चलता-फिरता थिंक टैंक हैं. उनकी धारदार चिन्तन-प्रक्रिया की एक अभिव्यक्ति चेन्नई पहुंचने के उनके फैसले में हुई है.

उत्तर और पश्चिम में बीजेपी अपने शीर्ष पर है और 2019 के चुनावों के एतबार से उसके लिए पूरब और दक्षिण की ओर देखना जरुरी है. यह बात पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने बार-बार कही है. पूरब में अब बीजेपी को नीतीश कुमार का साथ हासिल है. असम में बागडोर बीजेपी के हाथ में है और पूर्वोत्तर में उसके लिए राह खुल रही है.

पश्चिम बंगाल और ओडिशा में बीजेपी, टीएमसी और बीजेडी से अपने दम पर लड़ने की कोशिश कर रही है और एक हद तक कामयाबी भी मिली है. दक्षिण के सूबे आंध्रप्रदेश में मोदी ने दोनों ही क्षेत्रीय पार्टियों यानी चंद्रबाबू नायडू और जगनमोहन रेड्डी को अपने साथ किया है. इसके बाद बचते हैं केरल और तमिलनाडु. अब ऐसा जान पड़ता है मोदी ने डीएमके और एआईडीएमके दोनों के लिए अपने विकल्प खुले रखे हैं. सूत्र ने बताया कि केरल में पार्टी अपने को खड़ा करने के लिए पूरा जोर लगा रही है.