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लोकसभा चुनाव 2019: पीएम नरेंद्र मोदी की पुरी से उम्‍मीदवारी फिलहाल खयाली पुलाव

साथ ही बीजेपी इस बात से भलीभांति वाकिफ है कि पीएम मोदी के वाराणसी से पुरी शिफ्ट होने का कदम आमजन के मन में इस बात का संदेश होगा कि यूपी में एसपी-बीएसपी और आरएलडी के साथ आ जाने से बीजेपी घबरा गई है.

Shivaji Rai

2019 लोकसभा चुनाव में कुछ ही महीने बचे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के अगले लोकसभा चुनाव क्षेत्र को लेकर सियासी गलियारों में चर्चा जोरों पर है. चर्चा के मुताबिक पीएम मोदी अगला लोकसभा चुनाव वाराणसी की बजाय ओडिशा के पुरी से लड़ेंगे. हालांकि पीएम मोदी ने इस मुद्दे को खारिज करते हुए इसे मीडिया की देन करार दिया है. लेकिन इस चर्चा को एक बार और बल मिल गया जब ओडिशा बीजेपी के वरिष्ठ नेता और विधायक प्रदीप पुरोहित ने दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी आगामी लोकसभा चुनाव पुरी ससंदीय सीट से लड़ेंगे.

चर्चा के पीछे दो तर्क दिए जा रहे हैं, पहला उत्तर भारत में जनाधार खिसकने की आशंका के बीच बीजेपी बतौर अगला ठिकाना पूर्वी भारत को बनाने की रणनीति पर काम कर रही है. इसी के तहत पीएम मोदी के पुरी से चुनाव मैदान में उतरेंगे. जिससे ओडिशा में बीजेपी की चुनावी संभावनाएं मजबूत होंगी. दूसरा, वाराणसी में पीएम मोदी को घेरने के लिए अखिलेश, मायावती समेत सभी विपक्षी दलों के साथ होने के संकेत के बाद बीजेपी को लग रहा है कि वोटर कम निकले तो पीएम की प्रतिष्‍ठा फंस सकती है. इसी को देखते हुए पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र को लेकर बीजेपी प्‍लान बी पर काम कर रही है.


बीजेपी के वर्चस्‍व वाली सीट

इन चर्चाओं के बीच यह सवाल अहम है कि क्‍या सच में वाराणसी लोकसभा सीट को लेकर पीएम मोदी के सामने विपक्षी दलों की घेराबंदी तगड़ी है? क्‍या महागठबंधन के चक्रव्‍यूह को तोड़ पाना मुमकीन नहीं दिख रहा है? क्‍या चुनावी गणित के लिहाज से बीजेपी की स्थिति इस बार लचर है? इन सवालों के जवाब के लिए वाराणसी के चुनावी इतिहास को देखना जरूरी है. इतिहास देखने पर पहली ही नजर में एक बात साफ हो जाती है कि वाराणसी लोकसभा सीट हमेशा से बीजेपी के वर्चस्‍व वाली सीट रही है. साल 1991 की हिंदू लहर के बाद से एक चुनाव को छोड़कर, वाराणसी संसदीय सीट हमेशा बीजेपी के पास रही है. सिर्फ साल 2004 में गैर-बीजेपी उम्‍मीदवार इस सीट से जीत दर्ज कर सका.

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नरेंद्र मोदी के पिछले चुनाव के वोट अनुपात पर भी ध्‍यान देना जरूरी है. पिछले चुनाव में अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार विरोधी नारे के साथ मोदी के खिलाफ मैदान में थे. दूसरे उम्‍मीदवार कांग्रेस के स्‍थानीय नेता अजय राय थे. इसके अलावा समाजवादी पार्टी ने कैलाश चौरसिया और बहुजन समाज पार्टी ने विजय जायसवाल को अपना उम्मीदवार बनाया था. काफी गहमागहमी के बावजूद नरेंद्र मोदी ने प्रतिद्वंद्वी केजरीवाल को 3 लाख 71 हजार से अधिक वोटों से पटखनी दी. मोदी को 5 लाख 81 हजार और केजरीवाल को करीब दो लाख 10 हजार वोट मिले थे. अजय राय को 75 हजार, समाजवादी पार्टी के कैलाश चौरसिया को सिर्फ 45 हजार और बीएसपी के जायसवाल को 60 हजार से कुछ अधिक वोट ही मिले थे.

अगर मोदी के मुकाबले पड़े सभी वोटों को मिला भी दें तो नरेंद्र मोदी को मिले वोटों से कम है. साल 2009 के लोकसभा चुनावों में जब यूपीए ने अपनी सत्ता बरकरार रखी थी, तब भी बीजेपी ने वाराणसी सीट पर जीत दर्ज की थी. 2009 में बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने बीएसपी उम्‍मीदवार मुख्तार अंसारी को सिर्फ 17 हजार वोटों से हराया था. ये बीजेपी की जीत का सबसे कम अनुपात रहा.

समीकरण संतुलित नहीं रहते

इन आंकड़ों के साथ यह भी समझना बहुत जरूरी है कि वाराणसी की मौजूदा तस्‍वीर 2009 से अलहदा है. साथ ही पीएम मोदी जैसे उम्मीदवार के मैदान में उतरने से पारंपरिक समीकरण संतुलित नहीं रहते. जातिगत समीकरण भी टूट जाते हैं. वाराणसी में तकरीबन 15 लाख 32 हजार मतदाता हैं. जिनमें लगभग 82 फीसदी हिंदू, 16 फीसदी मुसलमान और बाकी अन्य हैं. हिंदुओं में 12 फीसदी अनुसूचित जाति और एक बड़ा तबका पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाले मतदाताओं का है.

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धार्मिक ध्रुवीकरण की बात को दरकिनार भी कर दें, तो भी मोदी की तुलना में महागठबंधन की मजबूती को सहज स्‍वीकारना जल्‍दबाजी होगी. पीएम मोदी की लोकप्रियता में पक्के तौर पर भारी गिरावट कहना फिलहाल संभव नहीं है. साथ ही बीजेपी इस बात से भलीभांति वाकिफ है कि पीएम मोदी के वाराणसी से पुरी शिफ्ट होने का कदम आमजन के मन में इस बात का संदेश होगा कि यूपी में एसपी-बीएसपी और आरएलडी के साथ आ जाने से बीजेपी घबरा गई है और बीजेपी हर हाल में ऐसा आत्‍मघाती कदम नहीं उठाएगी, जिससे ऐसा संदेश जनता में जाए!