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पीएम, पान और ‘पेट्रियॉटिज्म’- सफाई के लिए संकल्प का जायका जरूरी है

ये विशुद्ध 'नरेंद्र मंत्र' है; इसमें न राजनीति है और न ही किसी के लिये कोई बैराग

Kinshuk Praval

पीएम मोदी ने कहा कि धरती पर पान की पिचकारी फेंकने वालों को भारत माता की जय बोलने का हक नहीं है. गंदगी फैलाकर हमें वंदे मातरम बोलने का हक नहीं है.

ये उन्होंने मन की ही बात नहीं की बल्कि देश की भी बात की है. सवा सौ करोड़ भारतीयों से ये गुजारिश की है कि स्वच्छता के मिशन के लिए आदतों में सुधार की भी सख्त जरूरत है. तभी उसमें भावनात्मक पुट भी डाला कि देश से प्रेम करने वालों और वंदे मातरम बोलने के लिये एक जरूरी आदत ये भी हो कि पान की पिचकारी धरती को गंदा न करे.


जिस धरती को मां कह कर नमन करते हैं और वंदे मातरम कहते हैं तो फिर उस मां के आंचल को गंदा कैसे किया जा सकता है? ये विशुद्ध 'नरेंद्र मंत्र' है. इसमें न राजनीति है और न ही किसी के लिए कोई बैराग.

पीएम मोदी की संसदीय सीट बनारस है. बनारस अपने पान की वजह से भी इंटरनेशनल पहचान रखता है. पान के शौकीनों के लिए बनारसी पान स्टेटस सिंबल है. पीएम मोदी ने अपनी संसदीय सीट से एक पान को उठाकर सवा सौ करोड़ देशवासियों के सामने रख दिया. उन्होंने पान को देशभक्ति से जोड़ दिया. कुछ इसी तरह ही पीएम मोदी ने पान के शौकीनों को वंदे मातरम से भी जोड़ दिया और देश की सफाई से भी.

पान किसी एक धर्म, जाति, समुदाय की पहचान या शौक नहीं है. हर धर्म, जाति या समुदाय में हाथों से मुंह तक का सफर करने वाला पान मीठा ही रहता है. न उसका स्वाद बदलता है और न रंग. लेकिन होठों को लाली देने वाला ये पान जब जमीन पर फेंका जाता है तो धरती जरूर बदरंग हो जाती है. यही विडंबना है पान के साथ.

तो यही मुश्किल भी है पान के शौकीनों के साथ. ये शौकीन देश के हर हिस्से में होते हैं. एक इलाके को बदरंग कर देने के लिए सिर्फ एक ही पान का शौकीन और एक खराब आदत काफी है. ये खराब आदत वही है जो पीएम मोदी बता रहे हैं.

पान के शौकीनों के मुंह में घुलता जायका जब ओवरफ्लो होने लगता है तो अगल-बगल की दीवार, पेड़ या जमीन उनकी पिचकारी का निशाना बन जाता है. पान खाने वाला चला जाता है लेकिन बदनाम वो जगह हो जाती है जहां पान के शौकीन की निशानी सुर्ख लाल रंग में चस्पा हो जाती है.

ऐसे में सवा सौ करोड़ के देश में अगर कुछ प्रतिशत पान के शौकीन अपनी आदतों की वजह से धरती को गंदा करने का काम करते रहें तो स्वच्छ भारत अभियान सदियों तक चलता ही रहेगा.

पान का बीड़ा किसी भी शादी समारोह या फिर आयोजन का हिस्सा रहता है. पान को बैन नहीं किया जा सकता है लेकिन उससे जुड़ी गलत आदतों को तो हमेशा के लिए बाहर फेंका जा सकता है.

पीएम मोदी पिछले तीन साल से स्वच्छता मिशन पर जोर दे रहे हैं. स्वच्छता के मिशन को लेकर सरकार संजीदगी से काम कर रही है. लोगों की सोच में बदलाव भी आया है. नई करेंसी में स्वच्छता अभियान के मिशन का नारा चस्पा है तो बॉलीवुड जैसी ग्लैमर वाली दुनिया ने भी टॉयलेट एक प्रेमकथा जैसी फिल्म बना कर करोड़ों कमाए. यानी मन साफ और स्वच्छता को लेकर संजीदा है तो टॉयलेट भी बिक सकता है. सौ करोड़ रुपए भी कमा सकता है.

पहले 'शौचालय तो बाद में देवालय' और 'पहले शौचालय बाद में शादी' जैसी रियल लाइफ कहानियां सामने आ रही हैं.

लेकिन ये बदलाव सिर्फ हाल के तीन साल में दिखा. पूर्ववर्ती सरकारों और पुराने पीएम के दौर में सफाई कभी राष्ट्रीय मुद्दा नहीं थी. बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के वादों से भरे नेताओं के भाषण बिजली, पानी, सड़क से बाहर नहीं निकल सके थे. सफाई का सिविक सेंस नेता भी नहीं महसूस करते थे.

लेकिन मोदी अलग राह पकड़ कर चलने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने जब स्वच्छता अभियान की शुरुआत की तो देश के दिग्गज कारोबारी, खिलाड़ी, नेता, अभिनेता-अभिनेत्रियों तक ने हाथों में झाड़ू थाम ली. जाहिर तौर पर उनका मकसद सफाई के संदेश को आगे बढ़ाने का था. देश के नामी चेहरों के हाथ में जब आम जनता झाड़ू देखेगी तो शायद आम अवेचतन भी सफाई को लेकर गंभीर हो.

वेद-पुराणों में कई पेड़ों को लेकर धार्मिक मान्यताएं और आस्था लिखी हुई हैं. पीपल, आम और बरगद जैसे पेड़ हों या फि तुलसी जैसे पौधे हों, उन सबका धार्मिक महत्व है. लेकिन आस्था के पीछे छिपे सच को समझने की जरूरत भी है. अगर ये पेड़-पौधे किसी आस्था के बंधन में न बांधे गए होते तो क्या आज तक इनके धरती पर बने रहने की संभावना होती?

जबकि वैज्ञानिक रिसर्च इन पेड़-पौधों को पर्यावरण के हिसाब से बेहद अहम मानती है. पीपल ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है तो तुलसी आयुर्वेद के लिए वरदान है. ऐसे ही अनगिनत पेड़-पौधे है जिनकी अपनी अपनी अहमियत है. लेकिन वो सब किसी आस्था या फिर आवश्यकता से बंधे हुए हैं और उसी की वजह से आज तक जीवित भी हैं.

ऐसे में देशभक्ति की आस्था के लिए और स्वच्छता की आवश्कता के लिए भी एक संकल्प से बंधा होना जरूरी है ताकि स्वच्छता सही मायनों में यथार्थ की जमीन पर उतर सके और वंदे मातरम का भाव जागृत हो सके. ये अब पान के शौकीनों पर निर्भर करता है कि वो वंदे मातरम बोलना चाहते हैं या फिर  खराब आदत के गुलाम रहना चाहते हैं.