ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की पसंदीदा कहावतों में से एक थी 'सोचो और करो'. उड़ी हमले के एक सप्ताह बाद प्रधानमंत्री ने दो भाषण दिए.
एक कोझीकोड में और दूसरा ‘मन की बात’ में रेडियो पर. दोनों में वे देश को युद्ध की आशंकाओं से दूर लेकर गए.
जो लोग उनके भाषण को बारीकी से समझना चाहते हैं उनके संदेश स्पष्ट है. मोदी युद्ध के दलदल में नहीं फंसना चाहते हैं.
उनके दोनों भाषणों उन लोगों के लिए चेतावनी सरीखे थे जो ‘कंप्लीट जॉ फॉर अ टूथ’ या एक दांत के बदले पूरा जबड़ा मांग रहे थे. मोदी कई जरूरी कारणों से ऐसे वाहियात तर्कों में नहीं फंसे.
मोदी एक प्रधानमंत्री बोते हुए युद्ध का मांग को बल नहीं दे सकते. जो लोग ये मांग उठा रहे हैं वो तथ्यहीन राय, बेलगाम और खुद को जला देने वाला राष्ट्रवाद है.
इसीलिए मोदी ने कोझीकोड में पाकिस्तान के साथ हजार साल तक जंग लड़ने की बात कही. पर उन्होंने बड़ी का सफाई के साथ कहा कि जंग तो गरीबी अशिक्षा और बच्चों की बीमारी से मौतों के खिलाफ होगी.
मोदा का नया रुख
पाकिस्तान के संबंध में मोदा का नया रुख और भाषण उससे ठीक उलट है जो उनका तब होता था जब वो गुजरात के मुख्यमृत्री थे.
याद करें उनकी ‘मियां मुशर्रफ’ वाली भाषा और तेवर जब वो कहते थे ‘पाकिस्तान गुजरात से डरता है’. प्रधानमंत्री मोदी का रुख मुख्यमंत्री मोदी से उलट है.
तो मोदी को देखकर क्या समझें? मोदी विरले नेता हैं जो हमेशा उनके बारे में बनाई गई धारणाओं को तोड़ते हैं.
अपने शपथ ग्रहण समारोह से ही उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर सबको चौंकाना शुरू कर दिया था.
और चीनी राष्ट्रपति के साथ सार्वजनिक रूप से अहमदाबाद में मिलनसारिता दिखाना भी पुराने स्थापित व्यवहार को तोड़ने जैसा ही था.
यह कहना नादानी ही होगा कि ये कदम जल्दबाजी या आवेग में उठाए गए. नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय महत्व के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भावुकता से काम न लेने के लिए मशहूर हैं.
‘सोचो और करो’
उड़ी हमले के संदर्भ में मोदी विंस्टन चर्चिल की ‘सोचो और करो’ वाली कहावत का पालन कर रहे हैं. जमीनी हकीकत ये है कि पाकिस्तान के साथ सीधे संघर्ष से दोनों देशों के बीच की परेशानियों का हल नहीं निकलने वाला.
व्यवहारिक राजनीति करने वाले नरेंद्र मोदी यह जानते हैं कि युद्ध की अपनी गति होती है और वह शायद ही कभी संभावित नतीजे पर पहुंचता है.
उनकी वास्तविक चिंता देश की कमजोर आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था की है जिसकी वजह से पाकिस्तानी आतंकी संगठन देश में हमला कर पाने में सफल हो रहे हैं.
सरकार में मौजूद सूत्रों के अनुसार तीनों सेनाओं और सीपीओ (सेंट्रल पुलिस ऑर्गेनाइजेशन)के प्रमुखों के साथ बैठक में उन्होंने इस मसले पर गहरी चिंता जाहिर कर कमर कसने को कहा था.
इस दौरान उड़ी हमले से यह बात भी सामने आई है कि हमारे सैन्य ठिकानों पर कितनी आसानी से हमला किया जा सकता है.
सेना की बहादुरी के दावों और प्रशंसा के एक आवरण के बीच उड़ी में ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर हुआ हमला भारतीय सेना की सुरक्षा व्यवस्था में कमियों की ओर इशारा करता है.
मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना था मकसद
इसके बाद सेना के अधिकारियों द्वारा 10 आतंकियों के खिलाफ सीमा के निकट ऑपरेशन चलाने की बात ने स्थिति और ज्यादा कठिन बना दिया. यह उड़ी हमले के दो दिन बाद हुआ.
सबसे बुरा यह हुआ कि बाद में सरकार ने पाया कि ऑपरेशन फर्जी था और मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए किया गया था. अधिकारियों ने सफाई देते हुए कहा कि मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन चलाना कोई असामान्य बात नहीं है.
संकटग्रस्त क्षेत्रों में ऐसा किया जाता है. हाल ही में सेना ने म्यांमार पर भी झूठी वाहवाही लूटने की कोशिश की गई थी जिसका बाद में बचाव भी नहीं किया जा सका.
प्रधानमंत्री होने के नाते मोदी अच्छे से समझते हैं कि युद्ध की तैयारी होना जितना जरूरी है उतना ही भ्रम फैलाना भी. इसलिए उनकी चुप्पी को वाकपटुता के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.
कोझीकोड के उनके भाषण में यह स्पष्ट हो गया कि वे अपनी शर्तों पर पाकिस्तान के संबंध रखेंगे. वे पर्याप्त गंभीर रूप से पाकिस्तान की सामाजिक मुश्किलों पर उंगली उठा रहे हैं. वे बलोच, पश्तो और सिंधियों के मसले पर उंगली उठा भी चुके हैं.
इन सभी संकेतों के हिसाब से वे खुद को लंबे समय के लिए तैयार कर रहे हैं. वह भी अपनी पार्टी के ‘भावशून्य राष्ट्रवादियों’ पर ध्यान दिए बिना.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक बार निराशापूर्ण क्षणों में विंस्टन चर्चिल ने कहा था ‘युद्ध जीतना मुश्किल नहीं है, मुश्किल है लोगों को इस बात के लिए मनाना कि आप उसे जीत सकें.
यह मूर्खो को मनाने जैसा है. वर्तमान में चर्चिल की उसी दुविधा ने मोदी को चारों ओर से घेर रखा है.