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मुसलमानों को और शर्मिंदा मत कीजिए!

‘मुस्लिम-समुदाय’ और ‘गैर-मुस्लिमों’ को पर्सनल-लॉ के बारे में सही जानकारी प्रसारित करने के मकसद से एक मुहिम शुरू करने जा रही है

Nazim Naqvi

खबर है कि ‘जमाते इस्लामी हिन्द’ ‘पर्सनल-लॉ जागरूकता-अभियान’ चला रहा है और अगली 7 मई तक देश के लगभग 5 करोड़ मुसलमानों तक अपना संदेश पहुंचाएगा.

पिछले शुक्रवार, यानी 21 अप्रैल को मुसलमानों के एक बड़े संगठन जमात-ए-इस्लामी हिन्द ने दिल्ली के प्रेस क्लब में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित किया.


उन्होंने कॉन्फ्रेंस में मिडिया के माध्यम से ये जानकारी दी कि ‘मुस्लिम-समुदाय’ और ‘गैर-मुस्लिमों’ को पर्सनल-लॉ के बारे में सही जानकारी प्रसारित करने के मकसद से एक मुहिम शुरू करने जा रही है. यह मुहिम 23 अप्रैल से 7 मई तक चलेगी. यह फैसला दरअसल, 16 अप्रैल को लखनऊ में, ‘पर्सनल लॉ बोर्ड’ की दो दिवसीय बैठक में लिया गया.

आखिर क्या है मकसद?

बैठक के समापन पर मुस्लिम उलेमाओं और विद्वानों ने मिलकर ये दावा भी किया कि 'देश के ज़्यादातर मुसलमान, मुस्लिम-पर्सनल-लॉ में किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते.'

बोर्ड-कार्यकारिणी की अहम बैठक में यह चिंता भी व्यक्त की गयी कि देश में पर्सनल-लॉ पर कुछ इस तरह चर्चा होने लगी है कि उसकी अहमियत और उपयोगिता पर सवाल खड़े किए जाने लगे हैं.

शरीयत पर सवाल नहीं

साथ ही शरीयत के बारे में कोई जानकारी ना रखने वाले लोगों ने भी इस पर उंगली उठाना शुरू कर दिया है.

दिल्ली में हुई प्रेस-कांफ्रेंस में इस लेख के लेखक भी मौजूद थे. अभियान के संयोजक मौलाना मो. ज़फर ने कैंपेन की जानकारी के बाद जब बैठे हुए पत्रकारों को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित किया तो वह महज एक रस्म-अदायगी थी.

पहले ही यह कह दिया गया था कि शरीयत के कानून ईश्वरीय कानून हैं इसलिए इसके साथ किसी भी तरह की छेड़-छाड़ की इजाज़त किसी को भी नहीं है.

इस दोहरेपन की क्या है वजह?

सवाल यह है कि पर्सनल-लॉ पर कोई पत्रकार प्रश्न कैसे पूछ सकता है? समझ से ये भी परे है कि जब कोई परिवर्तन मुमकिन ही नहीं है तो बोर्ड ये दलील क्यों दे रहा है कि देश के ज्यादातर मुसलमान पर्सनल-लॉ में कोई बदलाव नहीं चाहते. मान लीजिए कि वो परिवर्तन की मांग करते हैं तो क्या उनकी मांग को मान लिया जाएगा?

क्योंकि लेखक शरीयत पर इतनी जानकारी नहीं रखता कि उसकी आलोचना या समालोचना कर सके. लिहाजा शरीयत को समझने के लिए किताबों के हवाले से ही बात करना ज्यादा बेहतर है.

शरिया में क्या है फिरके और काफ़िर?

किताबों में हवाला मिलता है कि इस्लाम में कई फिरके हैं. हर फिरका खुद को मुसलमान मानता है बाकी को काफिर कहते हैं.

देवबंदी, बरेलवी को और बरेलवी देवबंदी को काफिर कहता है. दोनों मिलकर ‘अहले-हदीस’ को काफिर कहते हैं और तीनों मिलकर ‘शिया’ को काफिर कहते हैं. ये सिलसिला लंबा और बड़ा घुमावदार है.

क्या है इनका कालक्रम?

अब आइये, एक नजर इस काल-क्रम पर डालिए और खुद फैसला कीजिये कि आप शरीयत को ईश्वरीय रचना मानेंगे या मानव निर्मित-रचना?

1. छठवीं सदी (610-32) में क़ुरआन पूरा हुआ, यानी अल्लाह ने अपने पैग़म्बर को आकाशवाणी के ज़रिये मानव समाज को जो सन्देश भेजे, उनकी इतिश्री हुई. अल्लाह ने अपनी अंतिम ‘आयत’ (कड़ी) में कहा: 'आज मैंने तुम्हारा दीन, तुम्हारे लिए पूरा किया.'

2. 699-855: इस समय-काल में शरिया, (विधिबद्ध कानून), पांच इमामों द्वारा तैयार किए गए.

इमाम अबू हनीफा (699-767)

इमाम जाफ़र सादिक़ (702-65)

इमाम शाफ़ई (767-820)

इमाम मालिक (712-95) और

इमाम हंबल (778-855)

3. 800-900: यह वो समय-काल है जब पैग़म्बर-ए-इस्लाम के कथन का संकलन दर्ज किया गया जिसे ‘सुन्नत’ कहा जाता है. यह, मोहम्मद साहब के स्वर्गवासी होने के दो सौ वर्षों बाद संकलित हुआ, इसे भी अलग-अलग राय रखने वाले छ: इमामों ने अलग-अलग समय में संकलित किया और मुस्लिम समाज को हमेशा-हमेशा के लिए एक गहरी चिंता में डाल दिया कि वह किस ‘शरिया’ को या किस ‘सुन्नत’ को विशुद्ध रूप में स्वीकार करे.

ऐसे में, होता यह है कि कुछ शरिया जो सबमें ‘सामान’ हैं, उन्हें विशुद्ध होने का दर्जा दिया जाता है. या फिर यह कि हम फलां इमाम के मानने वाले हैं इसलिए हम तो उसीको मानेंगे, जैसी सोच से काम चलाया जाता है. यही दलील ‘सुन्नत’ के बारे में भी काम में लायी जाती है.

आज तक नहीं मिला जवाब

इस सवाल का कभी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला कि (632-900) लगभग तीन सौ साल की इस अवधि में, जब ‘शरिया’ निर्मित हो रही थी या ‘सुन्नत’ का संकलन हो रहा था, उस समय में, जो इस्लाम धर्म पर अपना ईमान ले आये थे, वह किस इस्लाम का अनुसरण कर रहे थे.

अगर वह नैतिकता और केवल नैतिकता पर आधारित नहीं था तो क्या था? लेकिन अफसोस कि वही नैतिकता, पांच तरह की ‘शरिया’ और छ: तरह की सुन्नत में उलझ कर रह गयी.

वह क़ुरआन जो खुले तौर पर कहता है कि दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं है. यह भी जानते चलिए कि अरबी शब्द ‘दीन’, अंग्रेजी शब्द ‘रिलिजन’ से कहीं ज्यादा व्यापक है. इसमें विश्वास, भरोसा, निर्णय, विवेक और जीवन का तरीक़ा, शामिल हैं.

इसलिए जब ‘दीन’ के लिए, मजबूरी से इनकार किया गया है तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति को न सिर्फ धर्म चुनने की विशुद्ध स्वतंत्रता है, बल्कि इसमें विवेक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी प्रतिभा के अनुसार उपयुक्त जीवन-मार्ग का अनुसरण करने की स्वतंत्रता भी शामिल है.

क्या यह लालच का नतीजा है?

इमाम ग़ज़ाली (11वीं सदी) के अनुसार, ‘यह उलेमाओं द्वारा, आधिकारिक संरक्षण के लिए, लालच का नतीजा है जो नैतिक और सामाजिक मानकों में गिरावट के लिए जिम्मेदार है.

ये उलेमा कानूनी दांव-पेंच के अध्ययन में ज्यादा ग्रस्त थे, जिसे उन्होंने काजी और मुफ्ती जैसे आकर्षक आधिकारिक पदों की सुरक्षा के लिए, एक माध्यम के रूप में देखा और इस्लाम की अन्य शाखाओं की पूरी तरह से अनदेखी की’.

आखिर में 20वीं सदी के सबसे प्रमुख इस्लामी चिन्तक और जमाते-इस्लामी के संस्थापक अबुल अला मौदूदी (1903-1979), मुस्लिम-पर्सनल-लॉ के बारे में क्या कहते हैं, यह जान लें, तो इस लेख का आशय पूरा हो जाय. फैसला तो पाठकों को खुद ही करना होगा.

मौदूदी साहब फरमाते हैं: 'मोहमडन-लॉ (मुस्लिम पर्सनल लॉ), अपने स्वरुप और भावना दोनों ही रूपों में, ‘इस्लामिक-शरीयत’ से बहुत अलग है, और इस योग्य नहीं हैं कि इस्लामिक-क़ानून कहकर इन पर अमल किया जा सके.'

वह आगे कहते हैं 'इन मामलों में दुखद स्थिति यह है कि इसने मुसलमानों के नागरिक-जीवन को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया है और सबसे गंभीर नुकसान यह है कि इस ‘पर्सनल-लॉ’ की वजह से, कम से कम 75 प्रतिशत मुस्लिम-परिवार नर्क बन गए हैं.

इस कानून ने, भारी संख्या में, जीवन को पूरी तरह से न सिर्फ कड़वा बना दिया है, बल्कि बर्बाद कर दिया है.' आइए फिर उसी खबर की ओर लौटते हैं कि ‘जमाते इस्लामी हिन्द’ ‘पर्सनल-लॉ जागरूकता-अभियान’ चला रहा है और अगली 7 मई तक पांच करोड़ मुसलमानों तक अपना सन्देश पहुंचाएगा.