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पीएम मोदी को लोगों का समर्थन कायम लेकिन दांव उल्टा भी पड़ सकता है!

भारत में 79 फीसद लोगों का कहना है कि वे अपने मुल्क की राजव्यवस्था यानी लोकतंत्र के कामकाज से संतुष्ट हैं. लेकिन यहां फांस यह है कि इसमें 67 प्रतिशत लोग लोकतंत्र को लेकर बहुत निष्ठावान नहीं हैं

Sreemoy Talukdar

पश्चिमी दुनिया के उदारवादी लोकतंत्र लोक-लुभावनवाद (पॉपुलिज्म) की ओर मुड़ रहे हैं और दुनिया अधिनायकवादी ट्रेंड के उभार से चिंता में है. पीईयू रिसर्च सेंटर ने लोकतंत्र के भविष्य के बारे में एक सर्वेक्षण किया है और भारत को लेकर इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष बड़े दिलचस्प हैं. यह बड़े पैमाने का सर्वेक्षण था.

16 फरवरी से 8 मई 2017 के बीच 38 देशों के 41953 रेस्पॉन्डेन्ट्स (उत्तरदाता) के बीच किए गए इस सर्वेक्षण के संकेत हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के पांव मजबूती से जमे हुए हैं. सरकार को अधिकतर आबादी का समर्थन और विश्वास हासिल है. लेकिन यहां एक बात ठहरकर सोचने की भी है.


सर्वेक्षण का एक संकेत यह भी है कि देश के नागरिक चाहते हैं सरकार अपने कदम तेजरफ्तारी से बढ़ाए और काम करके दिखाए और इससे जुड़ी आशंका यह है कि अगर सरकार ऐसा करने में नाकाम रहती है तो भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था की जगह अधिनायकवाद या फिर सैनिक शासन ले सकता है.

एशिया-पैसेफिक के इलाके में अधिनायकवादी और सैनिक शासन वाली राजव्यवस्थाओं की भरमार है और इस नाते यह इलाका बड़ा अशांत है. भारत इस इलाके में लोकतंत्र का एक चमकदार उदाहरण रहा है लेकिन अब भारत के लिए राह चुनौतियों भरी साबित हो सकती है.

79 प्रतिशत लोग राजव्यवस्था से खुश हैं

सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्ष एकदम बेधड़क और बेलाग जान पड़ते हैं जबकि कुछ निष्कर्ष आम मान्यता के विपरीत पड़ते हैं, उन्हें अंतर्विरोधी भी कहा जा सकता है इसलिए आईए देखते हैं कि आंकड़ों के आईने में नतीजे की क्या शक्ल निकलकर सामने आती है.

गौर करने की पहली बात तो यह है कि लोकतंत्र जिस ढंग से अमल में है उसे लेकर अधिकतर भारतीय खुश हैं. वैश्विक स्तर पर औसतन 46 फीसद लोगों का कहना है जिस तरह से उनके देश में राज-व्यवस्था चल रही है उसे लेकर वे बहुत या कमोबेश संतुष्ट हैं और 52 फीसद का कहना है कि वे अपनी मुल्क की राजव्यवस्था से या तो एकदम संतुष्ट नहीं हैं या फिर संतुष्ट हैं लेकिन बहुत ज्यादा नहीं.

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भारत में 79 फीसद लोगों का कहना है कि वे अपने मुल्क की राजव्यवस्था यानी लोकतंत्र के कामकाज से संतुष्ट हैं. लेकिन यहां फांस यह है कि इसमें 67 प्रतिशत लोग लोकतंत्र को लेकर बहुत निष्ठावान नहीं हैं, लोकतंत्र को लेकर उनकी प्रतिबद्धता बड़ी सतही है, सिर्फ 8 प्रतिशत भारतीय ही लोकतंत्र के प्रति गहरी निष्ठा महसूस करते हैं.

पीईयू के मुताबिक, ‘जिन उत्तरदाताओं ने निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिए होने वाले शासन (रिप्रेजेन्टेटिव डेमोक्रेसी) के प्रति समर्थन जताया और साथ ही किसी विशेषज्ञ या मजबूत नेता अथवा फौजियों के जरिए होने वाले शासन(यानी अलोकतांत्रिक शासन) के लिए हामी नहीं भरी उन्हें सर्वेक्षण में कमिटेड (निष्ठावान) की श्रेणी में रखा गया जबकि ऊपर बताए गए उदाहरणों में अलोकतांत्रिक शासन के किसी भी एक रूप के प्रति हामी भरने वाले उत्तरदाता को कम निष्ठावान या सतही प्रतिबद्धता वाली श्रेणी में रखा गया.’

अगर पहले दो सूचकांक आपस में बेमेल जान पड़ते हैं तो इस बेमेलपन की व्याख्या के लिए हमें आंकड़ों के दूसरे समुच्चय (सेटस्) को देखना होगा. आंकड़ों के दूसरे सेट्स बताते हैं कि ‘जो लोग मौजूदा सत्ताधारी दल या दलों से अपने को जोड़कर देखते हैं वे अपनी राजनीतिक व्यवस्था को लेकर कहीं ज्यादा संतुष्ट हैं बनिस्बत उन लोगों के जो अपने को विपक्षी दलों से जोड़कर देखते हैं या जो किसी भी दल के समर्थक नहीं हैं.’

इसका मतलब हुआ कि बीजेपी को अब भी पूरे भारत में बड़े पैमाने पर जन-समर्थन हासिल है और इसलिए अधिकतर भारतीयों (जिनकी लोकतंत्र को लेकर अलग-अलग धारणा हो सकती है) का विश्वास है कि यह राजव्यवस्था संतोषजनक ढंग से काम कर रही है. बीजेपी को उत्तरप्रदेश में मिली चुनावी कामयाबी से सर्वेक्षण मेल खाता है. इसलिए, नरेंद्र मोदी के लिए बड़े राहत की बात है भले ही भारत में ढांचागत सुधार करने की उनकी कोशिशों के अल्पकालिक नतीजों को लेकर तीखी आलोचना हो रही हो.

यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि सर्वेक्षण जीएसटी के अमल में आने से पहले ही पूरा हो चुका था इसलिए इसमें सिर्फ नोटबंदी (विमुद्रीकरण) के बाद पैदा हुई आर्थिक परेशानियों के ही हवाले आ पाए हैं.

स्वीडन में 90 प्रतिशत और नीदरलैंड में 89 फीसद लोग विरोध हैं

आंकड़ों का अगला सेटस हमें भारत में चल रहे अलग-अलग किस्म के मंथन के बारे में बताता है यानी एक ऐसी स्थिति के बारे में जहां हम देखते हैं कि लोगों का विश्वास भागीदारी आधारित लोकतंत्र में है, साथ ही पश्चिम के मुल्कों के उलट वे एक मजबूत नेता को सत्ता की बागडोर संभाले हुए देखना चाहते हैं.

पीईयू के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 85 फीसद भारतीयों का अपनी राष्ट्रीय सरकार पर भरोसा है, ये भारतीय मानते हैं कि सरकार वही करेगी जो देश के लिए अच्छा होगा. सर्वेक्षण के मुताबिक ‘75 फीसद भारतीय रिप्रेजेन्टेटिव डेमोक्रेसी का समर्थन करते हैं' जबकि 55 फीसद अधिनायकवादी (ऑटोक्रेटिक) राजव्यवस्था के समर्थक हैं और 27 फीसद भारतीय आबादी सत्ता की बागडोर एक मजबूत नेता के हाथ में देखना चाहती है जो अदालत और संसद के हस्तक्षेप की परवाह किए बगैर अपने फैसले ले.

अगर तथ्य को संदर्भ के चौखटे में सजाएं तो नजर आएगा कि यूरोप के मुल्कों में औसतन 86 फीसद लोगों का कहना है कि वे किसी मजबूत नेता के हाथ में सत्ता की बागडोर आने का पुरजोर विरोध करते हैं, जर्मनी में ऐसे लोगों की तादाद सबसे ज्यादा (93 प्रतिशत) है. सत्ता की बागडोर मजबूत नेता के हाथ में जाने के विरोधी लोगों की संख्या स्वीडन में 90 प्रतिशत और नीदरलैंड में 89 फीसद है.

भारत की इस विरोधाभासी स्थिति की व्याख्या के लिए यहां लोकतंत्र के इतिहास पर नजर डालना ठीक होगा. हम देखते हैं कि भारत ने जब आजादी हासिल की तो यहां शासन की व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र कुछ यों अमल में आया जैसे खूब ऊंचे किले पर खड़े होकर कोई लोगों के अधिकार उन्हें आशीर्वाद के रूप मे बांट रहा हो.

देश में लोकतंत्र संविधान की बुनियाद पर अमल में आया जबकि पश्चिम के उदारवादी लोकतंत्रों के साथ स्थिति अलग थी. वहां मुल्क सार्विक वयस्क मताधिकार (यूनिवर्सल एडल्ट फ्रेंचाइज) की ओर क्रमवार ढंग से बढ़े, बीच में संक्रमण का भी दौर आया और लोकतांत्रिक विकास अन्य सहायक बदलावों से कुछ वैसे ही जुड़ा रहा जैसे कि शरीर के अंग आपस में जुड़े होते हैं. यूरोप के मुल्कों को चूंकि संक्रमण की अवधि नसीब हुई इसलिए उपलब्ध समय का उपयोग करते हुए उन्होंने लोकतंत्रीकरण के कारण पैदा हुई जरूरतों से मेल खाते बुनियादी ढांचे का विकास कर लिया.

इटली में केवल 26 प्रतिशत लोगों का केंद्र पर भरोसा है

रॉयटर को दिए गए एक साक्षात्कार में वॉशिंगटन स्थित कार्नेगी एन्डोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के मिलन वैष्णव बताते हैं कि लोगों की राज्यसत्ता से बड़ी अपेक्षाएं हैं और इन उम्मीदों को पूरी कर पाने के मामले में राज्यसत्ता की क्षमता सीमित है. इससे लोगों की उम्मीदों और राज्यसत्ता की क्षमता के बीच एक बड़ी खाई है और इसी खला ने ‘मजबूत नेता’ के लिए जगह पैदा की है, लोग इसलिएचते हैं कि मजबूत नेता के हाथ में सत्ता की बागडोर आए तो वह नतीजे हासिल कर दिखाएगा.

मिलन वैष्णव के मुताबिक ‘आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की तेजरफ्तारी से शासन (भारत में) तालमेल नहीं बैठा पाया है. इसी कारण लोगों की मांग और इन मांग को पूरा कर पाने की राज्यसत्ता की क्षमता के बीच एक खला पैदा हुई है. पश्चिम ने लोकतंत्रीकरण के पहले ही संस्थाएं बना ली थीं लेकिन भारत में संस्थाओं का बनना और लोकतंत्रीकरण साथ-साथ शुरु हुआ.’

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यहां गौर करने की बात है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आना एक मजबूत नेता की छवि के सहारे मुमकिन हुआ यानी एक ऐसा नेता जो लोगों की उम्मीद को पूरा कर सकता है. मोदी के चुनाव-प्रचार का एक नारा ‘गुड गवर्नेंस’ था जिसका वादा था कि भारतीयों के लिए ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’.

राजनीतिक प्रेरणा के अलावा केंद्र की सरकार में लोगों के अधिक भरोसे का सीधा रिश्ता आर्थिक मोर्चे पर देश के बेहतर प्रदर्शन से है. पीईयू के सर्वेक्षण में कहा गया है कि, ‘भारत में अर्थव्यवस्था 2012 से 6.9 फीसद की औसत रफ्तार से बढ़ रही है इसलिए यहां 85 प्रतिशत लोग केंद्र सरकार पर भरोसा करते हैं. लेकिन इटली में केवल 26 प्रतिशत लोगों का अपनी केंद्र सरकार पर भरोसा है वहां अर्थव्यवस्था पांच सालों में कमजोर पड़ी है’

इस आखिर के तथ्य से एक आशंका जागती है और इस आशंका का सीधा रिश्ता ऊंचे पदों पर भ्रष्टाचार से है भले ही भारत में लोकतंत्र को लोगों का मजबूत समर्थन हासिल है. राजनेताओं को लेकर लोगों की राय अच्छी नहीं है. लोग चाहे जिस धर्म और विचारधारा को मानने वाले हों, वे राजनेताओं को भ्रष्ट मानते हैं. पूरे देश में राजनेताओं को लेकर लोगों के मन में यही धारणा है. इसके उलट लोगों के मन में सेना के प्रति गहरा सम्मान है. लोग सेना का उसकी ईमानदारी और साहस के कारण सम्मान करते हैं और मानते हैं कि सेना के भ्रष्ट होने की आशंका कम है.

ऐसे में पीईयू का यह निष्कर्ष कि ‘तकरीबन आधे भारतीय (53 प्रतिशत) कहते हैं कि सैनिक शासन लागू हो तो देश के लिए अच्छा होगा‘ एक चेतावनी की तरह है. भारत में आजादी के बाद से ही जनता का राज रहा है जबकि भारत के पड़ोसी देशों में ऐसी स्थिति नहीं रही. सर्वेक्षण के संकेत हैं कि ‘उम्रदराज लोग सेना के हाथ में देश का शासन होने को लेकर कम समर्थक हैं और भारत की आबादी में युवाओं की तादाद को देखते हुए यह तथ्य और भी ज्यादा चिन्ता जगाता है. लोगों के दिमाग में यह बात बहुत गहरी बैठ गई है कि राजनेता भ्रष्ट होते हैं.

सेना प्रमुख बिपिन रावत

जब चीन में बढ़ गई थी खेती की उपज

भारत में आर्थिक वृद्धि को लेकर बड़ा जोर दिया जा रहा है और अधिनायकवाद के आने का छुपा हुआ खतरा इस बात से भी जुड़ता है क्योंकि चीन का उदाहरण हमारे सामने है जहां अधिनायकवादी शासन ने मीडिया, विधायिका और न्यायपालिका को एक किनारे कर तेज आर्थिक वृद्धि हासिल की है.

अमेरिकी अर्थशास्त्री ग्रे बेकर ने बेकर-पोस्नर ब्लॉग पर चीन को हासिल तेज आर्थिक वृद्धि के बारे में लिखा है कि ‘वहां 1970 के दशक में देंग श्याओपिंग ने कम्युनिस्ट चीन के दरवाजे कृषि के क्षेत्र में निजी निवेश के लिए खोल दिए और बड़े कम समय में खेती की उपज नाटकीय ढंग से बढ़ गई. ताईवान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और चीले के स्वेच्छाचारी शासकों ने निजी क्षेत्र और निजी व्यवसाय को बढ़ावा देने वाले बुनियादी बदलाव करके अपनी अर्थव्यवस्था में ऐसी ही तेज बढ़वार हासिल की.’

बेकर ने अपनी तरफ से एक चेतावनी भी दी है ‘स्वेच्छाचारी शासन का एक दूसरा पहलू भी है, गतल नीतियों की राह पर चल निकले ऐसे नेता बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं’, लेकिन आर्थिक खुशहाली के फंदे में फंसकर हम सामने खड़े खतरे की ओर से आंख मूंद लेते हैं. इसलिए, मोदी सरकार भले ही अभी बढ़त की स्थिति में जान पड़े लेकिन पीईयू के सर्वेक्षण के निष्कर्ष बहुत बेचैन करने वाले हैं.