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संसद में हंगामा: तय की जाए सदस्यों की जवाबदेही

संसद की कार्यवाही में बाधा डालने से विपक्षी दलों को क्या फायदा होगा

Prakash Nanda

संसद का जारी सत्र मुश्किल में है. इसकी पूरी जिम्मेदारी विपक्षी दलों की है जो मोदी सरकार के 500 और 1000 के पुराने नोटों को बंद करने के फैसले के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं. और यह सबकुछ 'आम आदमी' के नाम पर हो रहा है जिसे बैंक और एटीएम के सामने लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है और अपने पुराने नोटों को बदलने और 'अपने पैसे' निकालने में काफी मुश्किल आ रही है.

फिर भी, इस मुद्दे पर विपक्षी दलों की अनाप-शनाप बातें खत्म नहीं हो रही हैं. किसी को समझ नहीं आ रहा है कि लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही में बाधा डालने से विपक्षी दलों को क्या फायदा होगा. आखिर विरोध का यह कैसा तरीका है? तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी चाहती है कि सरकार अपने फैसले को वापस ले, जबकि बाकी विपक्ष अपनी मांग को लेकर साफ नहीं है. जनता दल (यू) के सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री ने मोदी सरकार के कदम का समर्थन किया है, लेकिन संसद में पार्टी के नेता शरद यादव कांग्रेस, वामपंथी दलों और बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़े हैं.


नोटबंदी पर बहस के दौरान राज्यसभा में सांसद सीताराम येचुरी

संसद सत्र के पहले ही दिन कांग्रेस ने इस मसले पर राज्यसभा में बहस थोप दी थी, लेकिन अगले ही दिन उसने अपना रुख बदल लिया. वह बाकी विपक्षी दलों के साथ मिलकर यह मांग करने लगी कि नोटबंदी के फैसले से 70 से ज्यादा लोगों की मौत पर जब तक सदन में शोक प्रस्ताव पास नहीं होता, तब तक कोई बहस नहीं होगी. हालांकि किसी भी विपक्षी नेता के पास उपसभापति के इस सवाल का जवाब नहीं था कि मौतों से जुड़े आंकड़े की सच्चाई क्या है. 22 नवंबर को राज्यसभा में विपक्ष ने फिर पाला बदल लिया और बहस के पहले प्रधानमंत्री के सदन में आने की जिद करने लगा. मजेदार यह है कि राज्यसभा में नोटबंदी पर स्थगित बहस बिना वोटिंग और सेंसर के है, जबकि कांग्रेस लोकसभा में इसी मसले पर वोटिंग और सेंसर के साथ बहस कराने की मांग कर रही है.

बीजेपी भी अलग नहीं

इस विश्लेषण में नोटबंदी की खूबियों और खामियों की चर्चा नहीं की जा रही है. फोकस यह कि भारत में संसदीय गतिरोध की राजनीति के उभार को समझा जाए. गौरतलब है कि 15वीं लोकसभा (2009-14) ने तयशुदा वक्त का 40 फीसदी ही इस्तेमाल किया और बाकी वक्त विपक्ष के हंगामे की बलि चढ़ गया. यह अब तक की सबसे कम चलने वाली लोकसभा थी. उस वक्त बीजेपी विपक्ष में थी और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में थी.

सुषमा स्वराज

अब स्थिति पलट चुकी है. 2014 के बाद से विपक्ष और खासतौर पर कांग्रेस ने 16वीं लोकसभा और राज्यसभा को कई मसलों पर बाधित किया. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे द्वारा भगोड़े उद्योगपति ललित मोदी को मदद पहुंचाने से लेकर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की व्यापम घोटाले में कथित मिलीभगत तक. सत्ताधारी दल के सदस्यों के जाति और सांप्रदायिक हिंसा (दादरी की घटना और बीफ राजनीति) पर विवादित बयान से लेकर, नेशनल हेराल्ड केस में गांधी परिवार के खिलाफ मोदी सरकार की 'बदले की नीति', जीएसटी बिल और अभी नोटबंदी तक.

गौरतलब है कि सदन के जारी रहने पर राजकीय खजाने से हर मिनट ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं. मैं उन लोगों में शामिल नहीं हूं जो यह मानते हैं कि कांग्रेस अभी वही कर रही है, जो यूपीए शासन के दौरान बीजेपी कर रही थी. ऐसा मानने में दिक्कत यह है कि अगर कल कांग्रेस सत्ता में आती है तो बीजेपी को संसद में बाधा पहुंचाने का हक होगा. और इसका मतलब यह हुआ कि जब तक कोई दल या गठबंधन संसद के दोनों सदनों में बहुमत नहीं पाता, तब तक देश में कुछ भी ठोस नहीं किया जा सकता. इससे ज्यादा बुरी कोई बात नहीं हो सकती.

नेहरू ने कहा था अफसोसनाक

संसद का अनुशासन, शिष्टाचार और गरिमा भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत अहम है और हमारी संसद के शुरुआती सालों में इन बातों का बहुत महत्व था. एक पुराना वाकया है. फरवरी 1963 में कुछ सदस्यों ने संसद के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान धक्का-मुक्की करते हुए भाषण के हिन्दी की जगह अंग्रेजी में होने का विरोध किया था. एक राज्यसभा सदस्य ने वाकआउट भी किया था. अगले दिन पार्टी लाइन की परवाह न करते हुए सदस्यों ने धक्का-मुक्की की निंदा की और एकजुट होकर खेद जताया. 18 फरवरी 1963 को मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस घटना पर लिखा 'संसद में ऐसी पहली घटना' और 'बहुत अफसोसनाक'. उन्होंने जोड़ा, 'यह साफ है कि इस तरह के मसलों का कड़ाई से मुकाबला किया जाए, नहीं तो हमारे संसद और विधानसभाओं के काम में मुश्किल आएगी और उनका सम्मान भी घटेगा. यह एक अहम मुद्दा है और मैं उम्मीद करता हूं कि संसद एक बेहतर आदर्श रखेगा और राज्य विधानसभाएं उसका पालन करेंगी.'

मुझे ताज्जुब होता है कि सोनिया गांधी जब हमेशा कांग्रेस के गौरवशाली 'इतिहास' की याद दिलाती हैं, तो उन्हें यह बात याद रखनी चाहिए कि नेहरू ने क्या कहा और लिखा. यह भी याद रखना चाहिए कि कैसे आज के हिसाब से एक बहुत मामूली बदतमीजी पर राज्यसभा के तत्कालीन सभापति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने एक सदस्य के भाषण के कुछ हिस्सों को काटने का आदेश दे दिया था और टिप्पणी की थी: “हम सदन के सम्मान और गरिमा को बनाए रखना चाहते हैं. मेरे साथ-साथ हर सदस्य ऐसा चाहता है. मैं नहीं चाहता हूं कि इन चर्चाओं से लोगों को ऐसा लगे कि हम संसद के गंभीर और जिम्मेदार सदस्यों की तरह व्यवहार नहीं कर रहे हैं, बल्कि गैर-जिम्मेदार पेशेवर आंदोलनकारियों की तरह पेश आ रहे हैं. इस सदन के सदस्य चाहे किसी भी दल के हों, इन चीजों से उन्हें बचना चाहिए. हमें इसका ध्यान रखना चाहिए और अपना सम्मान और गरिमा बनाए रखना चाहिए. इसे लेकर मैं चिंतित हूं”.

इस तथ्य पर गौर करने की जरूरत है कि सालों से सरकार और विपक्ष के बीच ज्यादातर विवादपूर्ण बहसें प्रशासनिक और राजनीतिक मसलों से जुड़ी रही हैं. बैंकों और अन्य संपतियों का राष्ट्रीयकरण, आर्थिक और आरक्षण जैसे सामाजिक मुद्दे उनके केन्द्र में नहीं रहे हैं. यह बिल्कुल कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण और उदारीकरण को लेकर संसद में कई तरह के मत रहे हैं. लेकिन यह टकराव किसी खास निश्चय से नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण था. ऐसे कई मामले हैं जब विपक्षी दलों (बीजेपी भी) ने संसद में सरकार पर हमला किया और वैश्वीकरण के नाम पर आर्थिक संप्रभुता को सरेंडर करने का आरोप लगाया. जबकि उनकी राज्य सरकारें अलग-अलग राज्यों में उन्हीं नीतियों को अपना रही थीं.

भारतीय संसद में राजनीति की अहमियत को बंटी हुई पहचानों के तौर पर देखा जा सकता है. हम आज एक 'आंदोलनकारी राजनीति' के दौर में हैं. एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस का पतन और क्षेत्रीय व परिवार-आधारित दलों का उभार इसकी पहचान है. इन क्षेत्रीय दलों के नेताओं के बारे में राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी का कहना है कि वे 'जाति के सेकुलराइजेशन' और राज्यों में निचले किसानों के उभार की पैदाइश हैं.

ये सारे दल भारत की राजनीतिक जमीन के फैलने और राजनीतिक मैदान में समाज के निचले तबकों के आने से पैदा हुए हैं. उनके नेता तथाकथित संपूर्ण भारतीय समझ से प्रभावित नहीं हैं. यहां तक कि गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान को छोड़कर, जहां कांग्रेस और बीजेपी आमने-सामने हैं, पूरी भारतीय राजनीति क्षेत्रीयकरण की प्रक्रिया में जा चुकी है. बाकी सभी राज्यों में क्षेत्रीय दल उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने दोनों राष्ट्रीय दल.

विकल्प सुझाना भी है विपक्ष का काम

यह सच है कि भारत में विपक्ष हमेशा बंटा रहा है. लेकिन पहले और अब में फर्क यह है कि विपक्ष के बढ़ने पर कोई व्यवस्थित रोक नहीं है. एक-दलीय परंपरा (कांग्रेस वाली) बची नहीं है जिससे एक प्रमुख दल को विपक्ष के सलाहों के आधार पर आगे बढ़ने की क्षमता मिलती है. उनके संसदीय व्यवहार पर इसका असर पड़ता है. अगर अतीत में 'सरकार का विरोध' एक नारा था, आजकल 'किसी भी तरह सरकार के काम में बाधा डालना' हो गया है. एक असरदार विपक्ष का काम सरकार के काम का विरोध करने के साथ-साथ, जिम्मेदारी से काम करना और विकल्प सुझाना भी है. विपक्ष का काम सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करना नहीं है. लेकिन आजकल हम यही देख रहे हैं.

इस हालात में नियमित संसदीय गतिरोध से निकलने का क्या तरीका है? मेरी नजर में संसद के संचालन अधिकारियों (राज्यसभा में उप-राष्ट्रपति और उपसभापति; लोकसभा में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष) को सरकार और ज्यादातर सदस्यों का समर्थन हासिल करने के लिए सक्रिय भूमिका में आना चाहिए, ताकि वे संसद में जनता का भरोसा बनाए रख सकें. संसदीय नियमों के तहत उन्हें अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करना चाहिए और उन सदस्यों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए जो जानबूझकर संसद की कार्यवाही में बाधा पहुंचाते हैं और अध्यक्ष की बात नहीं मानते हैं. अतीत में कई सदस्यों को गलत व्यवहार के कारण सदन से बाहर जाने को कहा जा चुका है (अध्यक्ष उनका नाम ले सकता है या उपस्थित सार्जेंट से उन्हें निकालने का आग्रह कर सकता है) और कई मामलों में सदस्यों को उनके बुरे व्यवहार के लिए सस्पेंड किया जा चुका है.

फिलहाल, लोकसभा के अध्यक्ष से ज्यादा, राज्यसभा के सभापति-उपसभापति को मौजूदा नियम लागू करने की जरूरत है. क्योंकि लोकसभा से ज्यादा राज्यसभा ने देश के लेजिसलेटिव कामों को रोक रखा है. जबकि राज्यसभा के 'संसदीय आचरण और नियम' के तहत, 'सदन को इसके सदस्यों द्वारा सदन के भीतर या बाहर किये गए उनके गलत आचरण के लिए दंड देने का अधिकार है. सदस्यों के गलत आचरण या अवमानना के लिए सदन उन्हें चेतावनी दे सकता है, निकाल सकता है, सदन की सेवा से सस्पेंड कर सकता है, जेल भेज सकता है और उनकी सदस्यता खारिज कर सकता है'.