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...तो क्या अब बीएसपी को मुसलमानों की परवाह नहीं रही

मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को बाहर का रास्ता दिखाकर राज्य की जनता को एक संकेत देने की कोशिश की है.

Amitesh

बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने पार्टी के बड़े नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बेटे अफजल सिद्दीकी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. मायावती के इस कदम के बाद से ही जेहन में  यह सवाल खड़ा हो रहा है कि आखिरकार उनकी तरफ से यह कदम क्यों उठाया गया.

सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि नसीमुद्दीन सिद्दीकी बीएसपी के बड़े मुस्लिम चेहरे के तौर पर अपनी पहचान बना चुके थे. हाल ही में खत्म हुए विधानसभा चुनाव के वक्त यूपी के भीतर मायावती के बाद नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही सबसे बड़े स्टार प्रचारक के तौर पर सामने आए थे.


बीएसपी ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ के जरिए यूपी की सत्ता पर दोबारा काबिज होने की पूरी कोशिश की थी. इसके लिए सौ से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में बीएसपी की तरफ से उतार दिया गया. बीएसपी की इस पूरी रणनीति के केंद्र में रहे पार्टी के मुस्लिम चेहरे और राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी.

लेकिन, यूपी में दलित-मुस्लिम गठजोड़ के पूरी तरह से फेल होने के बाद इस बात का ठीकरा कहीं न कहीं फूटना ही था. तो सवाल यही खड़ा होता है कि क्या नसीमुद्दीन सिद्दीकी को यूपी चुनाव में हार का खामियाजा भुगतना पड़ा या वजह कुछ और भी थी.

वरिष्ठ पत्रकार अंबिकानंद सहाय का मानना है कि नसीमुद्दीन सिद्दीकी को इस बात का दंड मिला क्योंकि दलित-मुस्लिम गठजोड़ के फेल होने के जिम्मेदार वही थे.

मायावती ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ को सामने लाकर विधानसभा चुनाव में अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश की लेकिन समीकरण फेल होने के बाद सिद्दीकी को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है.

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हालांकि, बीएसपी को करीब से जानने वाले बद्रीनारायण की अपनी दलील है. प्रो. बद्रीनारायण का मानना है कि जब से मायावती ने अपने भाई आनंद को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया है तभी से पार्टी के भीतर इस तरह की प्रतिक्रिया हुई है. बद्रीनारायण का मानना है कि यह बीएसपी के आंतरिक विरोधाभास का नतीजा है.

मायावती विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली हार के लिए नसीमुद्दीन सि्द्दीकी को जिम्मेदार मान रहीं हैं

क्यों फेल हुआ बीएसपी का दलित-मुस्लिम गठबंधन

पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही सही मायने में बीएसपी के पतन की शुरूआत हो गई थी, जब बीएसपी का खाता तक नहीं खुल पाया था.

फर्स्टपोस्ट से बातचीत में अंबिकानंद सहाय कहते हैं कि, 'लोकसभा चुनाव के वक्त बीएसपी के पतन की शुरूआत हो गई थी. ऐसा मायावती के दलित और अति पिछड़ा गठबंधन में दरार के चलते हुआ था. दलित में भी बड़ा तबका बीजेपी के साथ चला गया जबकि अतिपिछड़ा भी पूरी तरह से बीएसपी के बजाए बीजेपी के साथ खड़ा हो गया.'

सही मायने में बीएसपी के भीतर लोकसभा चुनाव के बाद और विधानसभा चुनाव के पहले भगदड़ मच गई थी. पार्टी के बड़े चेहरे पार्टी छोड़कर जाने लगे. यहां तक कि पिछड़े चेहरे और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रह चुके स्वामी प्रसाद मौर्या भी बीएसपी से अलग होकर बीजेपी का दामन थाम लिए.

इसके बाद बीएसपी ने दलित और मुस्लिम गठबंधन को साथ लाकर नसीमुद्दीन सिद्दीकी को इसका जिम्मा सौंप दिया. लेकिन, इसका असर उल्टा हो गया. इस गठबंधन के खिलाफ एक विपरीत ध्रुवीकरण हो गया जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला और बीएसपी सिमट गई.

बीएसपी का नसीमुद्दीन पर आरोप

बीएसपी नेता सतीश चन्द्र मिश्रा ने लखनऊ में सिद्दीकी को बाहर करने के फैसले का ऐलान करते हुए उनके उपर कई आरोप लगाए. जिसमें अवैध बूचड़खाने चलाने से लेकर पश्चिमी यूपी में कई जगहों पर बेनामी संपत्ति होने का भी जिक्र कर दिया. सिद्दीकी के उपर पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप तक लगा दिया गया.

दरअसल, नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर फैसला पहले से ही लिया जा चुका था जिसके संकेत पहले से ही मिलने लगे थे. सिद्दीकी के कद को छोटा कर उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव से पार्टी के राष्ट्रीय सचिव की जिम्मेदारी दे दी गई थी और उनको यूपी से सटे हुए मध्यप्रदेश के इलाकों में काम करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.

ऐसा माना जा रही है कि मायावती का अपने भाई को पार्टी उपाध्यक्ष बनाना लोगों को पसंद नहीं आ रहा है

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इसके बाद से ही नसीमुद्दीन सिद्दीकी तिलमिलाए हुए थे. लेकिन, बड़ी खींचतान तब शुरू हुई थी जब मायावती के भाई आनंद को अंबेडकर जयंती के मौके पर बीएसपी का उपाध्यक्ष बना दिया गया था. माना जाता है कि इस बात से सिद्दीकी नाराज बताए जा रहे थे.

कोर-वोटर की तरफ लौटेगी बीएसपी

नसीमुद्दीन सिद्दीकी विधानसभा चुनाव के पहले मायावती के नाक के बाल हुआ करते थे. जरा याद कीजिए उस वक्त को जब बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह के मायावती के खिलाफ विवादित बयान देने के बाद बवाल खड़ा हुआ था. उस वक्त सिद्दीकी ने दयाशंकर की पत्नी के खिलाफ भी अमर्यादित बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया था.

सिद्दीकी के बयान के बाद ही दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह ने मोर्चा संभाल लिया और उल्टे दांव बीएसपी पर ही भारी पड़ गया. बीजेपी की तरफ से मायावती के खिलाफ बीजेपी ने स्वाति सिंह को खडा कर पूरे मामले में माइलेज लेने की बीएसपी की कोशिश को पलीता लगा दिया. इसके जिम्मेदारी भी सिद्दीकी ही थे.

पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच मुस्लिम मतदाताओं को लेकर बना मिथ भी टूटा है

लेकिन, अब लगता है मायावती को इस बात का एहसास हो गया है कि मौजूदा दौर में न दलित-मुस्लिम गठजोड़ चल रहा है और न ही दलित-ब्राह्मण गठजोड़ तो फिर क्यों न अपने कोर-वोटर की तरफ ही रुख किया जाए.

मायावती 21 प्रतिशत दलित वोट बैंक के साथ-साथ अति पिछड़ा वोट बैंक को साथ लाने की योजना पर काम कर रही हैं. शायद इस उम्मीद में कि छवि सुधरेगी और विधानसभा चुनाव में हुए उल्टा ध्रुवीकरण की आंच से आगे वो बच सकेंगी.

मुस्लिम मिथ टूटा

इन चुनावों में इस विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मिथ टूट गया है. अब तक दावा यही किया जा रहा था कि मुस्लिम वोटर को नजरअंदाज कर यूपी में चुनाव जीतना असंभव है. लेकिन, बीएसपी और एसपी की हार के बाद सभी पार्टियां अपनी रणनीति में बदलाव करती दिख रही हैं.

एसपी ने आजम खान को नेता प्रतिपक्ष तक नहीं बनाया. शायद डर सता रहा था कि योगी के सामने आजम के खड़े होने से एसपी को फायदे की जगह नुकसान ही होगा.

दूसरी तरफ, मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को बाहर का रास्ता दिखाकर एक संकेत देने की कोशिश की है. शायद इस उम्मीद में कि उनकी छवि सुधर सके और आगे वो पुराने समीकरण को साध सकें.