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एक देश, एक चुनाव : दूर की कौड़ी जिसे झट से हासिल करना चाहती है बीजेपी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में है. अब लॉ कमीशन ने भी सभी पक्षों से इस संबध में राय मांगी है. लेकिन सवाल ये उठता है कि भारत जैसे देश में राज्यों का चुनाव लोकसभा के साथ कैसे हो सकता है?

Syed Mojiz Imam

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में है. अब लॉ कमीशन ने भी सभी पक्षों से इस संबध में राय मांगी है. लेकिन सवाल ये उठता है कि भारत जैसे देश में राज्यों का चुनाव लोकसभा के साथ कैसे हो सकता है? भारत में संघीय प्रणाली के तहत सरकारें चल रही हैं. लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के कार्यकाल को फिक्स कैसे किया जा सकता है? अगले तीस महीने मे 19 राज्यों मे चुनाव हैं.

इस साल ही चार राज्यों के चुनाव होने वाले हैं. जबकि नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में इस साल की शुरूआत में चुनाव कराए जा चुके हैं. विधि आयोग के अनुसार 2019 में उन राज्यों मे चुनाव कराए जा सकते है जिनका कार्यकाल थोड़े समय के लिए बचा है. जबकि बाकी राज्यों में 2024 तक चुनाव कराए जा सकते है. हालांकि यूपी जैसे बड़े राज्य की विधानसभा 2022 में खत्म हो रही है. उनके साथ क्या होगा ?


क्या ऐसी विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाया जाएगा? ये पेचीदा सवाल है. इसके लिए बाकी दल तैयार नहीं होंगे. खासकर जो विपक्ष में हैं. सवाल ये भी है कि पांच साल सरकार चलने की गारंटी कौन ले सकता है. हालांकि ड्राफ्ट में कहा गया है कि बीच में सरकार गिरती है तो बाकी कार्यकाल के लिए दूसरी सरकार चुनी जाएगी. ऐसी सूरत में एक साथ चुनाव कराने के मकसद का फायदा क्या होगा ?

बीजेपी समर्थन में

प्रधानमंत्री ने कई बार एक साथ चुनाव कराने की वकालत की है. राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने भी संसदीय संबोधन में इसके पक्ष में तर्क दिए हैं. बीजेपी के 2014 के मेनिफेस्टों में भी इसका जिक्र था जिसमें कहा गया था कि एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया और तरीका ढूंढा जाएगा. कांग्रेस इस तरह की कवायद के पक्ष में नहीं है. कांग्रेस का कहना है कि ये लोकतंत्र के हिसाब से सही नहीं है. जबकि क्षेत्रीय दलों ने इसका खुलकर विरोध किया. ज्यादातर दलों का मत है कि ये दो दलीय व्यवस्था की तरफ ले जाने की तैयारी हो रही है.

क्षेत्रीय दलों को नुकसान

जिन देशों में दो दलीय व्यवस्था है. वहां पर ये कारगर हो सकता है. क्योंकि सरकार किसी एक दल की बनेगी. जो पांच साल के लिए चल सकती है. लेकिन जहां पर बहुदलीय व्यवस्था है. वहां पर क्या होगा ? जब किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलेगा. क्या वहां पर दोबारा चुनाव कराए जाएंगे? ये केंद्र सरकार के अधीन राज्यों का काम चलेगा. ये निजाम लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है. जिसमें मतदाता को मजबूर किया जाए कि वो पूर्ण बहुमत की सरकारें बनाए. ये जो जनादेश मिला है उसके बरअक्स काम किया जाए. वहीं अविश्वास प्रस्ताव भी आने की संभावना कम रहेगी, क्योंकि दूसरा पक्ष तभी ऐसा करेगा जब उसके पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सदस्य मौजूद रहेंगे.

एक राय बनना मुश्किल

जिस तरह से देश में मतदाताओं का रुझान रहता है. उससे ये अंदाजा लगाना मुश्किल है कि किसकी सरकार बनेगी. बहुमत मिलेगा या नहीं. मसलन 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में गिर गई. तो क्या ऐसी सूरत में लोकसभा के चुनाव के साथ बाकी राज्यों के चुनाव दोबारा कराए जाएंगे? जहां पर सरकारें चल रही हैं. उनका क्या होगा, या फिर नई लोकसभा का गठन बचे हुए कार्यकाल के लिए किया जाएगा? इसका उत्तर भी विधि आयोग को खोजना पड़ेगा.

कब हुई इसकी शुरुआत

1983 में सबसे पहले एक साथ चुनाव कराने की बहस शुरू हुई. जिसकी पहल खुद चुनाव आयोग ने की थी. मई 1999 में जस्टिस बी.पी जीवन रेड्डी की अगुवाई वाले लॉ कमीशन में 170 वीं रिपोर्ट में कहा कि हमें उस व्यवस्था की तरफ जाना चाहिए जहां विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हों. दिसंबर 2015 में कार्मिक शिकायत और कानून मंत्रालय की संसद की स्टैंडिग कमेटी ने एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर रिपोर्ट दी जिसमें सिफारिश की गई थी कि मौजूदा लोकसभा में ही दो चरणों में राज्यों के चुनाव कराए जाएं जिसमे 2016 में कुछ विधानसभाओं के चुनाव कराए जाएं, बाकी बचे राज्यों के चुनाव 2019 में करा लिए जाएं.

जिन राज्यों के चुनाव छह महीने से एक साल के भीतर होने वाले हैं वो इसके साथ करा लिए जाएं. ये भी सुझाव दिया गया था कि कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल बढ़ा लिए जाए. हालांकि इस रिपोर्ट पर कांग्रेस ने एतराज जताया तो टीएमसी ने इसे अलोकतांत्रिक बताया. एनसीपी सहित कई दल इस रिपोर्ट से सहमत नहीं थे. सिवाय एजीपी और एआईएडीएमके के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी जल्दी-जल्दी चुनाव को लेकर चिंता जाहिर की थी. राष्ट्रपति ने कहा कि इससे विकास का काम रुक जाता है.

कब हुए एक साथ चुनाव

1951-52,1967,1962 और 1967 में एक साथ चुनाव हए लेकिन ये चुनाव इसलिए हो पाए क्योंकि ज्यादातर विधानसभाओं में बहुमत की सरकार बनी थी. जो पांच साल का कार्यकाल पूरा करने में सक्षम थी. लेकिन 1970 में चुनाव जल्दी हो गए. लोकसभा के चुनाव पांच साल के भीतर होनें से प्रक्रिया रुक गई .स्टैडिंग कमेटी का तर्क था कि विकसित देशों से मुकाबला करने के लिए एक साथ चुनाव ज़रूरी है.लेकिन ये इतना आसान नहीं है.क्योकिं ज्यादातर जो पश्चिमीं देश है उनकी आबादी भारत की तुलना में कम हैं.यहां की संघीय व्यवस्था ज्यादा मजबूत है.

आर्टिकल 356 का इस्तेमाल रोकना पड़ेगा

किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था या अन्य किसी कारण से केन्द्र सरकार को उस राज्य को बर्खास्त करने का अधिकार है.लेकिन एक साथ चुनाव कराने के बाद केन्द्र सरकार के लिए ये काम करना मुश्किल होगा.अगर राज्य सरकारे मनमानी करती है तो केंद्र सरकार के पास उनको रोकने के लिए अधिकार नहीं रह जाएगा.अगर ऐसा करते है तो चुनाव कराने के बाद बाकी समय के लिए विधानसभा का कार्यकाल रहेगा तो इससे खर्चे कम नहीं होंगे,बल्कि बढ़ेंगें.दूसरे राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग अलग मुद्दे पर लड़े जाते है.ऐसे में बीजेपी को फायदा हो सकता है क्योकि पहले अटल बिहारी वाजपेयी के समय में इस तरह की बहस शुरू हुई थी.अब नरेंद्र मोदी के समय दोनों नेताओं मे समानता है कि विपक्ष के पास उनके मुकाबले का कोई नेता नहीं है.जिस तरह से हाल के चुनाव हुए है.उत्तर प्रदेश से लेकर त्रिपुरा तक बीजेपी को नरेन्द्र मोदी के करिश्मे का फायदा मिला है.

संविधान में होगा संशोधन

सविंधान की धारा 368 के मुताबिक इसके लिए कानून बनाना होगा. जिसके लिए संसद के किसी भी सदन में बिल लाना होगा और दो तिहाई बहुमत से पास करना पड़ेगा. हालांकि लोकसभा में सरकार के लिए संभव है लेकिन राज्यसभा में फिलहाल दो तिहाई बहुमत से सरकार महरूम है. इस कानून के संसद में पास हो जाने के बाद आधे से ज्यादा विधानसभाओं में भी पास होना जरूरी है. जैसा कि जीएसटी कानून में किया गया था. हालांकि इसके लिए समय सीमा नहीं है. तभी ये मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास जा सकता है. कहानी यहीं खत्म नहीं होती है. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट के वकील फुजैल अहमद अय्यूबी कहते है कि सुप्रीम कोर्ट ये देख सकता है कि कानून संविधान की मूल भूत संरचना के अनुरूप है कि नहीं इसके लिए कोर्ट के पास जूडिशियल रिव्यू का अधिकार है. एनजीएसी की तरह कोर्ट कानून को खारिज कर सकता है.

चुनाव आयोग के लिए होगी आसानी

चुनाव आयोग साल में कई बार चुनाव कराने में मसरूफ रहता है. पांच साल में एक बार होने वाले चुनाव से चुनाव आयोग का भी काम आसान होगा. एक ही बूथ पर विधानसभा और लोकसभा के मत डाले जा सकेंगे. चुनाव कराने में हो रहे बार-बार के खर्चे से बचाव हो सकता है. नीति आयोग के मुताबिक 2009 मे तकरीबन 1110 करोड़ रूपए और 2014 के लोकसभा चुनाव में आयोग को तकरीबन 3870 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े. जबकि पार्टियों की तरफ से अपुष्ट रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में तकरीबन तीस हजार करोड़ रुपए खर्च हुए है.चुनाव आयोग का अनुमान है कि एक साथ चुनाव करानें मे तकरीबन 4500 करोड़ रुपए खर्च होंगें. हालांकि सात लाख पोलिंग स्टेशन पर व्यवस्था करना मुश्किल काम है. वहीं ईवीएम और वीवीपैट खरीदने के लिए चुनाव आयोग को तकरीबन 9000 करोड़ रुपए की आश्वयकता पड़ सकती है.