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जननायक के साथ रहे पर कभी जननेता नहीं बन पाए यशवंत सिन्हा

कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री रहने के दौरान सिन्हा उनके प्रधान सचिव हुआ करते थे

Rudrapratap Singh

गरीबों की फिक्र को लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा इन दिनों चर्चा में हैं तो पटना के कई पुराने लोगों को अचानक उनकी गरीबपरस्ती याद आने लगी है.

इस संसदीय क्षेत्र के बुजुर्ग हो चुके कार्यकर्ता पुराने मगर फट चुके कपड़ों को सहलाकर उन्हें याद कर लेते हैं- ‘देखिए, ये कपड़े 1991 के लोकसभा चुनाव के हैं. अभी भले ही चिथड़े हो गए हैं, कभी इनमें चमक होती थी. सीधे कारखाने से इनकी आमद हुई थी. हम सबने बैनर के लिए इन्हें हासिल किया था. भला इतने महंगे कपड़ों का कहीं बैनर बनता है. सो, पहनने-ओढ़ने के काम में इनका इस्तेमाल हो गया.’ कपड़े ही नहीं, रुपए-पैसे को लेकर भी पटना के पास कई यादें हैं.


जब वित्त मंत्री की हैसियत से लड़ रहे थे चुनाव

सिन्हा चंद्रशेखर की सरकार में वित्त मंत्री थे. पटना से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे. यह उनका पहला चुनाव था. उन दिनों एक नारा लगता था-चालीस साल बनाम, चार महीना. यह चंद्रशेखर की अल्प अवधि की सरकार की उपलब्धियों के बखान के लिए बना था.

बदमाशी में लोग इसके साथ एक और नारा जोड़ देते थे-कमाई बराबर. हिसाब किस बात का. नारा इस तरह पूरा होता था-चालीस साल बनाम चार महीना, कमाई बराबर, हिसाब किस बात का? इस नारा का असर यह हुआ कि बड़ी संख्या में कार्यकर्ता यशवंत सिन्हा से जुड़ने लगे. सिन्हा समाजवादी जनता पार्टी के उम्मीदवार थे. अभिजात्य जीवन शैली के कारण वे कार्यकर्ताओं को समझ नहीं पाए.

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दूसरे दलों के कार्यकर्ता उनसे मिलते थे. हजार-दो हजार वोटों की गारंटी करते थे. लगे हाथ अपने घर में चुनाव कार्यालय खोलने की पेशकश कर देते थे. जाहिर है, चुनाव कार्यालय खुल रहा है तो खर्च भी होगा. कार्यालय खर्च के नाम पर अच्छी रकम मिल जाती थी. साथ में बैनर के लिए कपड़ों का मोटा थान भी.

दिखावे के लिए कार्यालय चल रहा था. पोस्टल पार्क के कमलेश सिंह तब नौजवान थे. अब बुजुर्ग हो गए हैं. बताते हैं- 'भैया, ऐसा राजा कैंडीडेट फिर पटना में नहीं आया. मांगो एक तो पांच मिलता था. ओह, ऐसे कैंडीडेट मिलते रहे तो सचमुच वर्कर की गरीबी दूर हो जाएगी.'

वोट कितना मिला, पता नहीं चला

सिन्हा को उस चुनाव में कितना वोट मिला, इसका पता नहीं चल पाया. वजह, बड़े पैमाने पर धांधली की शिकायत पर चुनाव आयोग ने पटना का आम चुनाव रद्द कर दिया. वोटों की गिनती नहीं हो पाई. राज्य में जनता दल की सरकार थी. लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे. इंद्र कुमार गुजराल जनता दल के उम्मीदवार थे. गुजराल सुप्रीम कोर्ट तक गए. बाद में चुनाव हुआ.

बाद के चुनाव में गुजराल और सिन्हा उम्मीदवार नहीं बने. जनता दल के उम्मीदवार की हैसियत से रामकृपाल यादव चुनाव जीते. उस चुनाव के बाद सिन्हा ने पटना और आसपास के क्षेत्रों से चुनाव लड़ने के बारे में कभी नहीं सोचा. यहां तक कि उन कार्यकर्ताओं से भी मुलाकात नहीं की जो उन्हें रिकॉर्ड वोटों से जीत का झांसा देकर रुपये और कपड़े ऐंठ कर घर बैठ गए थे. इन कार्यकर्ताओं की ख्वाहिश थी कि सिन्हा कम से कम एक बार और पटना से चुनाव लड़ें.

रांची से विधायक बने

पटना में अनिर्णित हार-जीत से निराश सिन्हा ने रांची और बीजेपी का रूख किया. 1995 का विधानसभा चुनाव वे रांची से जीते. बीजेपी ने उनपर मेहरबानी की. उसी साल अप्रैल में उन्हें बीजेपी विधायक दल का नेता बना दिया गया. बीजेपी विपक्ष की पार्टी थी. सिन्हा विपक्ष के नेता बन गए. इस कुर्सी पर उनका कार्यकाल नौ महीने का रहा.

हवाला में नाम आने पर सत्तारूढ़ जनता दल ने विधानसभा के भीतर उनकी बोलती बंद करा दी थी. विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर वे बिहार की राजनीति से अलग हो गए. हां, विपक्ष के नेता की कुर्सी उनके लिए गौरव की वस्तु थी. इस कुर्सी पर कभी स्व. कर्पूरी ठाकुर बैठते थे. कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री रहने के दौरान सिन्हा उनके प्रधान सचिव हुआ करते थे.

जननायक के बहाने होती थी लालू और सिन्हा में नोकझोंक

कर्पूरी ठाकुर जननायक थे. सिन्हा उनके भरोसेमंद थे. फिर भी वे जननेता नहीं बन पाए. सांसद और विधायक होने के बावजूद हमेशा खुद को भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर ही समझते रहे. विपक्ष का नेता रहने के बावजूद ग्रामीण पृष्ठभूमि के बीजेपी विधायक उनसे संवाद में सहज नहीं रह पाते थे. सिन्हा विदा हुए तो उनकी जगह सुशील कुमार मोदी विपक्ष के नेता बने.

नौ महीने के संक्षिप्त कार्यकाल में विधानसभा के अंदर सिन्हा और तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के बीच तीखी नोकझोंक होती रहती थी. लालू उन्हें याद दिलाते रहते थे कि ‘आप तो कर्पूरीजी के पीए थे. नेता कब से हो गए.’

सिन्हा भी चूकते नहीं थे. लगे हाथ लालू प्रसाद को जवाब दे देते थे- ‘आप भी तो कर्पूरीजी से मिलने से पहले हमारे सामने ही बैठे रहते थे.’ यह कहते वक्त सिन्हा के चेहरे पर श्रेष्ठता का अहसास साफ झलक जाता था.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )