केंद्र सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के आरक्षण कोटे में फेरबदल की कवायद शुरू कर दी है. ओबीसी की क्रीमी लेयर की सीमा 6 लाख से बढ़कर 8 लाख करने के अलावा कोटे में सब-कोटे के लिए समिति का गठन भी कर दिया गया है. समिति को 12 सप्ताह के अंदर रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है.
इस पूरी कवायद के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद जातियों के पिछड़ेपन को दूर करने की जो कोशिशें की गई, वे पर्याप्त तरीके से सफल नहीं हो पाई. कई रिपोर्ट बताती हैं कि ओबीसी आरक्षण का फायदा कुछ विशेष जाति समूह ही उठा रहे हैं. दर्जनों जातियां तो अभी भी अपवंचना का दंश झेलने को मजबूर हैं.
जनगणना-2011 के अलावा सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना (SECC) ने भी दिखाया कि आरक्षण का लाभ अंतिम पिछड़े व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाया है. राजस्थान में पिछले दिनों एक सरकारी रिपोर्ट में बताया गया कि राज्य में ओबीसी में शामिल 75 से ज्यादा जातियों में से असल फायदा ऊपर की 5 जातियां ही उठा रही हैं. नीचे की 5 जातियों को तो 21% आरक्षण का 0.21% भी नहीं मिल पाया है.
देश के सबसे बड़े राज्य में इसके बाद एक बार फिर ओबीसी आरक्षण की समीक्षा करने और कोटे के वर्गीकरण की मांग जोर पकड़ने लगी थी. लेकिन राजस्थान में लाख कोशिशों के बावजूद ऐसे प्रयास सफल नहीं हो सके.
2008-13 के दौरान कांग्रेस की गहलोत सरकार इस मामले में आगे बढ़ने के बावजूद घुटने टेक चुकी है. इसका कारण है, आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा उठा रही जाट, माली, अहीर और कुम्हार जैसी जातियों का बनाया सामाजिक दबाव.
अब केंद्र सरकार ओबीसी कोटे के वर्गीकरण का मन बना चुकी है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि इंद्रा साहनी केस (1992-93) में सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछड़ों के विकास के मद्देनजर वर्गीकरण पर रोक नहीं लगाई थी.
ओबीसी बिल पर सेलेक्ट कमेटी के चेयरमैन भूपेंद्र यादव का कहना है कि हरियाणा, तेलंगाना, तमिलनाडु, महाराष्ट्र जैसे देश के 11 राज्यों में ऐसा वर्गीकरण पहले से लागू है. यादव के मुताबिक वर्गीकरण का इरादा नई जातियों को जोड़ने के बजाय उन जातियों को फायदा पहुंचाना है जो हकदार होने के बावजूद आरक्षण का फायदा नहीं ले पाई.
कहीं आरक्षण पर ढुलमुल तो नहीं बीजेपी?
हालांकि वर्गीकरण के कदम को वास्तविक रूप में पिछड़ापन दूर करने के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. लेकिन आरक्षण को लेकर सत्तारूढ़ पार्टी का विज़न साफ नहीं लगता है. पार्टी की तरफ से इस मुद्दे पर रह-रह कर परस्पर विरोधी बयान सामने आते रहे हैं.
अभी 22 जुलाई को जयपुर में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक सीनियर पत्रकार ने अमित शाह से पूछा कि 'क्या निकट भविष्य में एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करने की कोई योजना है?
बीजेपी अध्यक्ष ने बिना किसी हिचक और टालमटोली के जवाब दिया कि आम सहमति हो तो इसे लागू किया जा सकता है.
जयपुर में ही एक कॉन्क्लेव में सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि मोदी सरकार आरक्षण के मुद्दे को वहां पहुंचा देगी, जहां इसका होना या न होना कोई मायने ही नहीं रखेगा. स्वामी से गुर्जर, जाट, पाटीदार और मराठा आरक्षण आंदोलनों पर सवाल पूछा गया था.
2015 के बिहार चुनाव में सरसंघचालक के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान की डैमेज कंट्रोल कोशिशों के तहत प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा था कि केंद्र सरकार का आरक्षण की समीक्षा का कोई विचार नहीं है. पिछले दिनों जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने भी कहा था कि जब तक एक भी आदमी अपवंचित है, आरक्षण नहीं हटाया जा सकता.
दरअसल, एससी/एसटी आरक्षण में आरोप लगते रहे हैं कि पूरे देश मे आरक्षण का लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ लाख परिवार ही उठा रहे हैं. ये परिवार सजातीय भाई-बहनों को भी आगे नहीं बढ़ने देना चाहते क्योंकि ऐसा होने पर उनके लाभ में बंटवारा निश्चित हो जाएगा.
यह सच भी लगता है. राजस्थान में ही एक तरफ सवाई माधोपुर जिले का बामनवास गांव हैं जहां एक एक घर में तीन या चार और पांच भी आईएएस हैं. वहीं दूसरी तरफ, बारां जिले में सहरिया जनजाति के गांव भी हैं जिनको पता ही नहीं है कि आरक्षण जैसा लाभ उन्हें दिया भी गया है.
2015 की आईएएस टॉपर टीना डाबी को लेकर भी ऐसी ही तीखी बहसें हुई थी. टीना के दादा आरक्षित कोटे से सरकारी सेवा में आए थे. टीना के माता-पिता भी कोटे से ही उच्च श्रेणी की सरकारी सेवा में आए थे और तीसरी पीढ़ी में खुद टीना ने भी अपनी श्रेणी अनुसूचित ही रखी थी. टीना इस तथ्य के बावजूद दलित थी कि दिल्ली के पॉश इलाके में उनका घर था और दिल्ली के सबसे महंगे स्कूलों में से एक में वे पढ़ी थी.
ओबीसी में क्रीमी लेयर की अवधारणा इसीलिए लाई गई थी कि सुविधा सम्पन्न लोग आरक्षण के दायरे से बाहर रहें. लेकिन 24 साल में 4 बार क्रीमी लेयर की आयसीमा बढ़ाना वोट बैंक पॉलिटिक्स का हिस्सा भी नजर आता है.
अब शर्म नहीं, शक्ति है पिछड़ापन!
लोगों की आय बढ़ रही है यानी पिछड़ापन दूर हो रहा है लेकिन वे आरक्षण का लाभ नहीं छोड़ना चाहते. ताकत बनने के बाद ये जातियां राजनीतिक दलों पर दबाव डालने लगती हैं. कई राज्यों में चल रहे आरक्षण आंदोलन से इसे समझा जा सकता है. विश्लेषकों का कहना है कि दलित जातियों को साधने के बाद ओबीसी जातियों में समर्थन पक्का करने के लिए ही मोदी सरकार ने ये कदम उठाया है.
ओबीसी आयोग ने देश में पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 39 करोड़ से ज्यादा बताई थी. हिंदी बेल्ट में तो अन्य पिछड़ा वर्ग एक बड़ी शक्ति है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इसीलिए क्रीमी लेयर बढ़ाने का वादा किया था. इसका फायदा भी मिला. लोकसभा चुनाव-2014 में भी पार्टी को पिछड़ों के 34% से ज्यादा वोट हासिल हुए थे. अकेले उत्तर प्रदेश में ही 71 में से 26 सांसद अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं.
अब जबकि 2019 लोकसभा चुनाव के लिए टारगेट-350 तय किया जा चुका है. ऐसे में इस बड़ी आबादी की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना भी जरूरी है.
क्या बीजेपी ने सुलझा ली आरक्षण की उलझन?
कई जानकार नरेंद्र मोदी की तुलना उस फिनिक्स पक्षी से करते हैं जो राख में से भी उठ खड़ा होता है. आरक्षण के मुद्दे पर ही एक समय ऐसा भी आया था जब मोदी सरकार इसमें उलझती दिख रही थी. राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, गुजरात मे पाटीदार और महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर रहे थे.
ठीक इसी समय पार्टी का कोर वोट बैंक भी छिटकता नजर आ रहा था. राजस्थान में आनंदपाल एनकाउंटर के बाद राजपूत और जीएसटी लागू होने से बनिया-व्यापारी समुदाय के बीजेपी से खफा होने की खबरें आ रही थी.
लेकिन अब लग रहा है कि सोशल इंजीनियरिंग के गुणा-भाग ने पार्टी के लिए 2019 की ही नहीं बल्कि गुजरात, हिमाचल, राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे विधानसभा चुनावों की राह भी आसान कर दी है.
ओबीसी में क्रीमी लेयर 8 लाख किये जाने के कदम से ज्यादा लोग आरक्षण के फायदे में शामिल होंगे. वही, सब-कोटा लागू होने से अब तक वंचित रहे लोग भी आरक्षण के साझीदार बनेंगे.
राजस्थान में भरतपुर-धौलपुर के जाटों को ओबीसी में शामिल करने की अधिसूचना जारी कर दी गई है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ये कदम हरियाणा के जाट आंदोलन के लिए भी एक नजीर बनेगा. गुर्जर आरक्षण की आग को भी ओबीसी कोटे से ठंडा करने की कोशिश की गई है.
रामनाथ कोविंद जी को राष्ट्रपति बनाकर दलित वर्ग में स्थाई पैठ बनाने की कोशिश की सफलता पहले ही देखी जा चुकी है.
जाहिर है, बीजेपी इन नए समूहों से वोटों की उम्मीद कर ही सकती है. अगर 2019 में उसका कोर वोट बैंक जरा सा भी इधर उधर होता है या विपक्ष सामूहिक रूप से चुनाव लड़ता है तो भी बीजेपी नुकसान की भरपाई करने में सक्षम होगी.