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क्या जनता सच में अपनी मौत पर खुश है?

सरकार लगातार अपने फैसले बदल रही है. इससे जनता में और अधिक भ्रम फैल रहा है

Krishna Kant

नोटबंदी के एक गलत फैसले ने मौत को असुविधा कहने की खतरनाक राजनीति की शुरुआत की है. प्रधानमंत्री की ओर से नोटबंदी की घोषणा के बाद देश भर में अब तक करीब 47 लोगों की मौत हो चुकी है. समाचार एजेंसी एआईएनएस के मुताबिक, मरने वालों की संख्या 40 तक पहुंची है.

47 मौतों का आंकड़ा हफिंग्टन पोस्ट का है, जिसके मुताबिक, मीडिया रिपोर्ट में इन सभी मौतों की पुष्टि की गई है. इनमें से कुछ को हार्ट अटैक हुआ, कुछ ने आत्महत्या की, कुछ की इलाज न हो पाने के कारण मौत हुई तो कुछ लोगों को मान्य नोट न होने के कारण अस्पताल नहीं ले जाया जा सका.


अब तक सरकार ने आधिकारिक तौर पर यह नहीं बताया है कि नोटबंदी के चलते कुछ कितने लोगों की मौत हुई. दैनिक जागरण और ईनाडू इंडिया ने भी अब तक कुल 40 मौतों का दावा किया है.

हफिंग्टन पोस्ट का कहना है कि मौतों की संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है, जिनकी रिपोर्टिंग नहीं हो सकी. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे ज्यादा मौत बैंक के सामने लाइन में लगने और बाद में आत्महत्या करने के चलते हुई है.

इन मौतों के बाद भी, सरकार कह रही है कि 'जनता खुश है'. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि 'जरा सी असुविधा' होगी. संसद में हुई चर्चा के दौरान वरिष्ठ मंत्री वेंकैया नायडू ने नोटबंदी से उपजी त्रासदी की तुलना प्रसवपीड़ा से की. संसद में बातें तो बहुत हुईं, लेकिन मौतों की गंभीरता पर पार्टियों के अपने स्टैंड भारी पड़ गए.

अच्छी मंशा से लिया गया गलत फैसला 

मुझे नहीं मालूम कि आजाद भारत के इतिहास में व्यवस्था सुधारने के क्रम में कोई ऐसा निर्णय सरकार ने लिया हो, जिसमें इतनी मौतें हुई हों. यदि ऐसा हुआ भी हो तो यह नहीं होना चाहिए था. अगर आर्थिक तंत्र में सुधार करने के लिए सामान्य लोगों को जान गंवानी पड़े तो ऐसे तंत्र से बुरा कुछ नहीं हो सकता.

नोटबंदी का फैसला एक अच्छा फैसला हो सकता था, अगर घोषणा करने से पहले उसके परिणामों का अंदाजा लगाया जाता और पर्याप्त तैयारियां की गई होतीं! सरकार बिना तैयारी के अचानक मार्केट से 86 प्रतिशत करेंसी कैसे वापस ले सकती है? क्या सच में इस बात पर विचार नहीं किया गया कि जब लोगों के पास मौजूद पैसे काम के नहीं रहेंगे तब वे क्या करेंगे?

करीब दो तिहाई ग्रामीण आबादी बैंकिंग व्यवस्था से बाहर है. देश की मात्र 22 प्रतिशत आबादी इंटरनेट के दायरे में आती है. देश की 125 करोड़ की आबादी में कुल 61 करोड़ मोबाइल यूजर हैं.

जाहिर है कि सभी मोबाइल यूजर इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करते. ज्यादातर यूजर मोबाइल फोन का इस्तेमाल सिर्फ बातचीत के लिए करते हैं.

भारत में कुल मोबाइल कनेक्शन में से मात्र 30 लाख यूजर के पास 4जी कनेक्शन हैं. देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या करीब 46 करोड़ है. हालांकि, नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक, यूपी और बिहार जैसे राज्यों में करीब 95 प्रतिशत लोग ईमेल तक भेजना नहीं जानते.

भारत में सिर्फ 46 प्रतिशत लोगों की पहुंच बैंकिंग तक है. 140 लाख व्यापारियों में से सिर्फ 12 लाख के पास इलेक्ट्रानिक पेमेंट करने की मशीन है.

नोटबंदी की घोषणा के पहले से ही कश्मीर घाटी में इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा है. उनके बारे में सरकार ने क्या सोचा था? क्या कश्मीर की आम जनता के लिए विशेष व्यवस्था की गई थी?

जिन लोगों के पास कैशलेस पेमेंट की सुविधाएं अब तक नहीं पहुंची हैं, उनके बारे में सरकार ने क्या योजना बनाई थी? क्या सरकार यह सोच कर चल रही थी कि आम जनता खाना, कपड़ा, दवा आदि जरूरी चीजों के बिना कई सप्ताह तक जी सकती है?

लगातार फैसला बदलने से बढ़ी मुसीबत 

नोटबंदी के बाद देश भर में लोगों की रोजमर्रा की जरूरतें न पूरी होने की वजह से अफरा-तफरी का माहौल है और यह समस्या घटने की जगह बढ़ती जा रही है. निम्न मध्यमवर्ग, गरीब वर्ग और मजदूर तबके के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया है.

जो 47 मौतें हुई हैं वे उत्तर प्रदेश, असम, मध्य प्रदेश, झारखंड, गुजरात, बिहार, तेलंगाना, मुंबई, केरल, कर्नाटक, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पश्चिम बंगाल से रिपोर्ट हुई हैं. यानी पूरे देश में लोग मरे हैं.

दूसरी तरफ, जबसे नोटबंदी की घोषणा हुई है, सरकार लगातार अपने फैसले बदल रही है. जमा कराने की सीमा, निकासी सीमा, नोट जारी होने के बारे में सूचनाएं हर दिन बदल रही हैं.

इससे जनता में और अधिक भ्रम फैल रहा है. नोटबंदी के नौ दिन बाद भी लोगों को जरूरत भर का पैसा नहीं मिल पा रहा है, न ही मौतों का सिलसिला रुका है.

सरकार ने अच्छी मंशा से एक बिना सोचा-समझा, बिना कोई योजना बनाए एक बेहद कड़ा फैसला लिया है जो सत्ताजनित महामारी में तब्दील हो गया है. अब इस फैसले का बचाव करने की जगह सरकार को चाहिए कि वह इस आपात स्थिति से जैसे भी संभव हो, निपटे और निर्दोष लोगों की मौतें रोके.

लोकतंत्र में जनता अपनी सरकार इसलिए नहीं चुनती है कि सुधार की मंशा से लिए गए फैसलों के लिए भी वह अपनी जान कुर्बान करेगी. सामान्य प्रशासनिक फूहड़पन के लिए जनता की कुर्बानी मांगना 'कुर्बानी' जैसी पवित्र चीज को कलंकित करने से ज्यादा कुछ नहीं है.