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क्यों असंवैधानिक है पीएम मोदी की राज्यों के विकास फंड रोकने की धमकी

मोदी की धमकी का मतलब है कि वो दक्षिणी राज्यों को बता रहे हैं कि उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार छीनकर गरीब उत्तर भारतीय राज्यों में बांट देंगे

Garga Chatterjee

बहुत से लोग ये समझते हैं कि केंद्र सरकार देश की बॉस है और राज्यों की सरकारें उसकी मातहत. इसका ये मतलब निकलता है कि केंद्र सरकार दर्जे के पायदान में सबसे ऊंची है. उसके नीचे राज्य आते हैं. ये सोच, सियासी और संवैधानिक दोनों नजरियों से गलत है.

लेकिन जब से भारत लोकतांत्रिक गणराज्य बना है तब से संघीय या केंद्र सरकार, राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल बढ़ाती आ रही है. संघीय सरकार को केंद्र सरकार कहना भी गलत ही है. भारत के संविधान के मुताबिक संघीय और राज्यों की सरकारों के अधिकार बंटे हुए हैं. मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से संघीय सरकार का राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है.


22 अक्टूबर को गुजरात की एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि विपक्षी दलों के शासन वाले राज्य विकास के विरोधी हैं. उन्होंने ये भी कहा कि केंद्र सरकार ऐसे राज्यों को एक फूटी कौड़ी भी नहीं देगी. देश में कांग्रेस का असर खत्म होने के बाद कई बार हम ने देखा है कि केंद्र की सरकारों ने राज्यों को उनके वाजिब हक का पैसा देने में आनाकानी की है. कई बार बेवजह की देरी की गई. तो कई बार नियम कायदों के पेंच फंसा दिए गए. और अब तो हाल ये है कि प्रधानमंत्री मोदी, राज्यों का पैसा रोकने की खुलेआम चुनौती दे रहे हैं.

क्या भारत जैसे देश में हर जगह एक ही पार्टी की सरकार संभव है?

राज्यों का फंड रोकने की असंवैधानिक धमकी देने के बाद पीएम मोदी ने लोगों को समझाया कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने के कई फायदे होते हैं. प्रधानमंत्री का संदेश साफ है. मोदी के कहने का मतलब ये है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की सरकार नहीं होगी, उन राज्यों को फंड नहीं दिया जाएगा. अब अगर राज्यों के लोग अपने यहां तरक्की चाहते हैं, तो उन्हें केंद्र में राज कर रही पार्टी यानी मोदी की पार्टी को वोट देना चाहिए. वरना वो अंजाम भुगतने को तैयार रहें.

भारत जैसे कई राष्ट्रीयताओं, कई समुदायों और कई भाषाओं वाले देश में किसी एक पार्टी का राज होना कैसे मुमकिन है? किसी भी नेता की ऐसी असंवैधानिक सोच को रोकने का काम सिर्फ जनता कर सकती है. वो चुनाव में सही उम्मीदवार को वोट देकर ये काम कर सकती है.

गुजरात चुनाव के एलान में जिस तरह से चुनाव आयोग ने देरी की, उससे आयोग की स्वायत्तता पर भी सवाल उठे हैं. चुनावों की घोषणा में देरी का फायदा उठाकर मोदी ने कई लोकलुभावन वादे किए. कई नए प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया.

मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोति, मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए, गुजरात में मुख्य सचिव रहे थे. अब इसका मतलब आप खुद ही निकाल सकते हैं.

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने मोदी की धमकी का उसी अंदाज में जवाब दिया. सिद्धारमैया ने कहा कि केंद्र को फंड मिलता कहां से है? राज्यों से ही तो उसे पैसा मिलता है न! वो तरह-तरह के टैक्स लगाकर अपना खजाना भरती है. केंद्र की कमाई राज्यों से होने वाली आमदनी से ही होती है. ऐसे में किसी राज्य को ये कहना कि ठीक से रहो वर्ना तुम्हारा पैसा रोक लेंगे, सरासर गलत भी है और बेहूदा भी.

ऐसे में मोदी का ये दावा कि वो राज्यों को भरपूर मदद करते हैं, उन्हीं लोगों को पसंद आएगा, जिन्हें संविधान की समझ नहीं है. सिद्धारमैया ने भी यही कहा. कर्नाटक के सीएम ने कहा कि जिन्हें लगता है कि राज्यों को केंद्र के मूड के हिसाब से पैसा मिलना चाहिए, उन्हें संविधान की समझ नहीं है. सिद्धारमैया ने कहा कि केंद्र कोई खैरात नहीं बांटता. ये तो राज्यों का अधिकार है.

दक्षिण के राज्यों के लिए खतरनाक है मोदी की धमकी

कर्नाटक समेत ज्यादातर दक्षिणी राज्यों में गैर-बीजेपी सरकार है. ऐसे राज्यों का मोदी की धमकी पर नाराज होना बनता है. इसकी एक वजह और भी है. केंद्र की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा गैर हिंदी-भाषी राज्यों से ही आता है. इन्हीं राज्यों से होने वाली आमदनी को केंद्र सरकार गरीब हिंदी-भाषी राज्यों की मदद के तौर पर देता है. आज की तारीख में ज्यादातर हिंदी भाषी राज्यों में बीजेपी की सरकार है.

तो, अगर हम पीएम मोदी की धमकी को भाषायी राज्यों के चश्मे से देखें तो भयानक तस्वीर सामने आती है. खास तौर से मोदी की धमकी. वो एक ऐसे प्रधानमंत्री है, जिन्हें हिंदी भाषी राज्यों से आए सांसदों से बहुमत मिलता है. ये वो राज्य हैं जो अपना खर्च तक नहीं उठा पाते हैं.

मोदी की धमकी का मतलब है कि वो दक्षिणी राज्यों को बता रहे हैं कि उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार छीनकर गरीब उत्तर भारतीय राज्यों में बांट देंगे. आज की तारीख में बीजेपी की 70 फीसदी लोकसभा सीटें, उन राज्यों से आती हैं जहां हिंदी मुख्य भाषा है. जबकि संसद में इन राज्यों की हिस्सेदारी महज चालीस प्रतिशत है.

किसी भी संघीय ढांचे वाले देश में संघीय और राज्यों की सरकारों के बीच अधिकार का बंटवारा सबसे अहम चीज है. भारत की संघीय सरकार भी इसकी अपवाद नहीं. दोनों के बीच पैसे के बंटवारे के समझौते से राज्यों की सरकार संविधान के दायरे में रहते हुए खुलकर काम कर पाती हैं. तभी कोई संघीय ढांचे वाला देश कामयाब होता है. ऐसी संवैधानिक व्यवस्था से खिलवाड़, देश के संघीय ढांचे पर सीधा हमला है.

14वें वित्त आयोग ने केंद्र और राज्यों के बीच पैसे के बंटवारे के नियम पहले ही काफी बदल दिए हैं. आज की तारीख में गैर-हिंदी राज्यों से होने वाली आमदनी, हिंदीभाषी राज्यों को जा रही है. फंड के बंटवारे का नया फॉर्मूला, गरीब मगर ज्यादा आबादी वाले राज्य के हक में है. दक्षिण के राज्यों की कमाई केंद्र अपने हाथ में लेकर इसे उत्तर भारतीय राज्यों को सौंप देती है. ऐसे में राज्यों का गुस्सा जायज ही है. इस विवाद का शांतिपूर्ण निदान नहीं हो सकता.

इस बात की सब से बड़ी मिसाल स्पेन का कैटेलोनिया राज्य है. स्पेन की सरकार बरसों से कैटेलोनिया से मोटी रकम कमाकर, स्पेन के दूसरे राज्यों को सौंपती आई है. आज कैटेलोनिया ने बगावत कर दी है. संघीय सरकार को चाहिए कि वो इतनी भी ज्यादा दादागिरी न करे. सब से ज्यादा कमाई कराने वाले को ही वक्त पर पैसा न देना, उस पर जुल्म है.

और भी तरीकों से राज्यों को परेशान करता है केंद्र

ये तो कुछ ऐसा ही है कि जो पैसे कमा रहा है, उस से पैसे छीनकर दूसरे लोगों में बांट दे. फिर पैसे कमाने वाले को ही फंड रोकने की धमकी भी दे. ऐसे में राज्य की सरकारें भी अपने यहां होने वाली आमदनी को केंद्र को न देने की सोच सकती हैं. ये तो बहुत बुनियादी बात है.

केंद्र सरकार धमकी देने के अलावा भी कई बार राज्यों को वक्त पर पैसे नहीं देती. हाल ही में पश्चिम बंगाल को केंद्र ने मांगने के के बावजूद पैसे नहीं दिए. जबकि बाढ़ राहत के नाम पर बिहार, गुजरात, असम ही नहीं, नेपाल तक को मदद दी गई.

धमकियों, देरी और भेदभाव करने के अलावा केंद्र सरकार राज्यों को असंवैधानिक संस्थाओं के जरिए भी परेशान करती है. नीति आयोग जैसी संस्थाएं राज्यों को उस वक्त परेशान करना शुरू कर देती हैं, जब वो केंद्र की बात पर सहमत नहीं होते. बीजेपी के नियुक्त किए लोगों की ये संस्था इस आधार पर राज्यों को फंड देने की सिफारिश करती है कि उन्होंने किसी सुधार को अच्छे से लागू किया. हर उस बात को सुधार करार दिया जाता है जो केंद्र सरकार की सोच होती है.

इस तरह से केंद्र सरकार राज्यों के उन अधिकारों में भी दखल देती है, जो संवैधानिक रूप से राज्यों का हक हैं. दिल्ली में बैठे हुक्मरान स्थानीय सरकारों को अपने इशारों पर नचाना चाहते हैं. ये बेहद खतरनाक है. क्योंकि ये राज्यों की स्वायत्तता के खिलाफ है. राज्य के लोगों की भावना के खिलाफ है. संविधान की समवर्ती सूची के हवाले से संघ का राज्यों के काम में दखल देना ठीक नहीं है. ये लोकतंत्र के बिल्कुल खिलाफ है. ये राज्य के लोगों की संप्रभुता के खिलाफ है.

1947 के बाद कांग्रेस ने अपने बहुमत के जोर पर राजस्व से जुड़े अधिकार राज्यों से हड़प लिए. भीमराव अंबेडकर ने इस के खिलाफ देश को आगाह किया था. अंबेडकर ने कहा था कि राज्यों के पास पर्याप्त पैसा होना चाहिए. लेकिन संविधान में इसकी पूरी व्यवस्था नहीं है. अंबेडकर ने ऐसा संविधान तैयार किया था जिसे कांग्रेस के बहुमत वाली संविधान सभा से मंजूरी मिलनी थी.

संविधान को संविधान सभा में पेश करते हुए अंबेडकर ने कहा था (प्रस्तावित अनुच्छेद 264A जो बाद में संविधान की धारा 286 बना)- ‘हालांकि मैं ये मानता हूं कि हमारे संविधान में राज्य और केंद्र में फंड के बंटवारे की व्यवस्था कई देशों से बेहतर है, लेकिन इसमें भी एक बड़ी खामी है. ये खामी ये है कि फंड के लिए राज्य, संघीय सरकार पर निर्भर रहेंगे. कोई भी सरकार इस आधार पर काम करती है कि विधायिका के पास मनी बिल को खारिज करने का अधिकार होता है. हम जिस प्रस्ताव को पेश कर रहे हैं उसमें राज्यों का मनी बिल बेहद कमजोर होगा. जो टैक्स वो सीधे लगा सकेंगे वो बहुत कम और छोटी तादाद के हैं. राज्य की विधायिकाएं राज्य की सरकारों के टैक्स लगाने के अधिकार को खारिज करने की स्थिति में नहीं होंगी. ऐसे में जबकि हमने ज्यादातर फंड केंद्र की सरकार के हाथ में रखे हैं, तो हमें कम से कम एक ऐसा तरीका राज्यों के लिए छोड़ना चाहिए जिससे वो अपने खर्च के लिए पैसे जुटा सकें.’

जीएसटी से खत्म हुए राज्यों के अधिकार

हाल ही में जीएसटी लागू हुआ. इसके बाद राज्यों के पास पैसे जुटाने के जो बचे-खुचे अधिकार थे, वो भी खत्म हो गए. अब वो पूरी तरह से केंद्र सरकार पर निर्भर हैं. और केंद्र सरकार अपनी मर्जी और अपनी पसंद-नापसंद के मुताबिक राज्यो को पैसे देने को और भी आजाद हो गई है. अक्सर केंद्र की सरकार अपने सियासी फायदे के लिए राज्यों से मनमनी करती देखी गई है. गैर-हिंदी भाषी राज्यों के साथ हो रही नाइंसाफी यही तो है.

इस नीति का पहला शिकार पश्चिम बंगाल हुआ. तमिलनाडु और कर्नाटक को भी ये नाइंसाफी झेलनी पड़ी है. जीएसटी के बाद राज्यों और केंद्र के बीच फंड के बंटवारे की संवैधानिक व्यवस्था एकदम नए नजरिए से देखी जा रही है. संघीय सरकार का अपना बजट होता है. ये राज्यों के पास भी प्रस्ताव के तौर पर भेजा जा सकता है. फिर राज्य अपनी आबादी के हिसाब से उसमें अपना योगदान दे सकती हैं. यही किसी भी संघीय ढांचे की बुनियाद होना चाहिए. क्योंकि केंद्र की सरकार को राज्यों के काम में दखल देने का हक नहीं है.

कमोबेश यही प्रस्ताव ब्रिटेन के कैबिनेट मिशन का था. आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार ने जो कैबिनेट मिशन भेजा था, उसने भी राज्यों की स्वायत्तता पर जोर दिया था. ऐसा होता तो शायद देश का बंटवारा भी नहीं होता. अभी पिछले साल अगस्त में ममता बनर्जी ने कहा था कि केंद्र में सिर्फ चार मंत्री होने चाहिए. रक्षा, विदेश, रेल और वित्त मंत्री. इससे देश के संघीय ढांचे को बचाया जा सकेगा. भारत की एकता बची रहेगी.

पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी दी है धमकी

मोदी ने जिस तरह से राज्यों का फंड रोकने की धमकी दी, वैसी धमकियां उनसे पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी दीं. ऐसा कर के वो संघीय ढांचे को ही तोड़ना चाहते हैं. फिर भी वो ये धमकियां देकर बच निकले. ऐसा लगता है कि दिल्ली में बैठी सरकार पूरे देश की भगवान है. बाकी सरकारें उसकी गुलाम हैं. इसकी वजह ये है कि केंद्र की सरकारें अक्सर संवैधानिक व्यवस्थाओं की अपने हक में व्याख्या करती आई हैं. जबकि ये संघीय ढांचे के खिलाफ है.

हमें कुछ बातें साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए. केंद्र और राज्यों का संबंध मां-बाप और बच्चे का नहीं है. ये मालिक और गुलाम का भी नहीं है. ये संबंध जिम्मेदारियों और अधिकार क्षेत्र के बंटवारे का है. जिसमें आमदनी और अधिकार साफ तौर पर अलग-अलग बांटे गए हैं.

केंद्र या दिल्ली की सरकार पूरे देश की ठेकेदार नहीं है. ये सिर्फ संविधान की केंद्रीय सूची में रखे गए विषयों के लिए जिम्मेदार है. साथ ही ये संविधान की समवर्ती सूची में तय किए गए विषयों पर राज्यों की रजामंदी से काम कर सकती है.

राज्यों की सूची में दर्ज विषय जैसे जमीन, कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य और कृषि के मामले सिर्फ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. इसमें केंद्र की सरकार का कोई रोल नहीं. ऐसे में केंद्र का फंड देने में शर्तें लगाना काबिले ऐतराज बात है. ये केंद्र सरकार के अधिकारों के दायरे से बाहर की बात है.