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पूर्वोत्तर चुनाव नतीजे 2018: चुनावों के क्षेत्रीयकरण से बीजेपी को फायदा

पूर्वोत्तर ने दशकों तक अलगाववादी सियासत के बगावती तेवर झेले हैं और बड़ी मुश्किल से वहां शांति की स्थिति बनी है

Kartik Maini

पूर्वोत्तर की हैरतअंगेज जीत अब सबकी आंखों के सामने है. इस इलाके की जटिल राजनीति के मद्देनजर बीजेपी को नवसिखुआ माना जाता था. समझ ये थी कि बीजेपी ने बड़े संकोच के साथ इलाके की सियासत में अपने कदम रखे हैं लेकिन इसी पार्टी ने चुनावों में तमाम आकलनों को उलटते हुए इलाके में सिर्फ अपने लिए राह ही नहीं बनायी बल्कि एक धमाकेदार जीत दर्ज की है.

एक राजनीतिक तथ्य बार-बार दोहराया जाता है. लेकिन दोहराव के बावजूद कुछ कहने को शेष रह जाता है और बीजेपी के बारे में ऐसा ही एक तथ्य यह है कि उसने त्रिपुरा में अपना वोटशेयर बढ़ाकर 43 फीसद तक कर लिया है. जबकि त्रिपुरा में पार्टी वोटशेयर के मामले में बहुत पीछे रहा करती थी. इतने पीछे की उसे चर्चा के काबिल नहीं माना जाता था.


त्रिपुरा वामपंथी राजनीति का किला माना जाता था और यह तथ्य है कि त्रिपुरा में माणिक सरकार के शासन का बरसों तक अटूट सिलसिला कायम रहा लेकिन इसके बावजूद वामपंथी राजनीति का भविष्य त्रिपुरा में अधर में लटका हुआ था.

क्या रही रणनीति?

बीजेपी ने त्रिपुरा में समझ और स्वभाव के लिहाज से तनिक अलग पड़ते इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के साथ गठबंधन बनाया.  इस गठबंधन ने 59 सीटों वाली त्रिपुरा विधानसभा की कुल 43 सीटें जीत लीं.

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की थाली में बीजेपी के इस महाभोज में बस जूठन चाटने भर की सीटें आईं. नगालैंड में मुकाबला त्रिकोणीय था. कहीं-कहीं तो एक सीट पर चार मजबूत दावेदार मौजूद थे लेकिन नगालैंड में बड़ी संभावना यही दिख रही है कि सरकार बीजेपी की बनेगी. इसके लिए पार्टी को नाइफिऊ रियो की नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के साथ गठजोड़ करना होगा या फिर नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के साथ.

बात को मुहावरे की चाशनी में लपेटकर कहें तो नगालैंड में बीजेपी विजयी पार्टी के साथ अपने को जोड़कर खुद के जीत की दास्तान लिखेगी. पूर्वोत्तर में हुई व्यापक हार के बीच कांग्रेस ने मेघालय में नाक बचाने भर की सीटें हासिल की हैं. यहां बीजेपी के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) अपनी सरकार बना रही है. कॉनराड संगमा को सीएम पद के लिए चुना गया है. मुमकिन है कि वह 6 मार्च को शपथ लेंगे.

बीजेपी ने बाजी मारी

इन चुनावी समीकरणों का एक संदेश बड़ा साफ है.अपनी लीक पर अडिग बीजेपी का महारथ पूरी ताकत से आगे बढ़ रहा है और चुनावी जंग में हार से यह महारथ अपना दामन कुछ यों बचाना चाहता है मानों वह एक घातक पाप की तरह हो और इसी कारण बीजेपी का चुनावी महारथ हार के मुंह में हाथ डालकर भी किसी मिशनरी जज्बे के जोर में अपने लिए जीत के अवसर जुटा लाता है.

ऐसा जज्बा मौजूदा सियासत में इससे पहले कभी नहीं देखा गया, यह एकदम अप्रत्याशित है. लेकिन जैसा कि टेलीविजन के राष्ट्रीय पर्दे पर जारी घमासान के बीच एक टिप्पणीकार ने सधे स्वर में पूछा, असल सवाल तो यह है कि बीजेपी ऐसा करनामा कर कैसे पा रही है ?

प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने के अपने लंबे सफर में नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले भांप लिया था कि धर्म को सीधे-सीधे नहीं बल्कि मुलम्मे में पेश करना होगा. एक ऐसे आवरण में कि वह ज्यादातर मतदाताओं को लुभा सके और जिसकी अपील राष्ट्रीय स्तर की हो. और उन्होंने ऐसा कर दिखाया. अपनी छवि एक विकास-पुरुष के रूप में स्थापित की जिसका वादा था कि चुनाव में जीत हासिल हुई तो कांग्रेस की निरंकुशता के चंगुल में फंसे देश को मुक्त कराएंगे.

प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से नरेंद्र मोदी अपने इस फार्मूले पर कायम है. भले ही इसके लिए उन्हें तथाकथित शरारती तत्वों पर से अपने अंकुश ढीले करने पड़े हों और यहां तक कि कभी-कभार बढ़ावा देना पड़ा हो.

कैसे हुआ कांग्रेस का खात्मा?

धर्म के ऊपर विकास का मुलम्मा चढ़े इस मुहावरे ने उनकी पार्टी के लिए जहां भी संभव हुआ है, जीत के अवसर जुटाए हैं. या फिर इस मुहावरे के सहारे सूबे की सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिली है. इस तरह एक-एक करके सूबों से कांग्रेसी शासन का खात्मा हुआ है और चुनाव-दर-चुनाव बीजेपी बिना रुके लोकतंत्र के अनंत सफर पर बढ़ते जा रही है.

यह करिश्मा अमित शाह के हाथों तैयार एक जबर्दस्त चुनावी मशीनरी के सहारे हुआ है. यह चुनावी मशीन इस जज्बे से काम करती है कि सामने जो कुछ भी दिख रहा है उसे बदला और डिगाया जा सकता है. ऐसी कोई याद नहीं है जिसे मिटाया ना जा सके और ऐसा कोई भी चुनाव नहीं होता जिसे महत्वहीन मानकर छोड़ दिया जाय.

पूर्वोत्तर में चुनावी मशीन की बागडोर बड़े जतन से थामी गई. यहां पार्टी को हेमंत बिस्वा शर्मा का साथ मिला. हेमंत बिस्वा शर्मा कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए थे और कांग्रेस के लिए उनका साथ छोड़कर जाना आत्मघाती साबित हुआ.

अगर त्रिपुरा के माणिक सरकार की अगुवाई वाले शासन को छोड़ दें तो बीजेपी के लिए पूर्वोत्तर की सियासी बिसात पलटना चुटकी बजाने जैसा आसान साबित हुआ. बीजेपी का सियासी मुहावरा पूर्वोत्तर के राज्यों में छूरी की तेज धार साबित हुआ और फिर से सत्ता में वापसी का सपना संजोये बैठी यहां की निठल्ली सरकारों के आर-पार उतर गया.

कितना सही है यह विश्लेषण?

हालांकि पूर्वोत्तर के लिहाज से यह विश्लेषण हड़बड़ी का भी लग सकता है क्योंकि बीजेपी का सियासी मुहावरा राष्ट्रीय स्तर का है और उसमें पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय समीकरणों के लिए खास संवेदनशीलता नहीं हो सकती.

पूर्वोत्तर में बीजेपी के उभार की कहानी राष्ट्रीय स्तर पर उसके अभ्युदय की कथा का ही एक हिस्सा है. राष्ट्रीय अपील वाले बीजेपी के मुहावरे ने क्षेत्रीय सियासी ताकतों और तत्वों के साथ, वहां मौजूद भावनाओं, पहचान तथा उप-राष्ट्रीयताओं के साथ एक तालमेल बनाया है. बीजेपी को वक्त बीतने के साथ खुद को राष्ट्र का पर्यायवाची बनाने में कामयाबी मिली है लेकिन पूर्वोत्तर में पार्टी के उभार की कहानी थोड़ी अलग है.

बीजेपी पूर्वोत्तर में बड़ी तेजी और बड़ी ताकत के साथ आगे बढ़ी है और इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत में चुनावों का एक तरह से क्षेत्रीयकरण हुआ है जो 2014 के चुनावों के बाद से राजनीतिक क्षितिज से गायब हो चला था. और, चुनावों का क्षेत्रीयकरण एक ऐसी घटना है कि कोई भी नेता, चाहे वे स्वयं नरेंद्र मोदी ही क्यों ना हों. क्षेत्रीय स्तर की सियासी पार्टियों से तालमेल बैठाने की जरूरत से बचकर नहीं निकल सकते.

दरअसल आप चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि पूर्वोत्तर में बीजेपी के उभार से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की प्रासंगिकता नहीं रही. या एक सियासी महाशक्ति के रूप में कांग्रेस की जगह बीजेपी ने ले ली है.

दरअसल यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी के रूप में कांग्रेस से नाराज चल रहे क्षेत्रीय घटकों को अपने साथ जोड़ने में बीजेपी ने कामयाबी पाई. उन्हें बड़ी कुशलता से चुनावी जीत की अपनी योजना में शामिल किया और दुविधा के दोराहे पर खड़े क्षेत्रीय ताकतों को एक राह मिली. इस तरह का विवेचन राष्ट्रीय मीडिया पर दिन-रात ‘राष्ट्रीय’ होने का जाप करने वाले टिप्पणीकारों को बहुत सुभीते का जान पड़ेगा लेकिन पूर्वोत्तर के लिहाज से यह सियासी जीवन की एक सच्चाई है.

पूर्वोत्तर की उपेक्षा हर समय हुई

केंद्रीय स्तर की सरकारों के हाथों पूर्वोत्तर की उपेक्षा हुई है. पूर्वोत्तर का दमन हुआ है और पूर्वोत्तर के मुंह से फूटती इस आह को मोदी ने अपने मुहावरे से आवाज दी तथा इस क्रम में साबित किया कि वे एक सधे हुए राजनेता हैं जिन्हें पूर्वोत्तर की उथल-पुथल भरी सियासत की बारीकियों का पता है.

दरअसल पूर्वोत्तर ने दावा जताना शुरू किया है कि वह भी ताकत का एक केंद्र बनकर उभर सकता है बशर्ते उसे इस रूप में देखा जाय और इस दावे को समय रहते भांपकर बीजेपी ने समझ लिया कि पार्टी को पूर्वोत्तर में अपनी रंगत क्षेत्रीय रखनी होगी भले ही चेहरा राष्ट्रीय दिखता रहे.

कांग्रेस ने हिन्दुत्व के राष्ट्रीयकरण तथा केंद्र सरकार की तरफ से होती इसकी तरफदारी के खिलाफ अपने पक्ष में जन-भावनाओं को मोड़ने की कोशिश की. लेकिन बीजेपी की चुनावी मशीनरी पूर्वोत्तर के हर गली-चौराहे तक पहुंची.

उसने पोस्टर और बैनर पर तो राष्ट्रीय अपील वाले चेहरों को रखा लेकिन उसके होठों पर क्षेत्रीय स्तर पर उमड़ती शिकायतों के तराने थे. मिसाल के लिए मेघालय में अवैध खनन पर रोक का मामला जिससे लोग खफा हैं और बीजेपी ने उनकी इस शिकायत को अपने चुनावी मुहावरे में जगह दी.

पूर्वोत्तर में बीजेपी की चुनावी रैलियों में बांग्लादेशी आप्रवासियों और उनसे उठते खतरे का मुद्दा भी पुरजोर ढंग से उठा. दरअसल, हेमंत बिस्वा शर्मा ने अपनी पीठ थपथपाने के अंदाज में आज के दिन जो भाषण दिया है उसमें उन्होंने माणिक सरकार को पश्चिम बंगाल, केरल या फिर बांग्लादेश चले जाने की सलाह दी है.

त्रिपुरा में बीजेपी ने आईपीएफटी के साथ गठजोड़ बनाया. आईपीएफटी त्रिपुरी जनजाति के लिए अलग राज्य की मांग करता आया है और उसने सूबे में बंगालियों के दबदबे के खिलाफ जनजातियों की शिकायतों को मुखर किया है. आईपीएफटी को केंद्र में सरकार बनाने वाली पार्टी के साथ गठजोड़ करने में अपना फायदा होता दिखा.

नगालैंड में कमजोर हुई कांग्रेस 

नगालैंड में कांग्रेस ने मान लिया था कि उसका जोर अब कम पड़ गया है और उसके मनोभाव अपनी नियति को एकतरह से स्वीकार कर लेने के थे लेकिन इसके उलट बीजेपी ने अपने लिए मौका देखा. उसे नजर आया कि एनपीएफ तथा एनडीपीपी नाम की क्षेत्रीय ताकतों की आपसी जोर आजमाइश के बीच एक खाई मौजूद है और बीजेपी ने दोनों पार्टियों के बीच की इस जगह में ही अपने लिए गुंजाइश निकाली.

एनपीएफ तथा एनडीपीपी में से जो भी अब सरकार बनाने की दावेदारी करेगा उसे बीजेपी को अपने साथ लेना ही होगा. इन दोनों पार्टियों के लिए बीजेपी के रूप में एक ऐसी सियासी ताकत नगालैंड में मौजूद है जो उनकी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर सहारा और समर्थन दे सकती है.

राष्ट्रीय स्तर की ताकत होने का गर्व एक तरफ रखते हुए क्षेत्रीय स्तर के प्रमुख चेहरों और सियासी मंचों से हाथ मिलाने के कारण बीजेपी अब इस स्थिति में है कि वह इन चेहरों और मंचों की जीत को अपनी सियासी जीत बनाकर पेश कर सके लेकिन यहां यह भी याद रखना होगा कि अगर ‘राष्ट्रीय’ नजर आने का मोल और वजन इस क्रम में घटता है तो बीजेपी को उप-राष्ट्रीयताओं की चुनौती भी झेलनी होगी.

पूर्वोत्तर ने दशकों तक अलगाववादी सियासत के बगावती तेवर झेले हैं और बड़ी मुश्किल से वहां शांति की स्थिति बनी है. एक तथ्य एक याद के रूप में अब बहुत पुराना पड़ चुका. लेकिन बगावती तेवर वाली सियासत अगर फिर से सर उठाती है और उसे पूर्वोत्तर में राह मिलती है तो वह बीजेपी के लिए चुनावी कामयाबी के इस क्षणिक आनंद पर भारी पड़ेगा और बीजेपी के लिए भारी नुकसान का सबब साबित होगा. यादों के मिट चले नक्श को फिर से उभारना उप-राष्ट्रीयताओं के जोर को जगाने की वजह साबित हो सकता है.