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टीडीपी का अविश्वास प्रस्ताव केवल 'पॉलिटिकल पॉस्चरिंग' की कोशिश !

मोदी सरकार से अलग होने और फिर सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद अब टीडीपी एक कदम और आगे बढ़ गई है. कुछ दिन पहले तक बीजेपी की सहयोगी टीडीपी अब वो करने जा रही है जो अबतक मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी नहीं किया है.

Amitesh

मोदी सरकार से अलग होने और फिर सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद अब टीडीपी एक कदम और आगे बढ़ गई है. कुछ दिन पहले तक बीजेपी की सहयोगी टीडीपी अब वो करने जा रही है जो अबतक मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी नहीं किया है.

चार साल तक केंद्र में सत्ता सुख भोगने के बाद अब टीडीपी की नींद खुली है और चंद्रबाबू नायडू को फिर से बीजेपी के साथ रहने में नुकसान नजर आने लगा है. 2004 में हार के लिए बीजेपी के साथ को जिम्मेदार ठहराने वाले नायडू को फिर से मोदी विरोध में ही अपनी भलाई नजर आ रही है. हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनका मोदी विरोध का दांव कारगर होगा कि नहीं.


लेकिन, नायडू अब खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं. टीडीपी माइनॉरिटी विंग के सदस्यों को संबोधित करते हुए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने जो कुछ कहा उससे यह साफ हो जाता है. नायडू फिर से मोदी का विरोध कर मुस्लिम वोटरों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश में हैं. उन्होंने कहा ‘आप हमेशा टीडीपी के समर्थक रहे हैं. लेकिन आप हमारे बीजेपी के साथ गठबंधन से खुश नहीं थे. हम मुस्लिमों के कल्याण के लिए काम कर रहे हैं.’

तो क्या नायडू का मुस्लिम प्रेम उन्हें बीजेपी से अलग होने पर मजबूर कर रहा है या फिर कहानी कुछ और भी है. केंद्र और राज्य में चार साल से सत्ता में रही टीडीपी को अगले साल लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव में भी जाना है, लिहाजा उन्हें राज्य की जनता को अब काम का हिसाब देने का डर सता रहा है. तभी तो वो कहते फिर रहे हैं कि हमने एक एनडीए सदस्य के रूप में सोचा कि बीजेपी राज्य के साथ न्याय करेगी. लेकिन कुछ भी नहीं हुआ. हमने चार सालों तक इंतजार किया. लेकिन पिछले बजट में भी न्याय नहीं किया गया.

आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के मुद्दे को लेकर वाईएसआर कांग्रेस भी दबाव बना रही थी, ऐसे में नायडू को लगा कि कहीं दोतरफा सत्ता विरोधी लहर से नुकसान न हो जाए. नायडू का बीजेपी से नाता तोड़ने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है.

लेकिन, आंध्र के लोगों के हितों के लिए काम करते दिखने की होड़ में टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस दोनों लगे हुए हैं. वरना दोनों की तरफ से इस तरह केंद्र की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की जल्दबाजी नहीं होती. चंद्रबाबू नायडू और जगनमोहन रेड्डी दोनों को पता है कि अविश्वास प्रस्ताव महज एक  औपचारिकता भर होगी, लेकिन, ऐसा कर वो अपने प्रदेश की राजनीति को साधना चाहते हैं.

बीजेपी ने टीडीपी के इस कदम को महज पॉलिटिकल पॉश्चरिंग ही बताया है. न्यूज 18 के राइजिंग इंडिया कार्यक्रम के दौरान केंद्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने टीडीपी के इस कदम को ‘पॉलिटिकल पॉश्चरिंग’ बताकर इसको ज्यादा तवज्जो नहीं दी. राठौड़ ने दावा किया कि अविश्वास प्रस्ताव के दौरान किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी.

कुछ ऐसा ही दावा मोदी सरकार के संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार भी कर रहे हैं. उनके दावे में दम भी है. क्योंकि आंकडों के हिसाब से सरकार को किसी तरह का कोई खतरा नजर नहीं आ रहा है.

इस वक्त लोकसभा में सांसदों की संख्या 539 है. सरकार को अविश्वास प्रस्ताव गिराने के लिए 270 सांसदों के समर्थन की जरूरत है. जबकि बीजेपी के पास अकेले 274 सांसद हैं.यानी बीजेपी अकेले अपने दम पर ही अविश्वास प्रस्ताव गिरा सकती है.

हालांकि बीजेपी को उसके सहयोगी दलों के साथ 315 सांसद हो जाते हैं. जिसमें एलजेपी के शिरोमणि अकाली दल के 4, आरएलएसपी के 3, जेडीयू और अपना दल के 2-2 सांसद शामिल हैं. इसके अलावा भी कई और छोटी पार्टियों का समर्थन उसे प्राप्त है. लेकिन, उसकी सहयोगी शिवसेना का रुख उसके लिए चिंता कारण हो सकता है.

शिवसेना ने पहले ही 2019 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया है. लेकिन, अब अविश्वास प्रस्ताव के दौरान उसने न पक्ष में और न ही विरोध में रहने का फैसला किया है. शिवसेना सांसद अरविंद सावंत ने कहा है कि कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अलावा धारा 370, राम मंदिर जैसे दूसरे विषयों पर सरकार के रुख से वो नाराज है.

उनका कहना है कि जब उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त की थी तो उस वक्त सरकार ने कुछ नहीं किया. अब बारी शिवसेना की भी है. वो खुलकर अविश्वास प्रस्ताव के साथ नहीं जाएगी, लेकिन, उसका बीजेपी के साथ खड़ा न होना भी बीजेपी के लिए खतरनाक संकेत है.

उधर, अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में टीडीपी के 16 और वाईएसआर कांग्रेस के 9 सांसदों के अलावा सीपीएम के 9 सांसदों का समर्थन मिलना तय लग रहा है. इसके अलावा बाकी दूसरे विपक्षी दल अभी भी वेट एंड वाच की मुद्रा में हैं.

विपक्षी कुनबे की बात करें तो कांग्रेस के 48, टीएमसी के 34, के अलावा  टीआरएस के 11 सांसद हैं. इसके अलावा एआईएडीएमके 37 सांसदों के साथ मौजूदा सदन में तीसरी सबसे पार्टी है. वो भी वेट एंड वाच की मुद्रा में है. एआईएडीएमके के अलावा 20 सांसदों वाली बीजेडी और 7 सांसदों वाली एसपी भी गैर-कांग्रेसी और गैर-बीजेपी दल है, जिसकी उपस्थिति लोकसभा के भीतर अच्छी खासी है. लेकिन, इन दलों ने भी अभी तक अपना रुख तय नहीं किया है. इसके अलावा एनसीपी के 6, आरजेडी के 4, आप के 4, एआईयूडीएफ के 3, एआईयूएमएल के 2, जेएमएम के 2, एआईएमआईएम के 1, आईएनआरएस के 1, सीपीआई के 1, नेशनल कांफ्रेंस के 1 और जेडीएस के 2 सांसद भी अविश्वास प्रस्ताव के साथ जा सकते हैं.

संख्या बल के हिसाब से सरकार को कोई खतरा नजर नहीं आ रहा है. लेकिन, मोदी सरकार के खिलाफ पहली बार आ रहे अविश्वास प्रस्ताव के वक्त अगर वोटिंग होती है तो संसद में सभी दलों का रुख तय हो जाएगा. विपक्षी कुनबे की एकजुटता और तीसरे मोर्चे की संभावना को लेकर बन रहे सियासी समीकरण की एक झलक भी मिल सकती है. लेकिन, आंकड़ों का न होना विपक्षी कुनबे पर भारी भी पड़ सकता है.

यही वजह है कि सरकार चाहती है कि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा हो और चर्चा के बाद ही वोटिंग कराई जाए. गृह-मंत्री राजनाथ सिंह ने भी कहा है कि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा हो. सरकार की रणनीति है जिसमें उसे लग रहा है कि चर्चा के दौरान अलग आंध्र प्रदेश बनने के वक्त हुए समझौते और उस वक्त कांग्रेस की सरकार की गलतियों को वो एक्सपोज कर पाएगी. यानी अपने ऊपर लग रहे दोषारोपण से मुक्त होकर यह दिखाने की कोशिश होगी कि कैसे यह पूरी गलती कांग्रेस की है.

वाजपेयी सरकार के दौरान उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ ने गठन के वक्त सरकार के प्रयासों को एक उदाहरण के तौर पर रखकर उस समय किसी तरह का विवाद न होने को बीजेपी सदन में रखना चाहती है. उसे लगता है कि जब सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा होगी तो उसे इसका फायदा भी होगा और अविश्वास प्रस्ताव को गिराकर सरकार और मजबूत होकर बाहर निकलेगी.

सदन में चर्चा के दौरान आंध्र प्रदेश को चार सालों में दी गई केंद्रीय मदद और केंद्र सरकार के काम का ब्योरा रखकर बीजेपी यह दिखाने की कोशिश करेगी कि चंद्रबाबू नायडू महज और जगनमोहन रेड्डी का विरोध महज पॉलिटिकल पॉश्चरिंग भर है.