लिटिल जर्नी टू द होम्स ऑफ द ग्रेट के लेखक और अमेरिकी फिलॉस्फर अल्बर्ट हब्बार्ड के मुताबिक, ‘जो आपके मौन को नहीं समझता है, हो सकता है आपके शब्दों को भी न समझ पाए.’
अगर आप हब्बार्ड के शब्दों की हकीकत को परखना चाहते हैं तो बिहार आइए, जहां लालू प्रसाद यादव के परिवारजनों की संपत्तियों पर सीबीआई के छापों के बाद नीतीश कुमार खुद को उलझा हुआ पा रहे हैं. और देखिए कि केवल उनका मौन ही उनका मददगार बनकर सामने आ रहा है.
अब तक बिहार के चीफ मिनिस्टर ने अपने मौन के साथ चीजों से निपटने की कोशिश की है, लेकिन अब वह एक ऐसे दोराहे पर आ गए हैं जहां उनके लिए फैसला लेना मजबूरी बन गया है. अगर वह तेजस्वी को कैबिनेट में बना रहने देते हैं तो उनकी स्वच्छ राजनेता की छवि धूमिल होगी. अगर वह तेजस्वी को निकाल देते हैं तो महागठबंधन का प्रयोग शायद टूटकर बिखर जाएगा.
नीतीश ने क्यों साधी चुप्पी?
चौंकाने वाली बात है कि गुजरे चार दिनों में नीतीश कुमार ने न तो सीबीआई छापों और न ही अपने उपमुख्यमंत्री के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर पर एक भी शब्द बोला है. उन्होंने तीन दिन राजगीर के शांतिपूर्ण बौद्ध माहौल में गुजारे हैं. और जब वह वापस पटना लौटकर आए तो उनके चेहरे पर किसी बौद्ध संत की भांति शांति दिखाई दे रही थी.
पटना के पत्रकार तब ज्यादा आश्चर्य में नहीं आए जब जेडीयू के एक आधिकारिक प्रवक्ता ने उन्हें कहा कि नीतीश कुमार का लोक संवाद प्रोग्राम रद्द हो गया है. लोक संवाद प्रोग्राम के दौरान मुख्यमंत्री आमतौर पर मीडिया से भी बात करते हैं. यह साफ था कि नीतीश कुछ भी नहीं बोलेंगे. कम से कम वह फिलहाल तो कुछ भी नहीं बोलना चाहते.
एक और वजह है जिससे मुख्यमंत्री मौन की ताकत का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के तौर पर इस वक्त करना चाहते हैं. वह बीजेपी और आरजेडी दोनों को उलझाए रखना चाहते हैं. इस तरह से लालू और उनका परिवार उनके साथ सहयोगी के तौर पर बना रह सकता है और साथ ही बीजेपी बेसब्री से इस बात के इंतजार में बनी रह सकती है कि कब नीतीश आरजेडी से पल्ला झाड़कर भगवा गठबंधन में शामिल होने का फैसला लें.
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नीतीश कुमार के बारे में बेहतर तरीके से अंदाजा लगाने के लिए आपको बिहार की जमीनी हकीकत पता होनी चाहिए. उनकी जेडीयू राज्य में बीजेपी और आरजेडी के मुकाबले कमजोर राजनीतिक ताकत है. लेकिन, वह अपनी कमजोरी का आनंद उठा रहे हैं क्योंकि बाकी दोनों पार्टियों में से कोई भी उनकी मदद के बिना सत्ता में नहीं आ सकता है.
चुनाव में जीत हासिल करने के लिए भी इन पार्टियों को नीतीश की जरूरत है. जब वह बीजेपी के साथ थे, तब वह एनडीए की अगुवाई कर रहे थे. जब लालू 2015 में उनके साथ जुड़े तो महागठबंधन सरकार अस्तित्व में आई.
नेताओं के बीच जटिल केमिस्ट्री
जेडीयू की इस तरह की मौजूदगी के अलावा एक और चीज है जो बिहार की राजनीति पर असर डालती है. यह है नीतीश कुमार की छवि. सुशासन बाबू के तौर पर नीतीश महिलाओं में, बेहद पिछड़े समुदायों और निश्चित तौर पर कुर्मियों में बेहद लोकप्रिय है. मुस्लिम-यादव वोट बैंक के बेताज बादशाह लालू जानते हैं कि नीतीश कुमार के बिना पिछड़ी जातियों की पूरी तरह से एकजुटता नहीं हो सकती है. बीजेपी को पता है कि वह केवल अगड़ी जातियों के वोटों के सहारे अपनी नैया पार नहीं लगा सकती है. यह एक सीधा सा राजनीतिक गणित है.
लेकिन, मौजूदा वक्त में नेताओं के बीच एक जटिल केमिस्ट्री विकसित हुई है. आरजेडी की सोमवार को हुई मीटिंग में यह साफ कर दिया गया है कि बीजेपी की मांग के आगे झुककर तेजस्वी को इस्तीफा नहीं देना चाहिए. लालू के एक खास सहयोगी अब्दुल बारी सिद्दीकी ने कहा, ‘केंद्र सरकार की नाकामियां उजागर करने के लिए हमें बीजेपी और आरएसएस द्वारा डराया-धमकाया जा रहा है.’ लेकिन, इस सबसे बेपरवाह चीफ मिनिस्टर यह सोचते हैं कि अभी अपना रुख स्पष्ट करने का वक्त नहीं आया है.
कांग्रेस से उनकी सरकार में शामिल एक मंत्री अशोक चौधरी उनके बचाव में आ गए हैं. एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक चौधरी ने कहा, ‘नीतीश का स्वास्थ्य ठीक नहीं है. आपको इधर-उधर की चीजें नहीं सोचनी चाहिए. सेहत ठीक होने पर वह अपनी चुप्पी तोड़ेंगे.’
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एक बेहद महत्वपूर्ण घटनाक्रम में नीतीश ने विपक्षी पार्टियों के उप राष्ट्रपति उम्मीदवार के बारे में चर्चा के लिए मंगलवार को दिल्ली में बुलाई गई बैठक में जाने से इनकार कर दिया है. गुजरे महीने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए विपक्षी पार्टियों की बैठक में भी वह शरीक नहीं हुए थे.
देखना यह है कि क्या नीतीश पटना में हो रही अपनी पार्टी की बैठक में शामिल होंगे या नहीं. अगर वह बैठक में आते हैं तो इस बात के आसार हैं कि बिहार पर छाए अनिश्चितता के बादल कुछ साफ होंगे.
लेकिन, किसे पता ऐसा होगा या नहीं.
फिलहाल, नीतीश लियोनार्डो डा विंसी के शब्दों के सहारे टिके हुए हैं, ‘सत्ता को मौन से ज्यादा ताकत किसी चीज से नहीं मिलती.’