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बिहार: खुद के बनाए दलदल में डूब ही गए लालू यादव

राजनीतिक तौर पर 2015 में फिर उत्थान पर आने वाले लालू यादव का मुश्किल दौर शुरू हो गया है

Arun Tiwari

ठीक बीस महीने पहले अपनी बिल्कुल डूब चुकी राजनीति को लालू यादव ने फिर उबार लिया था. 2014 में लोकसभा की प्रचंड जीत के बाद बिहार ने बीजेपी को हार का स्वाद चखा दिया था. लालू यादव तब भी सजायाफ्ता ही थे लेकिन बिहार की सरकार ने उनकी चांदी कर दी थी. दोनों बेटे मंत्री बनकर सेट हो गए थे और लालू पूर्व मुख्यमंत्री वाले सारे ऐश-ओ-आराम ले रहे थे. मतलब एक राजनेता के तौर पर उनकी जिंदगी फिर पटरी पर आ गई थी.

लेकिन सरकार बनने के तकरीबन डेढ़ साल बाद एक मिट्टी घोटाले को लेकर शुरू हुए विवाद ने लालू को फिर ले जाकर उसी जगह खड़ा कर दिया जहां वो बिहार विधानसभा चुनाव के पहले खड़े थे. बीते कुछ महीनों से बिहार में चल रही इस राजनीतिक उठापटक के बीच में लालू यादव लगातार एक याचक की भूमिका में ही नजर आ रहे थे.


दरअसल बिहारी में सियासी तस्वीर बदलना शुरू हुई मार्च 2017 में जब सुप्रीम कोर्ट ने चारा घोटाले के कुछ मामलों में लालू यादव पर क्रिमिनल कांस्पिरेसी की सुनवाई फिर से शुरू करने के आदेश दिए. उसी के बाद से लालू यादव के परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की परत पर परत चढ़ती चली गई.

सुशील मोदी लगभग हर दूसरे दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस करके एक नया आरोप लालू यादव के परिवार पर लगा देते थे और फिर पूरा परिवार जवाब देते फिरता था. दूसरी तरफ लालू यादव भी हर बार उतनी ताकत के साथ बीजेपी पर कुछ नया कह देते थे जिसमें एक शब्द तो निश्चित ही रहता था और वो था 'सांप्रदायिक ताकत'.

बेनामी संपत्ति को लेकर लालू यादव और उनके परिवार की स्थिति और ज्यादा इसलिए बुरी होती चली गई क्योंकि नोटबंदी पर मोदी को समर्थन देते समय नीतीश कुमार ने बेनामी संपत्ति पर भी कार्रवाई करने की बात कही थी. फिर इसके बाद राष्ट्रपति कैंडिडेट को लेकर भी जेडीयू और आरजेडी में नोक-झोंक का एक दौर चला जिसने लालू की स्थितियों को और खराब ही किया. उस समय एनडीए के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद को जेडीयू के समर्थन को लेकर आरजेडी की तरफ से काफी तीखी बातें की गईं जिसका जेडीयू की तरफ से जवाब भी तल्ख ही आया.

इस बीच ये भी खबरें आईं कि आरजेडी के बड़े नेताओं ने ईडी की कार्रवाई को लेकर केंद्र के एक बड़े मंत्री से मिलने की कोशिशें भी कीं लेकिन मीटिंग में कुछ खास बात बन नहीं पाई.

इन सब के बीच लालू और नीतीश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी. लालू यादव पर ईडी की सख्त कार्रवाई भी तेज होती जा रही थी. धीरे-धीरे वो कमजोर हो रहे थे और नीतीश कुमार ने चुप्पी साध रखी थी. इसे नीतीश कुमार ने गुरुवार को इस्तीफा देते वक्त साफ भी किया. नीतीश कुमार ने इस्तीफा देने के बाद मीडिया से कहा कि मैंने कभी इस्तीफा नहीं मांगा. मैं सिर्फ ये चाहता था कि अपने परिवार पर लगे आरोपों पर लालू यादव ठीक से सफाई दें लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

नीतीश कुमार ने साफ किया जब स्थितियां एक सीमा से पार हो गई तब उन्हें इस्तीफा देने की जरूरत पड़ी. नीतीश के इस्तीफे से ठीक तीन घंटे पहले भी लालू यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी और दावा किया था कि महागठबंधन नहीं टूटने वाला है. दो पार्टियां जो मिलकर सरकार चला रही हैं उनके बीच तीन घंटे के भीतर इतने विरोधाभासी कार्यकलाप हों तो समझा जा सकता है गठबंधन की हालत कैसी थी?

इस्तीफे के बाद लालू यादव ने फिर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताया कि अगर नीतीश कुमार साफ छवि की बात करते हैं तो उन पर तो ऐसे केस हैं जिनमें उम्रकैद तक की सजा हो सकती है.

लालू ये प्रेस कॉन्फ्रेंस काफी हद तक झल्लाहट का नतीजा लग रही थी. उनकी हड़बड़ी देखकर साफ लग रहा था कि उन्हें राज-पाठ चले जाने का मलाल है. लेकिन लालू तो लालू ठहरे. उनके पास आत्मावलोकन के लिए समय नहीं है. वो अभी 90 के दशक की राजनीति से बाहर नहीं आए हैं. उन्होंने कॉन्फ्रेंस में कहा भी भ्रष्टाचार से बड़ा है अत्याचार. मतलब वो भ्रष्टाचार को अब भी बड़ी बात नहीं मानते. शायद यही कारण है कि वो फिर एक बार उसी स्थिति में पहुंच गए हैं जहां से वो चले थे.