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'सबको खुश करने की राजनीति' कर रहे नीतीश की नजर 2019 पर है

नीतीश की चाहत है कि पीएम बनकर जनता के हित में कुछ ऐसा करिश्मा कर दें ताकि इतिहास में अमर हो जाएं

Kanhaiya Bhelari

नीतीश कुमार की राजनीति ‘भतरो मीठ और पुतरो मीठ’ वाली लाइन पर है. क्योंकि उनको लगता है कि यही लाइन उनका सपना पूरा करा सकती है.

नीतीश कुमार ने अाधिकारिक रूप से एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का सर्मथन किया है. राजनीति की शतरंज पर बिछाई गई चालों को समझने वालों के लिए बिहार सीएम का यह निर्णय किसी कोण से सनसनीखेज खबर नहीं है.


सबको मालूम है कि जिस तरह बीजेपी के नेता दावा करते हैं कि ‘वी आर पार्टी विद डिफरेंस‘ ठीक उसी स्टाइल में नीतीश कुमार अपने विरोधियों को एहसास कराने से बाज नहीं आते हैं कि वह ‘पॉलिटिक्स वीथ डिफरेंस' करते हैं.

तब लोगों के जेहन में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर नीतीश कुमार ‘भतरो मीठ और पुतरो मीठ’ वाली चाल चलकर किस प्रकार का राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहते हैं? एक तरफ पीएम मोदी की पसंद रामनाथ कोविंद का समर्थन करते हैं तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी के योग दिवस का विरोधी बनना पसंद करते हैं?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

थोड़ा पीछे मुड़ते हैं. बहुत दिनों के बाद नीतीश कुमार 12 जून को बीजेपी के खिलाफ आक्रामक मुद्रा में दिखे थे. उस आक्रमकता के पीछे के कारणों को खोजने का स्वभाविक प्रयास मीडिया के अलावे राजनीति के पंडितों द्वारा अभी तक किया जा रहा है. अपने हिसाब से सभी लोग विश्लेषण कर रहे हैं. बहुमत का मानना रहा कि ‘कड़क बयान से लगता है नीतीश कुमार ने तत्काल फिर से बीजेपी के पास जाने का इरादा छोड़ दिया है.’

नीतीश कुमार के कट्टर भक्त भी समझाते हैं कि ‘हमारे नेता ने न तो बीजपी कैंडिडेट का समर्थन किया है और न ही योग दिवस का विरोध.’ समर्थन के पीछे उनका तर्क है कि रामनाथ कोविंद दलित समाज से आनेवाले सुलझे हुए कानूनविद और गंभीर राजनेता है जिन्होंने राज्यपाल के रूप में बिहार की निष्काम भाव से सेवा की है. मुख्यमंत्री ने बीजेपी द्वारा योग के राजनीतिकरण का विरोध किया है न कि योग का.’ सीधे-सीधे कहें तो राजनीतिक फायदे के लिए वोट के गणित को ध्यान में रखकर सबकुछ किया जा रहा है.

बहरहाल, पिछले तीन साल में केंद्र सरकार के कई फैसलों का विपक्ष ने कड़ा विरोध किया लेकिन नीतीश कुमार ने कुछ फैसलों का खुले मन से स्वागत किया तो बाकी पर या तो चुप्पी साध ली या हल्का विरोध किया. फिर एक दिन अमित शाह ने बयान दे दिया कि ‘नीतीश कुमार के खिलाफ अर्नगल बयान देने से हमारे दल के लोग परहेज करें’.

दूसरी ओर नीतीश कुमार ने भी अपने नेताओं, खासकर प्रवक्ताओं को अपने आवास बुलाकर हिदायत दी कि बीजेपी के शीर्ष नेताओं पर टिप्पणी करने से वो बचें.

तस्वीर: पीटीआई

ये तमाम पॉलिटिकल डेवलपमेंट्स लोगों को कयास लगाने का ठोस आधार दे रहे थे कि नीतीश कुमार की निकटता बीजेपी से बढ़ रही है. लेकिन ये सब कयास लगाने वाले लोग शायद पॉलिटिक्स के इंजिनियर नीतीश कुमार को अच्छे से जानते नहीं हैं.

छवि के प्रति अति सजग नीतीश कुमार ने दोबारा पुराने घर में जाने के बारे में अभी तक नहीं सोचा है और न ही 2019 लोकसभा चुनाव तक सोचेगें. उनका आकलन है अगला चुनाव उनको पीएम उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने का अवसर देगा.

अब सवाल है कि तब उन्होंने पिछले दिनो क्यों कहा था कि मैं एक बहुत ही छोटी राजनीतिक पार्टी का नेता हूं और कहीं से भी पीएम पद की रेस में नहीं हूं?

एचडी देवगौड़ा कभी रेस में थे क्या? इंद्र कुमार गुजराल ने कभी सपने में भी सोचा होगा कि एक दिन मैं विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री बन जाऊंगा? ये बात सब जानते हैं कि राजनीति में कोई घास काटने या हरि भजन करने नहीं आता है. प्रामाणिक तौर पर अभी के माहौल में राजनीति में आने के पीछे दो ही उदेश्य दिखते हैं.

पहले कैटगरी में वैसे लोग हैं जो पद पाकर अकूत धन कमाते हैं जबकि दूसरे कटगरी में वैसे लोग शामिल हैं जो पद हासिल करने के बाद जनता के बेहतरी के लिए कुछ कर-करा के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं. ट्रैक रिकॉर्ड गवाह है कि नीतीश कुमार बेशक दूसरे कैटिगरी के राजनेता हैं.

नीतीश की दिली चाहत और संकल्प है कि किसी तरह पीएम की कुर्सी हासिल कर जनता के हित में कुछ ऐसा करिश्मा कर दें ताकि इतिहास में अमर हो जाएं. सौभाग्य से अल्पावधि के लिए भी पीएम की कुर्सी नसीब हो जाए तो क्या-क्या काम करना है, इसका भी ब्लूप्रिन्ट नीतीश कुमार ने अपने दिमाग में तैयार कर लिया है.

नीतीश चाहते होंगे कि 1996 जैसे राजनीतिक हालात फिर से बनें ताकि पहली बार एक बिहारी भी प्रधानमंत्री बन जाए. उसी खंडित जनादेश की पुर्नरावृति की आस लगाए वो 2019 तक लालू प्रसाद यादव के साथ मन मसोसकर हर हाल में बने रहेगें.

तब तक देश भर में घूम-घूमकर अलग-अलग मुद्दों पर भाषण देकर विपक्षी दलों के नेताओं को एहसास कराने का प्रयास करते करेंगे कि नरेंद्र मोदी का सटीक विकल्प केवल वही हो सकते हैं.

नीतीश कुमार

11 जून को यूपी के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य बिहार दौरे पर थे. उनकी मौजूदगी में आरजेडी और एचयूएम के कई नेता बीजेपी में शामिल हुए. उत्साह में आकर मौर्य ने चैलेंज किया था कि ‘हिम्मत है तो नीतीश कुमार बिहार में विधानसभा का चुनाव कराकर देख लें. उनका सूपड़ा साफ हो जाएगा और बीजपी की सरकार बन जाएगी’.

इसके अगले दिन नीतीश कुमार ने मौर्य के चैलेंज को न केवल स्वीकार किया बल्कि उसी अंदाज में ललकारा कि ‘दम है तो साथ ही साथ यूपी विधानसभा और यूपी के 80 लोकसभा सीटों का भी चुनाव बीजेपी करवा दे’. स्वाभाविक है नीतीश कुमार ने यह बयान अपने दल के कार्याकर्ताओं के मनोबल को ऊंचा रखने के लिए दिया था.

बिहार के मुख्यमंत्री ने बिना नाम लिए अमित शाह के महात्मा गांधी पर दिए ‘चतुर बनिया’ वाले बयान पर भी चुटकी ली थी. साथ ही मध्य प्रदेश में पुलिस फायरिंग में मरे 6 किसानों को लेकर भी बीजपी सरकार की आलोचना की.

नीतीश कुमार ने सीधे तौर पर मोदी सरकार पर भी हमला बोला कि ‘केंद्र सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले जो वादा किया था वो अभी तक किसानों को नहीं मिला और न ही उनके हित के लिए कोई ठोस नीति बनाई.’

प्रबल संभावना है कि देश के किसानों की उपेक्षा और उनकी दयनीय स्थिति को भी नीतीश कुमार चौथा अहम मुद्दा (पहले तीन मुद्दे हैं- शराबबंदी, बाल विवाह और दहेज प्रथा) बनाकर बीजेपी सरकार को घेरें और अपनी लोकप्रियता का दायरा बढ़ाएं ताकि वह अपने लक्ष्य के और करीब पहुंच सकें.