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लालू से रिश्ता तोड़कर नीतीश ने बेवकूफी वाले सियासी प्रयोग का अंत कर दिया है

महागठबंधन का मुस्तकबिल शुरुआत से ही अंधकारमय था

Ajay Singh

छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार अपनी बात साफगोई से कहने के लिए नहीं जाने जाते हैं. जबकि, आज नीतीश जिनके दिखाए रास्ते पर चल रहे हैं, वो पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह अपनी बात खुलकर कहने के लिए जाने जाते थे.

वी पी सिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ बगावत करके जनमोर्चा बनाया था. यही जन मोर्चा बाद में जनता दल बना, जिसकी मदद से वी पी सिंह प्रधानमंत्री बन गए. लेकिन अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए भी वी पी सिंह ने इसे बेवकूफाना सियासी प्रयोग कहा था.


हम नीतीश कुमार से ये उम्मीद नहीं करते कि वो खुलकर अपनी गलती मान लें. लेकिन, हो सकता है कि अकेले में नीतीश कुमार ये बात मान लें. 2013 में मोदी का कद बढ़ने पर बीजेपी से नाता तोड़ने वाले नीतीश कुमार ने जब 26 जुलाई को लालू यादव के साथ महागठबंधन तोड़ा, तो ये यकीनन वो इसे अपने बेवकूफाना सियासी दौर के खात्मे के तौर पर देखते होंगे.

नीतीश वहीं चले गए थे जहां उन्हें खुद नहीं जाना था

मोदी के नाम पर बीजेपी से अलग होने वाले नीतीश कुमार को अपने सियासी गुणा-भाग के गलत हो जाने का अफसोस तो रहा ही होगा. अपने गलत अंदाज के चलते नीतीश को उस तरफ जाना पड़ा, जहां वो बिल्कुल नहीं जाना चाहते थे.

2013 से पहले नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच बहुत अच्छे ताल्लुकात थे. अपनी साफ-सुथरी और सुशासन बाबू वाली छवि के लिए बीजेपी नेता उनकी जमकर तारीफ करते थे. उनकी काबिलियत की अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर तमाम दूसरे नेता गुणगान करते थे. हाल ये था कि बिहार में बीजेपी के किसी नेता के मुकाबले नीतीश की ज्यादा चलती थी.

लेकिन 2013 में नीतीश ने ये सब कुछ बदल डालने का फैसला किया. असल में 2013 के पहले के सियासी माहौल को पढ़ने-समझने में नीतीश ने बड़ी भूल कर दी. हालांकि नीतीश के बीजेपी से अलगाव का बीज तो 2010 में ही पड़ गया था.

नीतीश के अपने सियासी करियर के बेवकूफाना प्रयोग की बड़ी वजह 2010 के विधानसभा चुनाव में उनको मिला विशाल बहुमत था. नीतीश ने ये समझा कि जनता ने उन्हें इसलिए चुना क्योंकि वो मोदी से हमेशा दूरी बनाए रखते थे. नीतीश को लगा कि मोदी से तल्खी पर जनता की मुहर है. हाल ये था कि 2010 के चुनाव में बीजेपी ने मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार के लिए भी नहीं भेजा था. 2010 के चुनाव में लालू का सूपड़ा साफ हो गया था. नीतीश को ऐसा लगा कि अब वो ही बिहार और देश के बाकी मुसलमानों के असली पैरोकार हैं.

नीतीश के बीजेपी से अलग होने की एक वजह और थी. कई बीजेपी नेता उन्हें ये समझाने में कामयाब हो गए थे कि आरएसएस, मोदी को बीजेपी की कमान नहीं देगी. उस वक्त लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी के सबसे बड़े नेता थे. बीजेपी के सभी बड़े ओहदे पर उनके भरोसेमंद आदमी थे. नीतीश को ये सब देखकर लगा कि मोदी जब भी केंद्र की राजनीति में आना चाहेगे, तो उनका कड़ा विरोध होगा.

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मोदी को प्रधानमंत्री बनता देख नीतीश ने बीजेपी से रिश्ता तोड़ा था

नीतीश का मोदी विरोध अपनी सियासत से ज्यादा बीजेपी के अंदरूनी समीकरण की वजह से था. वो जमीनी सच्चाई से ज्यादा बीजेपी नेताओं के करीबी थे. लेकिन नीतीश कुमार बदलते सियासी माहौल को नहीं भांप सके. इसी वजह से जब भी बीजेपी में मोदी का नाम आगे बढ़ता, नीतीश कड़ा रुख अख्तियार कर लेते. मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनता देखकर नीतीश ने बीजेपी से रिश्ते तोड़ने का फैसला कर लिया.

मोदी की बढ़ती लोकप्रियता और बीजेपी की अंदरूनी राजनीति को समझने में नीतीश से भारी भूल हुई थी. इसकी बड़ी वजह ये थी कि वो अभी भी सियासत को जातीय समीकरण के चश्मे से देख रहे थे. उन्हें लगा कि गुजरात के अन्य पिछड़ा वर्ग से आने वाले मोदी को बीजेपी के सवर्ण नेताओं का समर्थन नहीं मिलेगा. नीतीश को अपने इस अनुमान पर इतना यकीन था कि उन्होंने इसी की बुनियाद पर बीजेपी से अलगाव का दांव खेला. लेकिन पूरे देश में इतनी जबरदस्त मोदी लहर थी कि सारे अनुमान ध्वस्त हो गए. नीतीश का दांव भी उल्टा पड़ गया.

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश की अपने ही सूबे में हालत बेहद कमजोर हो गई थी. नीतीश को लगा था कि मोदी का विरोध करके वो मुसलमानों के नुमाइंदे बन जाएंगे. लेकिन उनका ये अंदाजा बिल्कुल गलत साबित हुआ. लोकसभा चुनाव में भी लालू को ही मुस्लिम-यादव वोट बैंक के वोट मिले. नीतीश की सियासी गलतियों का सिलसिला 2014 की हार पर ही नहीं थमा. चुनाव के नतीजे आने के बाद उनका इस्तीफा देना भी उल्टा पड़ गया.

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जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद पर बैठाना भी उल्टा पड़ गया

उन्होंने अपनी जगह जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया. नीतीश को लगा था कि वो पर्दे के पीछे से राज करते रहेंगे. लेकिन छह महीने के भीतर ही मांझी, नीतीश को चुनौती देने लगे थे. मांझी, नीतीश को किनारे लगाकर अपनी सियासी जड़ें जमाने में जुट गए. दोनों तरफ से खूब बयानबाजी हुई. बड़ी खींचतान और कड़वाहट के बाद नीतीश ने मांझी को हटाकर एक बार फिर मुख्यमंत्री का पद संभाला. ये एक ऐसा दांव था, जिसे खेलने से नीतीश बच सकते थे.

लेकिन नीतीश की सबसे बड़ी भूल तो तब हुई, जब उन्होंने लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठजोड़ कर लिया. अपनी बरसों के सियासी सफर के चलते नीतीश ने अपनी साफ-सुथरे नेता वाली छवि बनाई थी. मतदाताओं के एक बड़े तबके को नीतीश कुमार सुशासन बाबू के तौर पर पसंद थे. वो लालू की गंवार और जातीय राजनेता वाली छवि के मुकाबले बेहतर विकल्प के तौर पर आजमाए और पसंद किए गए थे.

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गठबंधन का भविष्य शुरूआत से ही अंधकारमय था

लालू पर अपराधियों और माफिया को संरक्षण देने के आरोप लगातार लगते रहे थे. वहीं नीतीश की छवि बेदाग नेता की थी. 2015 में नीतीश ने लालू के साथ जो महागठबंधन बनाया, उसका मुस्तकबिल शुरुआत से ही अंधकारमय था. नीतीश को इस गठजोड़ के लिए बार-बार सफाई देनी पड़ी. नीतीश के पास सफाई में कहने के लिए ज्यादा तर्क भी नहीं थे.

नीतीश के लिए हालात तब और बदतर हो गए, जब लालू अपने चेलों के जरिए उन पर हमला करने लगे. कई बार ऐसा हुआ कि लालू ने बीजेपी नेताओं से नीतीश की सरकार गिराने के लिए मदद मांगी. नीतीश को लालू की इन साजिशों की खबर थी. लेकिन नीतीश के लिए तब और मुश्किल खड़ी हो गई, जब शहाबुद्दीन ने उन्हें खुली चुनौती दे डाली.

साफ है कि लालू के साथ समझौता करके नीतीश कुमार अपने सबसे बुरे सियासी दौर से गुजर रहे थे. जब लालू और उनके पूरे कुनबे पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगने लगे. उनके खिलाफ तमाम सबूत सामने आए, तो नीतीश के पास इस गठबंधन को खत्म करने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था.

नीतीश अपनी बात कहने के लिए अक्सर महात्मा गांधी का जिक्र किया करते हैं. गांधी ने कभी भी एक बात पर अडिग रहने को अपनी नीति नहीं बनाया. इसी तरह नीतीश कुमार ने बार-बार पाला बदला. लेकिन इस बार पाला बदल कर नीतीश ने अपनी सबसे बड़ी सियासी गलती सुधारी है.