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जातिवाद के खिलाफ गडकरी का बयान समीकरण साधने की कोशिश तो नहीं?

जब देश की राजनीति जाति की धुरी पर घूम रही है तो नितिन गडकरी धारा के विपरीत बहने की जिद क्यों कर रहे हैं?

Kinshuk Praval

बीजेपी के कद्दावर नेता, पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी कह रहे हैं कि जात न पूछो वोटर और लीडर की. गडकरी कहते हैं कि उनके संसदीय क्षेत्र में अगर किसी ने जातिवाद की बात की तो उसकी पिटाई हो जाएगी. दरअसल, पुणे में एक सरकारी कार्यक्रम में नितिन गडकरी ने बताया कि उन्होंने कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी है कि अगर कोई जाति के बारे में बात करेगा तो वो उसकी पिटाई कर देंगे. बड़ा सवाल ये है कि जब देश की राजनीति जाति की धुरी पर घूम रही है तो नितिन गडकरी धारा के विपरीत बहने की कोशिश क्यों कर रहे हैं?

देश की राजनीति में जातियों के हल्लाबोल को समझने के लिए हालिया गुर्जर आरक्षण आंदोलन को देखा जा सकता है. गुर्जर आंदोलन पर सरकारों की चुप्पी सियासत की रणनीति को समझाने के लिए काफी है. जाति की राजनीति की आग में राजनीतिक दलों का रोटियां सेंकने का लंबा इतिहास है तो वर्तमान का सियासी गठजोड़ इसी के भरोसे अपना भविष्य तय करता है. दरअसल, पिछले तीन दशकों में देश की राजनीति में जाति ने उम्मीदवार, मतदाता और राजनीतिक दलों पर जोरदार असर डाला है. वोट पर जातियों का असर बढ़ता ही रहा है. जातियों के ध्रुवीकरण ने ही यूपी और बिहार में क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय दलों के बरक्स खड़ा कर दिया है.


आजादी के बाद एक तरफ देश का लोकतंत्र मजबूत हो रहा था तो दूसरी तरफ राजनीति में जातिवाद आधुनिक होता जा रहा था.जातियों का ध्रुवीकरण कई चुनावों के परिणामों को बदलने लगा और जब एक जाति के बूते सत्ता की गारंटी नहीं बनीं तो दलित-मुस्लिम गठजोड़, यादव-मुस्लिम गठजोड़ और सोशल इंजीनियरिंग जैसे फॉर्मूले ईजाद किए गए.

ऐसे में आजादी के बाद देश में जातिगत भेदभाव मिटने की संभावनाएं धूमिल होती चली गईं क्योंकि राजनीति ने जातियों को अपना हथियार और कवच बना डाला. जातियों के राजनैतिक इस्तेमाल की वजह से सामाजिक और सांप्रदायिक समरसता में जातियां रुकावट बनती चली गईं और देश का वोटर जातियों के आधार पर संगठित तो हुआ लेकिन सामाजिक समरसता के नाम पर लगातार बिखरता चला गया. देश में जातियों के आधार पर राजनीतिक दलों की बाढ़ सी आ गई जो अपनी-अपनी जातियों के समाजिक न्याय का दावा करने लगीं. लेकिन समाज में जातिगत समस्याएं वैसी ही न सिर्फ बनी रहीं बल्कि गंभीर होती चली गईं.

गडकरी अपने संसदीय क्षेत्र में जाति के नाम पर वोट नहीं मांगेंगे. उनका कहना है कि समाजिक समरसता के लिए जाति और सांप्रदायिकता से ऊपर उठने की जरूरत है. आज के दौर की सियासत का रंग ही जब जातियां और धर्म तय करती हों तो उस दौर में किसी राजनेता का ये बयान राजनीति से परे माना जा सकता है. ये बयान इसलिए भी अहम माना जा सकता है कि जिस नागपुर से गडकरी सांसद चुने गए हैं वहां जातियों का उलझा हुआ समीकरण है.

साल 2014 में नागपुर से गडकरी ने पहली बार लोकसभा का चुनाव जीता है. गडकरी से पहले इस सीट पर ज्यादातर कब्जा केवल कांग्रेस का रहा है. नागपुर में संघ का कार्यालय होने के बावजूद बीजेपी के हिस्से में ये सीट गडकरी से पहले सिर्फ एक बार तब आई थी जब कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए बनवारी लाल पुरोहित ने यहां से जीते थे. डॉ. बाबा साहब आंबेडकर की ये कर्मभूमि रही है. यहां पर दलित और मुस्लिम वोटरों का बोलबाला है. एक बार इस सीट पर फॉरवर्ड ब्लाक के उम्मीदवार जांबुवंतराव धोटे जीते तो एक बार निर्दलीय उम्मीदवार माधव अणे भी जीते.

यहां के जातिगत समीकरणों से समझा जा सकता है कि यहां ब्राह्णण उम्मीदवार की जीत तभी पक्की हो सकती है जब दलित-मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगे या फिर वो आपस में एक दूसरे के उम्मीदवार के वोट काट दें. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में ऐसा ही हुआ था. साल 2014 में नागपुर से गडकरी के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने अंजली दमानिया को उम्मीदवार बनाया था जो कि चुनाव हार गईं. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों के बीच वोटों की लड़ाई में बीएसपी के उम्मीदवार ने सेंध लगाने का काम किया. बीएसपी की नागपुर समेत महाराष्ट्र में चुनाव दर चुनाव स्थिति मजबूत होती जा रही है.

नतीजतन, जातियों के त्रिकोणीय संघर्ष में सीधा फायदा नितिन गडकरी को हुआ और वो चुनाव जीत गए. ऐसे में गडकरी का ये बयान ‘विचित्र किंतु सत्य’ की परिस्थितियां बनाता है. गडकरी ये जानते हैं कि वो अपने संसदीय क्षेत्र में दोबारा चुनाव सिर्फ विकास के नाम पर जीत सकते हैं तो ऐसे में जातियों या फिर आरक्षण की बात करने की जरुरत क्या है.

बीजेपी बार-बार ये प्रचार कर रही है कि किस तरह से उसने एससी-एसटी कोटे को छुए बगैर ही आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की है. इससे पहले एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद में ऑर्डिनेंस लाकर बीजेपी ने दलितों की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की. साफ है कि बीजेपी जातिगत समीकरणों को साधने के लिए राजनीति का हर वो दांव चल रही है जो देश की सियासत का ब्रह्मास्त्र बन चुका है. लेकिन गडकरी अपने संसदीय क्षेत्र में जातिवाद को खारिज कर आखिर किस पर निशाना साध रहे हैं?

गडकरी राजनीति से परे अपने बयान देने के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनके बयानों से उपजे विवादों में राजनीति भी देखी जाती है. इससे पहले मुंबई में उन्होंने सुनहरे सपने दिखाने वाले नेताओं के वादा पूरा न करने पर जनता से पिटाई की बात की थी. गडकरी के इस बयान ने विपक्ष को पीएम मोदी पर हमला बोलने का मौका दिया. कांग्रेस ने कहा कि गडकरी के बयान के केंद्र में पीएम पद की कुर्सी है.

एक कार्यक्रम में गडकरी ने ये भी कहा कि जो घर नहीं संभाल सकता है वो देश नहीं संभाल सकता. उन्होंने ये बयान बीजेपी कार्यकर्ताओं को अपनी घरेलू जिम्मेदारियां निभाने के संदर्भ में कही. वहीं उन्होंने ये भी कहा कि नेतृत्व को जीत के साथ ही हार की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद गडकरी का ये बयान भी सियासत के गलियारों में गूंज उठा.

गडकरी जब भी कुछ बोलते हैं तो तुरंत ही उनके बयान के कई रूप, कई वर्ज़न, व्याख्याएं और कई मायने सामने आ जाते हैं. हालात ये हो जाते हैं कि गडकरी को खुद अपने ही कहे की सफाई देनी पड़ जाती है. कभी उनसे गणतंत्र दिवस की परेड में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ बैठने और बातचीत पर सवाल उठने लगते हैं तो कभी उनसे ये पूछा जाने लगता है कि झूठे वादे कर चुनाव जीतने के बयान के पीछे उनका इशारा किस तरफ था.

बहरहाल, चुनावी मौसम में गडकरी के किसी बयान को सिर्फ माहौल को हल्का बनाने या फिर हल्का-फुल्का अंदाज नहीं माना जा सकता है. गडकरी मंझे हुए रणनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ हैं. वो ये जानते हैं कि तोल-मोल के कैसे बोला जाता है. ऐसे में इस बार गडकरी का ये बयान किस पर निशाना है विपक्ष इसके मंथन में जरूर जुट गया होगा.