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नसीरुद्दीन शाह ने सच ही तो कहा है, बस आसपास देखिए तो जरा

इस पूरे मामले पर अप्रोच ऐसा होना चाहिए कि सच्चाई की ओर से आंखें मूंदकर सवाल दागने से अच्छा खुद ये सवाल उठाए जाएं

Tulika Kushwaha

भारत के लोगों में हिपोक्रेसी इतनी कूट-कूटकर भरी हुई है कि इनकी बुद्धियों को लॉजिक और सवाल-जवाब भेद भी नहीं पाते हैं. यहां लोगों को अब सवाल सुनना पसंद नहीं है और अगर आपने कहीं हवा से उलट बात कह दी तो, चारों दिशाओं से हमले करके आपको चित कर दिया जाएगा.

हिंदी सिनेमा के बड़े नाम नसीरुद्दीन शाह अपने बयान से न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम की बहस का मुद्दा बन गए हैं. अब उलट उनसे सवाल पूछा जा रहा है. ऐसी नौबत बनाई जा रही है कि उनको भी अपनी देशभक्ति साबित करने पर मजबूर होना पड़े. आमिर खान ने भी कुछ-कुछ ऐसा ही बयान दिया था और उन्हें आखिर में सफाई देनी पड़ी थी. उन्हें तो पाकिस्तान भेजने तक का न्योता भी मिल गया था. लेकिन शुक्र है कि पिछले कुछ वक्त से देश में पाकिस्तान भेजने की धमकी देने का चलन खत्म सा हो गया है.


'बच्चों के लिए फिक्र होती है'

पूरा मामला कुछ यूं है कि 'कारवां-ए-मोहब्बत इंडिया' से एक इंटरव्यू में नसीरुद्दीन शाह ने बुलंदशहर हिंसा की घटना पर कमेंट किया था. उन्होंने कहा था कि उन्हें अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंता है. वो डरे हुए नहीं गुस्से में हैं. उन्होंने कहा कि देश में जहर फैलाया गया है और अब इसे रोकना मुश्किल है.

शाह ने कहा था कि उन्होंने अपने बच्चों को कभी किसी खास धर्म की शिक्षा नहीं दी है. उन्होंने अपने बच्चे इमाद और विवान को धार्मिक शिक्षा नहीं देना तय किया था क्योंकि उनका मानना है कि 'खराब या अच्छा होने का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है', इसलिए उन्हें डर है कि अगर कभी भीड़ ने उनके बच्चों को घेरकर पूछ लिया कि वो किस धर्म के हैं, तो वो क्या जवाब देंगे?

शाह ने देश में हो रही मॉब लिंचिंग की घटनाओं के क्रम में जुड़े बुलंदशहर हिंसा पर टिप्पणी भी की. उन्होंने कहा कि देश में गाय के जान की कीमत एक पुलिसवाले से ज्यादा हो गई है. यहां गाय की मौत को पुलिस अधिकारी की हत्या से ज्यादा तवज्जो दी गई. उन्होंने कहा कि लोग कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं और उन्हें खुली छूट भी दे दी गई है.

शाह का अपने बच्चों के लिए डर होना 2015 में आमिर खान के असहिष्णुता पर दिए गए बयान की याद दिलाता है. खान की इस टिप्पणी के बाद जाहिर तौर पर विवाद पैदा हो गया था. उसी तरह शाह को भी निशाना बनाया जा रहा है.

शाह के सवाल पर सवाल

सबसे पहले बात राजनीतिक पार्टियों की. भारतीय जनता पार्टी की ओर से राकेश सिन्हा ने उनके इस बयान पर कहा है कि देश में कुछ लोग बदनाम गैंग में शामिल हो गए हैं. प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि देश में डरने जैसी स्थिति नहीं है.

वहीं, न्यूज चैनलों पर सवाल पूछे जा रहे हैं कि नसीरुद्दीन शाह को बच्चों की चिंता क्यों हो रही है? जिस देश ने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचाया, अब वहां उन्हें डर क्यों लगने लगा है? लोगों ने इसे 2019 की तैयारी भी बता दी है.

आखिर शाह ने ये बात कह कैसे दी? क्या उन्हें दिख नहीं रहा कि देश कितना सुरक्षित है और यहां रामराज्य आ चुका है, सब खुश हैं, किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं है.

मीडिया भी तो खुश है. उसे समझ नहीं आ रहा कि शाह को डर क्यों लग रहा है? वो कैसे इतने सुरक्षित देश को असुरक्षित कह सकते हैं? देश ने तो कुछ वक्त से ऐसी कोई घटना देखी ही नहीं है, जिसमें डरने जैसी कोई बात हो. इसलिए शाह की बात ऐसी बेसिर-पैर है, जिसका ओर-छोर इन्हें समझ नहीं आ रहा और उनसे उलट सवाल पूछे जा रहे हैं.

अब जरा गंभीर सवाल-

- क्या पिछले कुछ वक्त में देश में मॉब लिंचिंग पर मीडिया में सवाल नहीं उठाए गए हैं?

- क्या गौरक्षा के अभियान को लेकर देश में हिंसा नहीं बढ़ी है?

- क्या मीडिया ने देश में सुरक्षा को लेकर सरकारों पर सवाल नहीं उठाए हैं?

- क्या प्रशासनिक लापरवाही, गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव और सरकारी नाकामी पर मीडिया सवाल नहीं करता है?

- क्या मीडिया को देश बहुत सुरक्षित लगने लगा है और उसे अव्यवस्था, हिंसा, अपराध की खबरें मिलनी बंद हो गई हैं?

मीडिया ने ये सवाल उठाए हैं और उठाता रहा है. मॉब लिंचिंग हो या सरकारी नाकामी का मसला हो, मीडिया सवाल पूछता है. मीडिया जवाबदेही ढूंढता है. ये सब कहने-सुनने का मतलब इससे कि जब यही बात किसी ओर की तरफ से आ रही है, तो दिक्कत क्यों है?

आंखें मूंदकर बेवकूफ बने रहना ज्यादा पसंद है?

शाह ने कौन सी नई बात कही है? क्या इस देश में बहुत शांति आ गई है? क्या एक आम आदमी से लेकर रसूख वाले इंसान को यहां डर नहीं लगता? क्या देश में आर्थिक और सामाजिक तौर पर बहुत सामंजस्यता बन गई है, जिससे कि देश में डर खत्म हो जाना चाहिए?

हमारे यहां ये बड़ी समस्या है, अपनी चीज को खराब कहने में कोई दिक्कत नहीं, लेकिन यही बात कोई और कह दे तो हम उसपर चढ़ बैठते हैं. गर्व के भ्रम में इग्नोरेंस या कह लें अक्खड़ रुख को अपनाए बैठे हम खुद को एक बार नहीं आंकना चाहते.

इस पूरे मामले पर अप्रोच ऐसा होना चाहिए कि सच्चाई की ओर से आंखें मूंदकर सवाल दागने से अच्छा खुद ये सवाल उठाए जाएं. आखिर कोई ये बातें कह रहा है तो क्यों कह रहा है? ये पूछा जाए कि देश में सुरक्षा क्यों नहीं है? और जवाबदेही रखने वाले नेता समस्या को ही कैसे खारिज कर पा रहे हैं?

आपको लगता है कि नसीरुद्दीन शाह बहुत प्रिविलेज्ड जिंदगी जी रहे हैं, फिर भी ऐसी बातें कह रहे हैं तो जाइए किसी आम आदमी से भी पूछ लीजिए कि वो इस देश में कितना सुरक्षित महसूस करता है. और बात बस धर्म की नहीं है, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा बहुत मायने रखती है.

हर मुद्दे को चल रही हवा की चलनी में छानकर मतलब की चीजों को निकालकर मुद्दों को उलझाया न जाए तो कुछ अच्छा हो. लेकिन फिलहाल तो सच में चीजें बदलती नहीं दिख रहीं.