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कर्नाटक चुनाव: कांग्रेस के खिलाफ करियप्पा को हथियार बनाने से BJP को फायदा नहीं

जाहिर सी बात ये है कि सियासी हमले उन मसलों को लेकर होने चाहिए जो ज्यादा प्रासंगिक जान पड़ें ना कि उन मसलों पर जिनकी आज के वक्त के हिसाब से कोई अहमियत नहीं रखते

Bikram Vohra

बीजेपी ने अगर जनरल थिम्मैया और फील्ड मार्शल करियप्पा के साथ हुए तथाकथित अपमानजनक बर्ताव का मुद्दा अपनी तरफ से कर्नाटक में कांग्रेस का मुखड़ा मलिन करने के लिए एक महत्वपूर्ण हमला समझकर उठाया है तो समझिए कि उसने अपने तरकश का सबसे कुंद तीर मारने की कोशिश की है, ऐसा तीर जो निशाने पर मारे जाने लायक नहीं. जाहिर सी बात ये है कि सियासी हमले उन मसलों को लेकर होने चाहिए जो ज्यादा प्रासंगिक जान पड़ें ना कि उन मसलों पर जिनकी आज के वक्त के हिसाब से कोई अहमियत नहीं रखते.

सच ये है कि आजादी के उन शुरुआती सालों में जवाहरलाल नेहरू के मन में ऐसी कोई बात बड़ी जरूरत बनकर नहीं घुमड़ रही थी कि सशस्त्र सेना का अपमान करके दिखाना है. वे शांतिवादी और रोमानी रुझान के नेता थे और उनकी थिम्मैया से बस इतनी भर बहस हुई थी कि थिम्मैया ने मंजूरी मांगी कि कश्मीर जाकर मुझे अपना काम पूरा निपटा लेने दीजिए तो ये मंजूरी नेहरू ने उन्हें नहीं दी. इसके आगे बहुत वक्त गुजरा और फिर 1959 साल के आखिर के हिस्से में एक दफे जनरल थिम्मैया नेहरू और कृष्ण मेनन से नाराज हुए कि ये नेता चीन की तरफ से उठ रहे खतरे की आशंका की उनकी बात को तवज्जो नहीं दे रहे. जनरल थिम्मैया ने इस्तीफे की पेशकश की लेकिन नेहरू ने उन्हें पद पर बने रहने के लिए मना लिया.


सेनाओं को तब बाकी चीजों से एक दर्जा अव्वल ही समझा जाता था

बहुत से सियासी हालात को लेकर नेहरू का रुख एकदम ही अव्यावहारिक रहा और उनके निर्णय-बुद्धि के कच्चेपन और ‘शांति-कपोत’ को लेकर अव्यावहारिक प्रेम के कारण दशकों तक भारत के आगे बाधाएं खड़ी हुईं. बहरहाल, सशस्त्र सेनाओं को लेकर उनका रुख कभी ऐसा नहीं रहा जो कहें कि उसमें खुलेआम अपमान का भाव है. ये कहना पर्याप्त है कि सेना को राजनेता और आम जनता तब कहीं ज्यादा सम्मान के साथ देखा करते थे और आज की तुलना में सम्मान का यह भाव कहीं ज्यादा ठोस था. सेनाओं को तब बाकी चीजों से एक दर्जा अव्वल ही समझा जाता था.

एक बात यह भी है कि नेहरू खानदान अगर फौज के जनरलों के प्रति दुर्भावना रखता तो फिर राजीव गांधी जनरल करियप्पा को 1986 में फील्ड मार्शल जैसे ऊंचे ओहदे से ना नवाजते.

बीजेपी ने कोई तीसरा फील्ड मार्शल नहीं बनाया. हां, इतना जरूर हुआ कि वाजपेयी सरकार के वक्त अर्जन सिंह को एयरफोर्स के दायरे में पांच सितारा (फाइव-स्टार) मार्शल बनाया गया. इंदिरा गांधी ने पहला पांच-सितारा ओहदा सैम मानेकशॉ को दिया था.

सियासी दांव की बढ़त बनाने के फेर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेना के इस्तेमाल में कुछ ज्यादा ही छूट ले ली और जब ये दांव चला तो भी सारी की सारी तिथियां गलत बताईं. राहुल गांधी के साथ कीचड़-उछाल मुकाबले में प्रधानमंत्री बेशक शिरकत करें लेकिन अच्छा होता कि वे ऐसे मुकाबले में सेना को ना घसीटते. सेना के इतिहास का मान रखा जाना चाहिए क्योंकि सेना ने देश की रक्षा में अपना खून बहाया है और सियासी कीचड़-उछाल में सेना को खींच लाना सतहीपना कहलाएगा. आखिर, यह चुनावी घोषणापत्र से जुड़ा कोई जरूरी मामला तो है नहीं.

अगर निर्मला सीतारमण जनरल बिपिन रावत से किसी मुद्दे पर असहमत होती हैं तो क्या ये माना जाएगा कि बीजेपी की सरकार सैन्यबलों के खिलाफ है? यहां वन रैंक वन पेंशन का मुद्दा मिसाल के तौर पर ले सकते हैं. अगर कांग्रेस पलटवार करते हुए इस मुद्दे को उछाले तो फिर आपस में जारी यह तूतू-मैंमैं की तकरार आखिर कहां जाकर रुकेगी? आज की तारीख में सशस्त्र बलों को राजनेताओं से कहना चाहिए कि वे चुनाव-अभियान के दौरान कड़वे बोल सुनाने के समय कुछ मामलों में एहतियात बरतें.

वी.के कृष्ण मेनन के साथ पंडित जवाहर लाल नेहरू (फोटो: Wiki)

'नेहरू के बाद सत्ता की बागडोर सेना को मिलनी चाहिए'

सेना के मिजाज से डर तो तेवर के तीखे कृष्णमेनन को भी लगता था. भारतीय राजनीति के चमकते सितारे नहीं जानते कि सेना के मामले में बात कैसे बनी. अगर कभी किसी अवसर पर सेना के साथ आनाकानी का वाकया पेश भी आया तो वो इसलिए कि सेना नागरिकों की चुनी हुई सरकार के कहे में रहे. इस सिलसिले में बात किसी बिगाड़ तक ना पहुंचे इसके लिए नौकरशाही का बड़े कारगर तरीके से इस्तेमाल किया गया. सीमा के उस पार पाकिस्तान सैन्य शासन (मार्शल लॉ) के रास्ते पर चल चुका था और वहां सेना के जनरलों ने सत्ता के गलियारे में अपने पांव जमा लिए थे. ऐसे ही माहौल में कांग्रेस चिन्ता में थी कि कहीं भारत में भी कोई व्यक्ति पाकिस्तानी जनरलों वाली राह पर ही ना चल निकले और अगर ऐसा होता तो फिर मामला बस एक ही दिन में निपट सकता था.

लेकिन ब्रिटिश कमान के अनुशासन के भीतर प्रशिक्षण हासिल करने वाले हमारे सेना के अफसरों का मिजाज कुछ ऐसा बन चला था कि सैन्य तख्तापलट का ख्याल उनके मन में कभी आ ही नहीं सका.

नेहरू के शासन में एक वक्त ऐसा आया था जब जान पड़ रहा था कि सेना सत्ता के गलियारे में पांव जमा लेगी. उस वक्त लेफ्टिनेंट जनरल बिज्जी कौल के मन में यह ख्याल करवट ले रहा था कि नेहरू के बाद सत्ता की बागडोर उन्हें मिलनी चाहिए. अगर ऐसा होता तो फिर बड़ी विडंबना भरी स्थिति कहलाती यह क्योंकि माना जाता कि आधे-अधूरे मन से ही सही नेहरू ने ऐसा करने में जनरल बिज्जी की मदद की.

बहरहाल, अगर उस वक्त सशस्त्र बल और राजनीतिक तबके के बीच किसी किस्म की तनातनी थी भी तो उसका रिश्ता कर्नाटक के चुनाव से क्या बनता है? आखिर, लोगों के मन में ऐसी भावनाएं जगाने का क्या मतलब जो अभी जरा भी मायने नहीं रखतीं?

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