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नगालैंड चुनाव 2018: क्या जनता को 'टैक्स' से निजात दिला पाएगा चुनाव?

नगा पीपुल्स फ्रंट का मुख्य एजेंडा भारत-नगा राजनीतिक समस्या के लिए शांतिपूर्ण और बिना विवाद वाला हल ढूंढना है. एनपीएफ 1963 में अपने गठन के बाद से इसके पक्ष में काम कर रही है

Kangkan Acharyya

जोएल लोथा नगालैंड की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर टाटा सूमो चलाकर अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम करते हैं. यह टाट सूमो उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है. मुसाफिरों को अपने ठिकाने तक पहुंचाने के लिए लोथा हर सुबह कोहिमा सूमो स्टैंड जाते हैं और दिन भर की कमाई के साथ देर रात घर लौटते हैं. वह धूल भरी सड़कों पर ड्राइव करते हुए बताते हैं, 'हालांकि, मेरी कमाई का बड़ा हिस्सा यूजी द्वारा ले लिया जाता है.'

यूजी नगालैंड में काम कर रहे छापामार संगठनों के नाम का संक्षिप्त फॉर्म है. इस राज्य के लोगों की कमाई का एक अहम हिस्सा इन संगठनों को भुगतान किया जाता है.


चाहे कारोबारी हों या नौकरीपेशा कोई भी इस 'टैक्स' दायरे से बचा नहीं है

जोएल ने बताया, 'पैसा नहीं देने पर हमें अपनी जान गंवाने का खतरा होता है'. वह इन संगठनों को 'टैक्स' के तौर पर 30 हजार रुपए सालाना देते हैं. नगालैंड के लोग जबरन वसूली के तहत इन संगठनों को जो पैसा देते हैं, उसे 'टैक्स' भी कहा जाता है. चाहे कारोबारी हों या नौकरी करने वाले, छोटा या बड़ा शख्स- कोई भी इस 'टैक्स' दायरे से बचा नहीं है. यह रकम हथियार और कारतूस खरीदने के मकसद से जुटाई जाती है.

जोएल के पिता सरकारी कर्मचारी थे और वह अपनी पूरी जिंदगी इस 'टैक्स' का भुगतान करते रहे. अब इसे जारी रखने की जिम्मेदारी उन पर है. भारत के आजाद देश बनने से पहले नगा अलगाववादी संगठनों ने संप्रभु नगा राष्ट्र के लिए संघर्ष शुरू कर दिया था. 1975 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) वजूद में आया, जिसकी असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ म्यांमार के 'नगा क्षेत्रों' के एकीकरण और संप्रभुता की मांग है.

नगालैंड के दीमापुर में पिछले साल नगा विद्रोहियों द्वारा की गई हिंसा का दृश्य

भारत सरकार ने 1997 में राज्य के सबसे बड़े विद्रोही गुट नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड-इसाक-मुइवा (एनएससीएन(आईएम)) के साथ युद्धविराम समझौता किया. सरकार ने अब कुछ और ऐसे संगठनों से भी बातचीत शुरू कर दी है. बेशक यह कोशिशें सकारात्मक संकेत देती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर अब भी कुछ खास नहीं बदला है. यह संगठन अब भी वहां अपनी मर्जी के हिसाब से कुछ भी करने की हैसियत रखते हैं.

इन संगठनों को लेकर नाराजगी भरे लहजे में जोएल कहते हैं, 'ये संगठन नगा समुदाय के नाम पर शांति प्रक्रिया से समाधान की मांग कर रहे हैं. हमें पीढ़ियों से लूटने के बाद वो अब किस तरह से समाधान की मांग कर रहे हैं?' फिलहाल, सिविल सोसायटी से जुड़े संगठनों के बीच 'नगा राजनीतिक मसले' के हल को लेकर मांग बढ़ रही है. दरअसल, नगा विद्रोहियों की समस्या को नगा राष्ट्रवादी संगठनों और उत्तर पूर्व के नगा चरमपंथी संगठनों से जोड़कर देखा जाता है.

बीजेपी ने नगालैंड में जनभावनाओं को समझने में तनिक भी देरी नहीं की

इन तमाम शिकायतों के बावजूद लोथा का मानना है कि उन जैसे लोगों को कम से कम जबरन वसूली से बचाने के लिए भारत सरकार को शांति प्रक्रिया तेज करनी चाहिए. बीजेपी ने नगालैंड में जनभावनाओं को समझने में तनिक भी देरी नहीं की और केंद्र सरकार ने सिर्फ एनएससीएन (आईएम) गुट से 2015 में समझौते पर दस्तखत किए, बल्कि आगामी विधानसभा चुनावों में शांति वार्ता को अपना मुख्य राजनीतिक मुद्दा भी बनाया है.

जाहिर तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 22 फरवरी को त्वेनसांग में एक रैली में जब इस सिलसिले में बात की, तो राज्य के लोगों के तालियों की गड़गड़ाहट से इसका स्वागत किया. उन्होंने रैली में कहा था, 'मुझे भरोसा है कि अगले कुछ महीनों में नगालैंड के लोग नगा शांति प्रक्रिया का सम्मानजनक हल हासिल कर लेंगे और इसके लिए हम उन सबसे से बात कर रहे हैं, जो इस देश के लोकतंत्र में विश्वास करते हैं.'

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने त्वेनसांग में रैली करते हुए बरसों से चले आ रहे नगा समस्या का जिक्र किया

अगर बीजेपी शांति वार्ता का श्रेय लेने का दावा कर रही हो, तो क्या कांग्रेस ऐसा करने से बच सकती है? कांग्रेस ने भी श्रेय में अपनी भागीदारी के लिए दावा करना शुरू कर दिया है. फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में नगालैंड कांग्रेस के अध्यक्ष के थेरी ने कहा, 'पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बिना किसी शर्त के बागी संगठनों से बातचीत की पेशकश की थी. इसी तरह, 1996 में पी वी नरसिम्हा राव ने इसी तरह की पेशकश की. इन पेशकशों के बाद ही ये संगठन 1997 में बातचीत की मेज पर आए.'

भारत-नगा राजनीतिक समस्या के लिए शांतिपूर्ण और बिना विवाद वाला हल ढूंढना है

हालांकि, सत्ताधारी नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) श्रेय लेने के अपने दावों को लेकर अपेक्षाकृत कम आक्रामक है. नगा पीपुल्स फ्रंट के महासचिव के. जी. केन्ये ने फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत में कहा, 'नगा पीपुल्स फ्रंट का मुख्य एजेंडा भारत-नगा राजनीतिक समस्या के लिए शांतिपूर्ण और बिना विवाद वाला हल ढूंढना है. बाकी पार्टियों के लिए यह नई चीज हो सकती है. हालांकि, एनपीएफ का जन्म इसी मुद्दे के कारण हुआ. पार्टी 1963 से इस मुद्दे के पक्ष में काम कर रही है. यह भारत में एकमात्र राजनीतिक पार्टी है, जिसके संविधान में नगा राजनीतिक मुद्दे का एजेंडा है.'

इन दावों-प्रतिदावों के बीच नगालैंड के वोटर इस बात को लेकर दुविधा में नजर आ रहे हैं कि किस पर भरोसा किया जाए, खास तौर पर ऐसे वक्त में जब इस बारे में कुछ भी पता नहीं है कि शांति प्रक्रिया उन्हें कहां ले जा रही है. लोथा जनजाति के नेता म्हाओ हमतसोए कहते हैं, 'लोगों को तनिक भी अंदाजा नहीं है कि शांति प्रक्रिया किस तरह का समाधान लाने की कोशिश कर रही है. वो मांगों के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं. लिहाजा, वो इस बारे में जानना चाहते हैं.'

गौरतलब है कि नगालैंड के कई जनजातीय संगठनों ने बातचीत पूरी नहीं होने तक विधानसभा चुनाव को टालने की मांग की थी. इन संगठनों ने राजनीतिक पार्टियों से इस बाबत समझौते पर भी हस्ताक्षर करने को कहा था कि जब तक शांति प्रक्रिया के हल को लेकर सहमति नहीं बन जाती है, तब तक राजनीतिक पार्टियां कोई भी उम्मीदवार नहीं उतारेंगी. इन इकाइयों का नारा कुछ इस तरह था: 'चुनाव से पहले समाधान.'

नगालैंड की 60 विधानसभा सीटों के लिए 27 फरवरी को चुनाव होना है

इस घटनाक्रम को बीजेपी के लिए बड़े झटके के तौर पर देखा गया, क्योंकि इससे अब तक शांति को लेकर चली बातचीत पर ग्रहण लग गया था. इस नारे का मुकाबला करने के लिए बीजेपी का नारा था, 'समाधान के लिए चुनाव'. इसने इस आइडिया को पेश किया कि शांति प्रक्रिया के जरिए समाधान के लिए नगालैंड में स्थिर सरकार की जरूरत है. बीजेपी ने चुनाव को शांति प्रक्रिया के लिए संभावित राह के तौर पर पेश किया.

मौजूदा शांति प्रक्रिया पर केंद्र और राज्य दोनों सरकारें पूरी तरह ध्यान दें

राज्य में राजनीतिक स्थिरता की जरूरत के बारे में बात करते हुए बीजेपी की युवा इकाई- भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेता एम अबू ने कहा, 'हम उम्मीद करते हैं कि जनता यह सुनिश्चित करने के लिए स्थिर सरकार बनाएगी कि मौजूदा शांति प्रक्रिया पर केंद्र और राज्य दोनों सरकारें पूरी तरह ध्यान दें.'

हालांकि, सभी राजनीतिक पार्टियां लिखित वादे की बात से पीछे हट गईं और उन्होंने नामांकन दायर किया और नगा जनजातीय संगठनों के 'चुनाव से पहले समाधान' आंदोलन के कारण पैदा हुआ गतिरोध खत्म हो गया. हालांकि, क्या चुनाव वाकई में ऐसे समाधान का मार्ग प्रशस्त करेंगे, जो जोएल और उनके जैसे कई लोग चाहते हैं? जैसा कि बीजेपी ने दावा किया है, क्या इससे शांति के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए स्थिर सरकार के गठन की राह बन सकेगी? इन सवालों के जवाब भविष्य के गर्भ में छिपे हैं.