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नोट बैन ने मुलायम और मायावती को एकजुट किया

भारत में भी राजनीतिक दलों को फंडिंग और खर्च के बारे में पारदर्शी होना पड़ेगा.

सुरेश बाफना

500 और 1000 रुपए के नोट गैरकानूनी घोषित किए जाने के बाद राजनीति में भी तूफान जैसी स्थिति बन गई है. दिलचस्प बात है कि एकदूसरे के कट्टर राजनीतिक दुश्मन माने जाने वाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती इस बात पर एकमत हैं कि इन नोटों को गैरकानूनी घोषित किए जाने से आम लोगों को अनावश्यक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.

मायावती ने यहां तक कह दिया कि इस कदम से प्रधानमंत्री ने देश में आर्थिक आपातकाल लगा दिया है. उनके अनुसार देश की 99 प्रतिशत जनता इस कदम का विरोध कर रही है.


वहीं मुलायम सिंह यादव ने कहा कि यह कार्रवाई उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर की गई है. साथ में यह भी कहा कि इससे जनता की परेशानियां बढ़ गई हैं. वे चाहते हैं कि शादी के मौसम को ध्यान में रखते हुए इस निर्णय को एक सप्ताह के लिए टाल दिया जाए.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी मोदी सरकार के निर्णय को जनता विरोधी बताते हुए तुरंत वापस लेने की मांग कर दी. ममता दीदी का पॉपुलरिज्म इतने चरम पर पहुंच गया है कि उनके लिए काला धन कोई समस्या नहीं है.

मुलायम सिंह यादव ने बार-बार ये दोहराया कि समाजवादी पार्टी हमेशा ही काले धन के खिलाफ लड़ती रही है, लेकिन मायावती ने यह कहना भी जरूरी नहीं समझा कि बसपा काले धन के खिलाफ है.

मुलायम एक तरफ कहते हैं कि यह निर्णय उत्तर प्रदेश चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है और दूसरी तरफ कहते हैं कि इससे आम लोगों को भारी दिक्कत हो रही है.

यदि आम लोगों को भारी दिक्कत हो रही है तो सपा व बसपा को खुश होना चाहिए कि विधानसभा चुनाव में लोग भाजपा के खिलाफ वोट देकर अपनी नाराजगी का इजहार करेंगे.

सपा और बसपा दोनों ही क्षेत्रीय दल हैं, जिनका राष्ट्रीय फलक सीमित है. वे लोगों की फौरी दिक्कतों को मुद्‍दा बनाकर सहानुभूति अर्जित करने की कोशिश कर रहे हैं. इस निर्णय के दूरगामी नतीजों में उनकी कोई रुचि नहीं है.

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि लगभग सभी राजनीतिक दल चुनाव में काले धन का इस्तेमाल करते हैं. सपा और बसपा के संभावित उम्मीदवारों ने भी चुनाव खर्च के लिए अज्ञात स्रोतों से धन जमा किया होगा, जो मोदी सरकार के निर्णय के बाद रद्दी की टोकरी में फेंकना पड़ेगा. इस समस्या का सामना भाजपा के भी कई संभावित उम्मीदवारों को करना पड़ेगा.

आश्चर्य की बात यह है कि आप पार्टी को छोड़कर कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जो राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी बनाने की मांग कर रहा है. चुनाव आयोग से प्राप्त तथ्यों से यह भी स्पष्ट हुआ है कि कई फर्जी राजनीतिक दल बनाए गए हैं, जो काले धन को सफेद बनाने की मशीन के तौर पर काम करते हैं.

देश को यदि काले धन से मुक्ति दिलाना है तो चुनाव फंडिंग को सबसे पहले साफ-सुथरा व पारदर्शी बनाए जाने की जरूरत है. अमेरिका और पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी राजनीतिक दलों को फंडिंग और खर्च के बारे में पारदर्शी होना पड़ेगा.

मोदी सरकार से यह उम्मीद है कि वे इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए सबसे पहले भाजपा को मिलनेवाले धन और खर्च को वेबसाइट पर उपलब्ध कराने का निर्णय लें. यदि भाजपा पहल करेगी तो अन्य दलों पर भी दबाव पड़ेगा कि वे फंडिंग और खर्च को सार्वजनिक करें.