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मुकुल रॉय का जाना टीएमसी की हार से ज्यादा बीजेपी की जीत!

रॉय का इस्तीफा पूरब में आक्रामक तरीके से पैर पसारने की बीजेपी की रणनीति से मेल खाता है

Sreemoy Talukdar

तृणमूल कांग्रेस वर्किंग कमेटी से मुकुल रॉय के इस्तीफे को ममता बनर्जी के लिए बड़ा झटका बताने वाली व्याख्या किसी प्रलोभन से कम नहीं है. इसकी वजह को लेकर रॉय सोमवार को मौन रहे. उन्होंने ये नहीं कहा कि वो दूसरी पार्टी में जाएंगे या फिर अपनी पार्टी बनाएंगे. उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि वो राज्य सभा से इस्तीफा, पार्टी की प्राथमिक सदस्यता छोड़ने और इस फैसले की वजहों के खुलासे के लिए दुर्गापूजा के खत्म होने का इंतजार करेंगे.

हालांकि टिप्पणीकारों ने जल्दबाजी दिखाते हुए रॉय के बीजेपी से कथित रिश्तों की ओर इशारा किया. उन्होंने अगले साल पंचायत चुनाव से पहले इसे टीएमसी के लिए बड़ा झटका बताया. शायद यह स्थिति का गलत आकलन है. बंगाल की राजनीति को करीब से देखने वाले जानते थे कि रॉय को पार्टी छोड़नी ही थी और ये सत्ताधारी दल पर भारी असर नहीं डालती है. इसलिए टीएमसी ने वरिष्ठ नेता को पार्टी विरोधी गतिविधियों और पार्टी को भीतर से कमजोर करने की कोशिश के आरोप में छह साल के लिए निलंबित कर दिया. टीएमसी ने मांग रखी कि त्योहार खत्म करने का इंतजार करने की बजाए रॉय तुरंत राज्य सभा से त्यागपत्र दें.


बेशक, रॉय का इस्तीफा पूरब में आक्रामक तरीके से पैर पसारने की बीजेपी की रणनीति से मेल खाता है. इस काम में टीएमसी के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव बीजेपी को मजबूती दे सकते हैं जिसका उसे बेसब्री से इंतजार है.

बंगाल बीजेपी में सबसे बड़ी कमी असरदार नेता का नहीं होना है

अपने सभी हालिया लाभों और मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभार के बावजूद भगवा पार्टी को तृणमूल कांग्रेस के अधिपत्य को चुनौती देने के लिए लंबा रास्ता तय करना है. बंगाल बीजेपी इकाई में कई कमियां हैं. सबसे बड़ी कमी असरदार नेता का नहीं होना है. एक ऐसा नेता जो सरकार विरोधी भावना को हवा दे सके और ममता बनर्जी की घोर अल्पसंख्यकवाद (कोर्ट भी इस पर फटकार चुका है) की नीति के खिलाफ गुस्से को पार्टी के पक्ष में कर सके. बीजेपी को ये ध्यान रखना होगा कि बंगाली उससे नाराज न हो क्योंकि इनमें से अधिकतर हिंदुत्व की राजनीति को अपनी संस्कृति के बरक्स ‘पराया’ मानते हैं. शायद रॉय इसी खालीपन को भर सकते हैं.

टीएमसी के पूर्व उपाध्यक्ष को एक वक्त पार्टी में अघोषित नंबर दो माना जाता था. उन्हें ममता का अहमद पटेल बताना अतिशयोक्ति नहीं थी. उनकी सूझबूझ, सांगठनिक क्षमता और ‘चुनाव प्रबंधन’ योग्यता को खासी तवज्जो मिली. कहा जाता है पार्टी को खड़ा करने, टीएमसी के उत्थान और सरकारी मशीनरी को चलाते रहने में उनकी भूमिका ममता के मुकाबले कहीं कम नहीं थी.

ये सब काफी कुछ कहता है. लेकिन ये गुजरे जमाने की बात है. साल 2015 से पार्टी से भीतर-बाहर होने के बाद मौजूदा वक्त में उनका रुतबा बहुत कम हो गया है. टीएमसी के अंदरुनी क्रियाकलापों पर उनके असर को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है. उन्हें योजनाबद्ध तरीके से हाशिए पर डाला गया और पार्टी के सभी अहम पदों से हटा दिया गया. इस स्थिति में विद्रोह होना ही था.

पार्टी में उनकी स्थिति अनिश्चित से असहनीय हो गई. ममता ने उनके खिलाफ कई फैसले किए. सबसे पहले इस साल अगस्त में उन्हें परिवहन, पर्यटन और संस्कृति से जुड़ी संसदीय स्थाई समिति के अध्यक्ष पद से हटाया गया. ये पद टीएमसी के राज्य सभा में नेता देरेक ओब्राईन को दिया गया. इसके बाद उन्हें गृह मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति से हटाया गया. यहां उनकी जगह मनीष गुप्ता को लाया गया. कुछ दिन पहले रॉय को पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद से भी विदा कर दिया गया क्योंकि बदलाव के बाद ममता बनर्जी ने इस पद को खत्म कर दिया.

पूर्व रेल मंत्री सिर्फ टीएमसी वर्किंग कमेटी के सदस्य रह गए. इसी पद से सोमवार को उन्होंने इस्तीफा दिया.

पार्टी में वापस लौटने के बाद भी दोबारा विश्वास हासिल नहीं कर पाए

बीजेपी के शीर्ष नेताओं से रॉय की कथित नजदीकियां इसका मुख्य कारण हो सकती हैं. लेकिन ये कहना मुश्किल है कि बीजेपी की तरफ उनकी पहल टीएमसी से उनके अलगाव का कारण बनी या पार्टी में पराया महसूस होने के बाद भगवा खेमे की तरफ उनका झुकाव बढ़ा. संभावना ये है कि 2015 में ममता बनर्जी का विश्वास खोने के बाद- जब उन्होंने शारदा चिटफंड घोटाले में सीबीआई की पूछताछ में मदद की थी- रॉय दोबारा ये विश्वास हासिल नहीं कर पाए, जबकि पिछले ही साल उन्हें धूमधाम से पार्टी में वापस लिया गया था.

रॉय को अपने पाले में करने की बीजेपी की कोशिशें रहस्य नहीं हैं. एक हालिया न्यूज कांफ्रेंस में बीजेपी के राज्य अध्यक्ष ने इस ओर इशारा किया था.

सोमवार को इस्तीफे से पहले हुए घटनाक्रम पर गौर करना जरूरी है. रविवार को रॉय निलंबित टीएमसी सांसद कुणाल घोष के दुर्गा पूजा पंडाल के उद्घाटन पर नजर आए और उन्होंने मूर्ति विसर्जन से विवाद पर ममता बनर्जी को खरीखोटी सुनाई. हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक राय ने कहा: 'कोई भी व्यक्ति बंगाल के उदारवादी चरित्र और अल्पसंख्यकों के प्रति उसके उदार दृष्टिकोण की रक्षा के श्रेय का दावा नहीं कर सकता है.'

मुमकिन है बीजेपी में शामिल होंगे

ऐसा लगता है कि रॉय अनुशासित होने की कगार पर थे- टीएमसी सुप्रीम किसी तरह ही असहमति बर्दाश्त नहीं कर सकती- और सोमवार को उनकी न्यूज कांफ्रेंस स्पष्ट रूप से टीएमसी की अनुशासनात्मक कार्रवाई की हवा निकालने की कोशिश थी.

उन्होंने सोमवार के न्यूज कांफ्रेंस मे बार-बार ये कहा कि वो पूजा के बाद पूरी तरह इस्तीफे का एलान करेंगे क्योंकि, 'बंगाली पूजा में इतने मगन हैं कि वो राजनीति के बारे में चिंता नहीं कर सकते.' एक तरह से ये स्वीकार करना था कि उनके हाथ बंधे हैं. जो व्यक्ति राजनीति में सटीक समय के लिए जाना जाता है उसने एक महत्वपूर्ण घोषणा के लिए गलत वक्त चुन लिया. मुमकिन है कि वो शायद बीजेपी में शामिल हो जाएं लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या इसका वैसा असर होगा, जिसकी उम्मीद उनके समर्थक लगाए बैठे हैं.