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देश मान चुका, मीडिया भी मान ले 'तुमसे न हो पाएगा, राहुल'

मोदी को हटाने के लिए भारतीय राजनीति में भी विराट जैसा कोई चाहिए.

Bikram Vohra

राहुल गांधी विदेश में अपने ‘गुप्त’ प्रवास से वापस आ गए हैं. जाने से पहले राहुल ने काफी उठापटक की. उनके गुस्से को देखकर लग रहा था कि देश बर्बादी की कगार पर खड़ा है. केवल राहुल ही हैं जो भारत का विनाश रोक सकते थे.

इस बीच राहुल को छुट्टी मनाने जाना पड़ा. देश को ऐसे हालात में छोड़कर जाना राहुल के लिए काफी तकलीफदेह रहा होगा. उनकी छुट्टियां खत्म हो गईं लेकिन दस दिन में देश तबाह नहीं हुआ. इतना ही नहीं देश तो अपने गति से चल भी रहा है.


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अफसोस की बात तो यह है कि राहुल का जाना देश को नहीं अखरा. किसी ने राहुल के गायब होने को कोई तवज्जो भी नहीं दी. जिन्होंने राहुल के बारे में बात की उन्हें इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ा कि वो कहां गए हैं. घूमने-फिरने या फिर जहां उन्हें अपनापन लगता है वहां.

नूडल से ताला खोलने की कोशिश

राहुल के लिए मीडिया का पागलपन जाता नहीं.

आपको याद होगा पिछले साल जब राहुल गांधी गायब हुए थे. मीडिया ने राहुल को हर गली-कूचे में ढूंढ़ा. मीडिया ने राहुल के इस रोमांच का मजा दोगुना कर दिया था. उन्हें खूब प्रचार मिला.

Source: AICC

इस बार भी मीडिया ने ऐसा ही कुछ माहौल बनाने की कोशिश की थी. खासकर तब, जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे वक्त में राहुल क्या करेंगे?  लेकिन राहुल तो मैदान छोड़कर भाग गए. नोटबंदी की विफलता के बीच मोदी को सबक सिखाने का मौका भी इस महान विपक्षी नेता ने गंवा दिया.

देश की समस्या से छुटकारा पाने के लिए राहुल गांधी की जरुरत वैसी ही है जैसे ताला खोलने के लिए गीले नूडल का इस्तेमाल करना. उनका असर भी केवल मीडिया तक ही सीमित है.

मीडिया गांधी परिवार की आसक्ति से उबर नहीं पा रहा है. जबकि देश बहुत पहले ही इस परिवार को भुला चुका है. मीडिया बार-बार गांधी परिवार को राजनीतिक शक्ति की तरह स्थापित करने पर तुला है. हकीकत यह है कि गांधी परिवार मीडिया के कैमरों और प्रचार-प्रसार के दूसरे तरीकों तक ही सिमट कर रह गया है.

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2015 की शुरुआत में तो यह हथकंडा काम कर गया था. टीवी के टॉक शो पर कुछ कबूतर गुटरगूं करते रहते. पकाऊ एंकर उनसे राहुल के गायब होने को लेकर गरमा-गरम बहस भी करते. बनावटी अंदाज में सफेद झूठ बोलने का सिलसिला कुछ ही दिन चला.

कुछ दिनों तक टीआरपी बटोरी गई. अखबारों ने संपादकीय लिख डाले. राहुल के आसपास बने आभामंडल को इन्होंने खूब चमकाया. हमें पसंद हो या न हो. मीडिया ने बार-बार हमें यह बताया कि राहुल गांधी राजनीति के चमकते सितारे हैं.

हालांकि गांधी परिवार के लिए हमारी उदासीनता ने कुछ हद तक मीडिया की आंखे खोल दी हैं.

मीडिया की मजबूरी क्या है

इस बार भी मीडिया ने ऐसी ही कोशिश फिर की. लेकिन उसकी हसरत पूरी नहीं हो सकी. इस बार किसी ने उसे भाव नही दिया.

वापस आकर राहुल गांधी ने अगर किसी से पूछा होगा कि क्या उनकी कमी महसूस की गई. तो उन्हें यह जवाब मिलना चाहिए, ‘अरे.. आप कहीं गए थे क्या? हमें लगा ही नहीं कि आप यहां नहीं है.’  इस जवाब से राहुल गांधी हैरान तो जरूर होंगे.

देश के पूर्व ‘प्रथम परिवार’ को इतना भाव देने के लिए मीडिया पूरी तरह से दोषी नहीं है. मीडिया को ऐसे ढाला ही गया है कि उसका दिमाग कुंद हो जाए. उसे इस परिवार के अलावा कुछ नजर ही नहीं आता. और पुरानी आदतें इतनी आसानी से नहीं जातीं.

केंद्र पर बीजेपी की मजबूत पकड़ है. मुख्य विपक्षी दल के पास उसे कमजोर करने के लिए कोई ठोस रणनीति भी नहीं है. लिहाजा वो राहुल के गायब होने और आने पर ही खबरों आता है. शायद यही उसकी रणनीति है. मीडिया को राहुल गांधी पर फोकस करना पड़ता है. फिर चाहे कोई उन्हें देखना चाहे या नहीं.

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महेंद्र सिंह धोनी को हटाकर विराट कोहली को भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनाया गया है. मोदी को हटाने के लिए भारतीय राजनीति में भी विराट जैसा कोई चाहिए.

हमारे सामने मीडिया कांग्रेस के कप्तान को ऐसे ही परोसती रहेगी और हमें इसी विडंबना के साथ जीना पड़ेगा.