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क्या मोदी पर विपक्ष ‘अपरिपक्व’ राजनीति की शिकार है?

मोदी पर विपक्ष की राजनीति उसकी अपरिपक्वता की पहचान बनती जा रही है.

Kinshuk Praval

नरेंद्र मोदी जब से सत्ता में आए तो उनकी वजह से एक काम जरूर होता आया है. सिर्फ मोदी के नाम पर विपक्ष एक हो जाता है. जब कांग्रेस सत्ता में थी तब ये आरोप लगता था कि उसके सामने मजबूत विपक्ष ही नहीं है. क्योंकि अधिकतम मजबूत दल यूपीए से भीतर-बाहर से जुड़े थे.

लेकिन जबसे बीजेपी की सरकार है तो एक मजबूत विपक्ष हर मोर्चे पर ताल ठोंकने के लिए तैयार है. लेकिन हर बात पर विरोध की नीति उसके राजनीतिक अपरिपक्वता की पहचान भी बनती जा रही है.


साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सियासी दलों की मोदी विरोध की रणनीति साफ दिखाई पड़ी. कोई भी दल ऐसा नहीं था जिसने पीएम उम्मीदवार को लेकर खौफ, संशय और नफरत न बेची हो. यहां तक कि खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मोदी के पीएम बनने से रोकने के लिए देश से अपील की थी. देश में दो लहरें समान रूप से बह रही थीं.

एक मोदी लहर तो दूसरी मोदी विरोध की लहर. मोदी विरोध की लहर पर ही सवार हो कर केजरीवाल बनारस पहुंच गए. उन्हें बदगुमानी थी कि जिस तरह शीला दीक्षित का हश्र हुआ तो वही अंजाम बनारस में भी होगा.

जनता का मूड सब पर भारी 

लेकिन बनारस की जनता देश के मूड के हिसाब से अपना फैसला पहले ही कर चुकी थी. केजरीवाल दिल्ली मायूस लौटे और कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता छोड़नी पड़ी.

एक बार बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन तैयार हुआ . जिसने साबित कर दिया कि राजनीति में अवसरवादिता ही दोस्ती और दुश्मनी कराती है. एक मंच पर लालू-नीतीश आ गए. महागठजोड़ जातीय गणित के चलते मोदी विरोध को भुना गया. बिहार में बीजेपी की हार हो गई.

फिर यूपी के चुनावी घमासान से ऐन पहले पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल खड़े किये गए. पीएम मोदी और रक्षा मंत्री पर सवाल दागे गए. विपक्ष के सुर एक से थे. विपक्ष के सवालों से सेना के मनोबल पर भी असर पड़ सकता था. लेकिन राजनीति अब हद से गुजर जाने का नाम भी है.

नोटबंदी के खिलाफ विपक्ष एक

अब नोटबंदी के फैसले के खिलाफ विपक्ष एकता दिखा रहा है. ममता बनर्जी ने तो ये तक कह दिया कि वो देश बचाने के लिये सीपीएम से हाथ मिलाने को तैयार हैं. केजरीवाल ने नोटबंदी के फैसले को सबसे बड़ा घोटाला करार दिया है.

राहुल गांधी 4 हजार रुपए निकालने के लिये कतार में खड़े हो गए. मार्क्सवादी पार्टी की मांग है कि जबतक एटीएम और बैंकों में नए नोटों की आपूर्ति बहाल नहीं हो जाती तब तक नोटबंदी के फैसले को रोका जाए.

केरल के सीएम पिनाराई विजयन की मांग है कि आम लोगों की परेशानी को देखते हुए पांच सौ और हजार के नोटों को 30 दिसंबर तक मान्य किया जाए.

बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने नोटबंदी के फैसले को आर्थिक आपातकाल करार दिया है.राजनेताओं का सरकार पर आरोप है कि उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया. वित्तमंत्री अरुण जेटली का कहना है कि गोपनीयता बरतना जरुरी थी.

पीएम मोदी ने बताया कि इस सीक्रेट ऑपरेशन की शुरुआत दस महीने पहले हो गई थी. ऐसे में आपातकाल का आरोप लगाने वाली मायावती भी यह जान लें कि इंदिरा ने भी गोपनीयता से गुरेज नहीं किया था.

आज से 41 साल पहले साल 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आधी रात को आपातकाल की घोषणा की थी तब उन्होंने भी इतने बड़े फैसले को गोपनीय तरीके से लागू किया था. इंदिरा ने भी रात में अपनी कैबिनेट को आपातकाल के बारे में भनक नहीं लगने दी थी.

राजनीतिक इतिहास का हिस्सा है गोपनियता

सुबह केवल आधे घंटे की कैबिनेट बैठक में आपातकाल की जानकारी दी गई थी. खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा के कठोर फैसले लेने के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन्हें दुर्गा का अवतार बताया था जो एक राजनीतिक मिसाल थी. इंदिरा के इमरजेंसी लागू करने के फैसले में गोपनीयता भी थी और आपातकाल की मंशा भी लेकिन राष्ट्रीयता नहीं थी.

लेकिन आज नोटबंदी का फैसला उसी तरह राष्ट्रीयता से जुड़ा है जिस तरह स्वच्छ भारत अभियान, गंगा की शुद्धिकरण और सेल्फी विद डॉटर कैंपेन से.

पीएम मोदी वही कर रहे हैं जो उन्होंने चुनाव के वक्त कहा था. न खाऊंगा और न खाने दूंगा. दो साल हो चुके हैं और अब तक केंद्र सरकार पर करप्शन का कोई दाग नहीं लगा है.

यह मोदी सरकार की पहली बड़ी जीत है जिसका राजनीतिक फायदा बीजेपी मौका आने पर जरूर उठाएगी.

मोदी का यह स्टाइल है कि वो बड़े काम को किसी इवेंट में बदल देते हैं और उसे राष्ट्रीयता से जोड़ देते हैं. या फिर ये माना जाए कि उन्हें विरासत में राष्ट्रीयता के वो मुद्दे मिले हैं जो बरसों से धूल खा रहे थे जिनकी राजनीतिक पार्टियों को कभी जरूरत नहीं पड़ी.

नकली नोट का गोरखधंधा

ग्लोबलाइजेशन के दौर में देश आर्थिक आतंकवाद की चपेट में है. पांच सौ और हजार के नोटबंदी की मांग पहले से उठ रही थी. क्योंकि इनके नकली नोट करोड़ों की तादाद में पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से आ रहे थे. जो देश को आर्थिक नुकसान पहुंचा रहे थे.

नोटबंदी के फैसले से देश भर में फैले जाली नोट पर रोक लगेगी तो छिपाया हुआ काला धन बेकार हो जाएगा. हवाला के जरिए पैसों के लेनदेन पर रोक लगेगी. आतंकवाद की फंडिंग पर असर पड़ेगा. ड्रग्स और हथियार के कारोबार पर रोक लगेगी तो साथ ही भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी में कमी आएगी.

सवाल यह है कि आखिर मायावती के मुताबिक इस आर्थिक इमरजेंसी में केजरीवाल के आम आदमी कहां प्रभावित हो रहे हैं ?

क्या देश का आम आदमी आतंकवाद, हवाला, नकली नोट के कारोबार में लिप्त है ? आम आदमी खुद भ्रष्टाचार और कालेधन से त्रसत है. उसी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का हवाला दे कर दिल्ली में केजरीवाल सरकार बना पाए तो यूपी में अखिलेश यादव मायावती को सत्ता से हटा पाए.

ये वही भ्रष्टाचार है जिसके आरोपों के चलते कांगेस को साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में पचास सीटें भी नहीं मिल सकीं.

नोटबंदी पर आरोप लगाने वाली सियासी पार्टियां ये भूल रही हैं कि 8 नवंबर में रात 8 बजे के एलान के साथ ही चार घंटे में 200 किलो सोना बिक गया. हड़कंप मच गया. जाहिर तौर पर इसका असर वैसे ही लोगों पर पड़ा और पड़ना तय है जिनके पास अकूत काला धन है.

आम आदमी कम गुजारे में भी काम चला लेता है इसलिये उसको उकसा कर अपना राजनीतिक फायदा उठाने का फॉर्मूला 80 के दशक की फ्लॉप फिल्मों सा है.

राजनीति के चश्मे से मोदी के हर मूव को देखने वाले ये भूल कर रहे हैं कि ये फैसला सामाजिक भी है.

आर्थिक बराबरी के लिये भी ये फैसला आने वाले वक्त में मील का पत्थर साबित हो सकता है.करप्शन का विरोध करने वाली पार्टियां जिस तरह से मोदी के फैसले का विरोध कर रही हैं ये साल 2014 के लोकसभा चुनाव का फ्लैशबैक सा ही दिखाई दे रहा है.

पार्टियों का बार बार विरोध उनकी अपरिपक्वता को सामने ला रहा है और जनता के भीतर संशय पैदा कर रहा है.

राजनीति में विचारधाराओं के मतभेद हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिविशेष का विरोध ज्यादा नहीं ठहरता है. नेहरू ये जानते थे कि अटल उनके विरोधी हैं. इसके बावजूद नेहरू संसद में सिर्फ इसलिये मौजूद रहते थे ताकि वो अटल जी का भाषण सुन सकें.

सियासत की ही ये खूबसूरती थी कि अटल जी ने इंदिरा को दुर्गा का अवतार बताया. राजनीति की ही ये परिपक्वता थी कि अटल जी को सियासत का अजात शत्रु कहा गया.

बहरहाल आज के दौर में आर्थिक आतंकवाद से निपटने के लिये सियासत के फिदायीन दस्तों से बचना भी बड़ा सवाल है. मोदी एक बड़ा कदम उठा चुके हैं . अगर ये दु:साहस है तो नोटबंदी के दु:साहस के लिये भी तो साहस चाहिए न.