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गुजराती तो हैं लेकिन मोरारजी देसाई नहीं हैं नरेन्द्र मोदी

1978 और और 2016 में जमीन आसमान का फर्क है.

Ajay Singh

हम इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो पाएंगे कि भारत में बड़े नोटों को चलन से हटाने का गुजरात और वहां के राजनेताओं से गहरा संबंध है. मोदी से पहले 1978 में मोरारजी देसाई सरकार ने 1000, 5000 और 10000 को चलन से वापस लिया था. मोरारजी सरकार में तब वित्त मंत्रालय की कमान भी गुजरात के ही एक सख्त नौकरशाह हरिभाई पटेल के पास थी.

हरिभाई ने भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ लंबे समय तक काम करने का अनुभव था. उनके काम करने के तरीके की वजह से प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के साथ भी तालमेल बढ़िया था.


आज के गुजरात और महाराष्ट्र को मिलाकर तब बॉम्बे एक राज्य हुआ करता था. इस बॉम्बे के मुख्यमंत्री रहते हुए देसाई और हरिभाई ने नौकरशाह की तरह काम करते हुए गुजरातियों की पसंद नापसंद से अच्छी तरह वाकिफ थे. नगदी के प्रति भी गुजरातियों का प्रेम जानते हुए भी इन दोनों ने 1978 में बड़े नोटों को वापस लेने का फैसला किया था.

उदार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पक्ष रखने के बावजूद मोरारजी देसाई राजनीति में मूल्यों को लेकर बेहद सख्त थे. वे भ्रष्टाचार और राजनीति के खिलाफ थे. हरिभाई पटेल की सलाह पर मोरारजी ने 1000 रुपए से ज्यादा के नोट चलन से बंद करने का फैसला लिया.

हालांकि 1978 और और 2016 में जमीन आसमान का फर्क है. उस जमाने में बड़े नोटों तक लोगों की पहुंच कम हुआ करती थी. मध्यवर्ग भी तब इतना बड़ा और प्रभावशाली नहीं था. इस वर्ग की आय भी सीमित थी.

उस जमाने में अधिकतर बड़े नोट व्यापारियों के पास पाए जाते थे. कानपुर जैसे शहरों से व्यापारियों के भारतीय मुद्रा को रद्दी की तरह इस्तेमाल करने की खबरें आए दिन सुनने को मिलती रहती थीं. बड़े नोट वैसे ही कम मात्रा में उपलब्ध होते थे, लिहाजा ऐसी खबरें अखबारों की हेडलाइन बन जाती थीं.

इसे ध्यान में रखते हुए आज के हालातों पर नजर डालें तो फर्क साफ नजर आएगा. 500 और 1000 के चलन में पहले से कहीं ज्यादा था. देश के किसी भी एटीएम से सबसे ज्यादा 500 और 1000 के ही नोट निकलते थे. ये नोट निकलते भी इतने ज्यादा कि वक्त के साथ छोटे नोट चलन से गायब होने की कगार पर आ गए. आसानी मिलने वाले इन नोटों तक समाज के हर तबके की पहुंच थी और यह सभी के पास आसानी से मिलने लगे थे.

लेकिन इतनी आसानी से मिलने वाले इन नोटों से खतरे भी हैं. इसने आतंकवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में मुख्य भूमिका निभाई. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने मौके का फायदा उठाकर बड़ी संख्या में जाली नोट भारत में भेजे. इससे कट्टरता और आतंकवाद को पोषण मुहैया कराया गया.

बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल और पूर्वात्तर राज्यों में जाली नोट से भरे बैग भी भारतीय सीमा पार फेंके जाने के कई मामले सीबीआई की नजर में आए हैं. इससे भारत में घुसपैठ को फंड किए जाने के मामले भी सामने आए हैं. जाली नोटों का कारोबार इतना फैल चुका था कि इस तरह का कोई ठोस कदम उठाए बगैर इसे रोक पाना नामुमकिन था.

काले धन का असर भारतीय राजनीति पर कितना गहरा था इसका अंदाजा आपको अमेरिकी दूतावास से भेजे गए एक संदेश से लगा सकते हैं. इस तार संदेश में वाशिंगटन को दूतावास के एक कर्मचारी ने बताया कि उसे नगदी से भरे हुए कई डब्बे दिखाए गए थे. यह नगदी कथित तौर पर सांसदों को घूस के रुप में दी जानी थी.

मनमोहन सरकार में ही वोट के बदले नोट का मामला भी सामने आया था. संसद के अंदर नोटो से भरे बैग पहुंचे थे और सदन में नोटो की गड्डियां लहराई गईं थी.

पुष्ट सूत्रों के हवाले से यह बात भी सामने आई थी कि बोरों और सूटकेसों में भरे घूस के पैसे गिनने के लिए नोएडा और लखनऊ में राजनीतिक दलों से जुड़े दलालों को मशीन लगानी पड़ी थी. नोएडा के चीफ इंजीनियर यादव की गिरफ्तारी भी इसी तरह के भ्रष्टाचार का एक नमूना है.

वर्तमान राजनीतिक हालातों में मोदी सरकार का यह कदम दिलेर ही माना जाएगा. कुछ बड़े राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले इसे ऐसा दांव माना जाएगा जो उल्टा भी पड़ सकता है.

भाजपा भी कोई दूध की धूली पार्टी नहीं है. उसे भी चुनाव लड़ने के लिए पैसों की जरुरत होगी. लेकिन अब उसे फंड इकट्ठा करने में मुश्किल हो सकती है.

गुजरातियों का नगदी प्रेम किसी से छिपा नहीं हैं. सरकार का यह फैसला वहां अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है.

प्रधानमंत्री को अपने गृह राज्य काम करने वाले धन्नासेठों के विरोध का सामना करना होगा. लेकिन यह कोई पहला मौका नही है जब नरेन्द्र मोदी उनसे दो-दो हाथ करेंगे. इनसे कैसे निपटा जाता है उन्हें अच्छी तरह मालूम है.

1978 से 2016 में काफी कुछ बदल चुका है. तब चरण सिंह जैसे क्षत्रपों का जनता सरकार में काफी दबदबा था. मोरारजी से उलट मोदी किसी से दबने वाले नहीं है. नरेन्द्र मोदी भारतीय राजनीति में मोरारजी से कहीं ज्यादा व्यावहारिक और ताकतवर हैं.