view all

मॉब लिंचिंग: 'डिवाइड एंड रूल का सबसे तात्कालिक और नया हथियार'

आशीष नंदी का कहना है कि राष्ट्रवाद और गौरक्षा जैसी भावनाओं को नुकीला बनाया जा रहा है ताकि लोग आपस में लड़ें

Swati Arjun

जब हम छोटे थे तो तेज आंधी या तूफान में अक्सर खुद को संभाल नहीं पाते थे. हमें लगता कि वो तेज आंधी अपने साथ छतों पर लहराते झंडों, खपरैल छतों, पेड़ की टहनियों के साथ हमें भी अपने साथ उड़ा कर ले जाएगी.

तब हमारे बड़े बुज़ुर्ग हमसे कहा करते कि- जब भी ऐसी तेज आंधी या तूफान आए तो समूह में रहना- दस-पंद्रह लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, किसी एक जगह पर जमीन पर बैठ जाना. आंधी गुजर जाएगी और समूह आपको सुरक्षा देगा.


लेकिन आज जिस तरह से समूह एक उन्मादी भीड़ में तब्दील होता जा रहा है उससे हमारे भीतर सुरक्षा कम, डर की भावना बैठती जा रही है. भीड़ अपने एक अलग किस्म के तंत्र का निर्माण कर रही है- जिसे आसान भाषा में हम भीड़तंत्र भी कह सकते हैं.

ये एक ऐसा तंत्र है जिसकी न तो कोई विचारधारा है न ही कोई सरोकार. वो कहीं भी किसी भी बात पर आक्रामक हो जाती है और जिस किसी से भी उसको नफरत या घृणा होती है वो उसे उसी वक्त सजा देने का फैसला कर देती है. अक्सर ये सजा रंग-रूप और बर्ताव में बर्बर होती है.

हाल-फिलहाल के दिनों में उन्मादी भीड़ ने एक के बाद एक कई इंसानों की जान ले ली है. इसकी शुरुआत पिछले साल नोएडा के बिसहड़ा गांव में मोहम्मद अखलाक की हत्या से हुई. अखलाक को घर में गौमांस रखने का आरोप लगाकर पीट-पीट कर मार दिया गया.

ईद से पहले हरियाणा के बल्लभगढ़ में 16 साल के जुनैद की हत्या ट्रेन में सीट को लेकर हुई एक मामूली विवाद में कर दी गई. जुनैद दिल्ली के चांदनी चौक से ईद की खरीदारी कर अपने भाइयों के साथ लौट रहा था.

इससे पहले कश्मीर में सुरक्षा अधिकारी मोहम्मद अयूब पंडित को स्थानीय लोगों ने निर्वस्त्र कर पीट-पीट कर इसलिए मार डाला क्योंकि वो मस्जिद के बाहर लोगों की तस्वीर खींच रहे थे.

सिर्फ 10 दिन पहले राजस्थान के प्रतापगढ़ में सरकारी म्युनिसिपल काउंसिल कर्मियों ने एक मुसलमान कार्यकर्ता जफर हुसैन की लात-घूसों से मारकर हत्या कर दी. जफर ने अधिकारियों को खुले में शौच कर रही महिलाओं की तस्वीर खींचने से रोका था.

ऐसा ही कुछ झारखंड के जमशेदपुर में हुआ जहां बच्चा चोर की अफवाह उड़ाए जाने के बाद छह लोगों की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी. इस घटना में दो दर्जन से ज्यादा स्थानीय लोगों को नामजद किया गया.

आशीष नंदी

जाने-माने सामाजिक मनोवैज्ञानिक अशीष नंदी से जब हमने इस बारे में बात की तो उनका कहना था, 'ये एक बहुत ही लंबा और गहरा सवाल है जिसका जवाब देना आसान नहीं है. इस तरह की विकृति विज्ञान पर अमेरिका में भी लगातार पढ़ाई की जा रही है क्योंकि वहां भी ऐसी घटनाएं सामने आई हैं. लेकिन मैंने ये उम्मीद नहीं की थी कि 21वीं सदी की भारत में ऐसी घटनाएं सामने आएंगी. मेरी जानकारी में हमारे देश में जो अंतिम बार इस तरह की मॉब लिंचिंग हुई थी वो 1950 में हुई थी.'

वो बताते हैं, 'इस समय इन घटनाओं में बढ़ोतरी होने की वजह लोगों के मन में बसा गुस्सा है. वो गुस्सा किस बात पर है ये मायने नहीं रखता. लोग गुस्से में हैं, नाराज हैं और हताश हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं है कि ऐसा क्यों है. अगर आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि जितनी भी घटनाएं हुई हैं वहां जो पीड़ित है उसे आकस्मिक चुनाव हुआ है. लोग पहले गुस्सा होते हैं फिर अपना टारगेट ढूंढते हैं.'

अशीष नंदी के मुताबिक, 'इस समय देश में विभिन्न गुटों को आपस में लड़वाने की कोशिश की जा रही है. राष्ट्रवाद, गौरक्षा जैसी भावनाओं को नुकीला बनाया जा रहा है ताकि लोग आपस में लड़ें और राजनीतिक दल उनपर राज करें. ये शुद्ध रूप से डिवाडड एंड रूल का प्रयास है.'

एक सोशल साइकोलॉजिस्ट के तौर पर मैं चाहुंगा कि सरकार इस प्रवृत्ति पर गंभीर चिंतन करें और जरूरी कदम उठाए. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मौजूदा सरकार इसके लिए तैयार होगी. उन्हें लगता है कि ये इक्का-दुक्का होने वाली मामूली घटनाएं हैं जिन्हें भुला दिया जाना चाहिए लेकिन मेरे हिसाब से ये न सिर्फ एक गंभीर मामला है बल्कि समाज में फैल रही बीमार मानसिकता है.'

कवि, आलोचक अशोक वाजपेयी कहते हैं ये हमारे समाज में उभरने वाली नागरिकता का बहुत ही भयानक अक्स है. नागरिक अपने हाथ में कानून ले रहे हैं. वे खुद तय करते हैं कि किसको दंड देना है और दंड भी वो खुद देंगे. हमारे देश में अधिकार का ढांचा है, जहां हर नागरिक के पास अधिकार हैं पर वो खुद कानून नहीं बन सकता है.

वो कहते हैं 'आज जिस तरह का डर पैदा हो रहा है, वो किसी भी देश में खतरनाक हो सकता है. हम एक-दूसरे पर शक और जासूसी करने लगे हैं और ये सब कुछ एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार की चुप्पी से हो रहा है. जबकि हम सबने बड़ी कठिनाई से संघर्ष करके ये समाज बनाया है.'

'आज हमारे यहां आरोपी की जगह विक्टिम पर कार्रवाई हो रही है जो समाज और संस्थाओं पर संवैधानिक पर हमला है. परंपरा पर हमला है- हमारे यहां द्वेष पर सहमति नहीं है ये हर धर्म के साथ विश्वासघात है. जब हिंसा का माहौल बनता है तो बुराई बाहर आती है.'

'ये माहौल विश्वविद्यालयों के अलावा राज्यों में भी पनप रहा है. कश्मीर, झारखंड, उप्र, हरियाणा, राजस्थान जहां का भी उदाहरण लें वहां हिंसा का तात्कालिक कारण भले ही अलग हो पर मूल एक है. सवाल ये है कि आखिर ऐसा अभी क्यों हो रहा है, और ये सब वहां हो रहा है जहां बीजेपी की सरकार है. हालांकि, इसमें हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष रहा है.'

वाजपेयी कहते हैं, 'हो सकता है कि ऐसा करने वाले लोगों का प्रतिशत कम होगा लेकिन बहुसंख्यक आबादी ने इसकी निंदा नहीं की. उनकी चुप्पी से समर्थन मिलता है. लोगों को सफल और सार्थक होने का रास्ता नहीं मिल रहा है वे अपनी निजी जीवन में आर्थिक परेशानियां, अन्याय, भेदभाव के शिकार हैं तब उन्हें लगता है कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं तो इतना तो कर ही सकते हैं और आक्रामक हो जाते हैं, वे हिंसा में अपना प्रतिफल देखते हैं.'

'कोई भी अपराध किसी मंशा के बगैर नहीं होता है. हमारे कानून में जानबूझकर की गई हत्या, अंजाने या उत्तेजना में की गई हत्या, बचाव में की गई हत्या की सजा अलग-अलग होती हैं. लेकिन मौजूदा समय में ऐसा लगता है कि आप कुछ भी कर सकते हैं और आपको कोई सजा नहीं मिलेगी. सामान्य नागरिकों में डर पैदा किया जा रहा है, लेकिन जो आक्रामक हैं उनको किसी का डर नहीं है. भारतीय समाज के लिए भयावह मुकाम है, नागरिकता चुप है यही इस समय की सबसे बड़ी गलती है.'

इसी विषय पर जब हमने नोएडा के सेक्टर-62 के फोर्टिस हॉस्पिटल में कार्यरत साइकेट्रिस्ट डॉ. मनु तिवारी से बात की तो उनका कहना था- 'किसी भी मॉब यानी भीड़ की साईकोलॉजी कंस्ट्रक्टिव या डिस्ट्रक्टिव होती है. अक्सर हमारी छोटी-मोटी कमजोरियां या निजी हताशा भीड़ में बाहर निकलती है. तब हमारी निजी बाउंड्री जो कम होती है, वो भीड़ का सहारा पाकर बढ़ जाती है.'

'ऐसे में जो लोग भीड़ से सहमत नहीं होते हैं वो भी कलेक्टिव पहचान के लिए, उसमें शामिल हो जाते हैं. हम सबको पता है कि ऐसा क्यों हो रहा है. लोगों में आपसी विश्वास की कमी है. कई तरह की खबरें जो प्रोपेगैंडा के तौर पर फैलाई जाती है उसे गलत तरीके से समझा जाएगा. पॉवर स्ट्रगल में ग्रुप भारी पड़ता है.'

'न्यूयॉर्क में की गई एक स्टडी में पाया गया था कि अगर आत्महत्या की खबरें पहले पन्ने में छपती है तो उसके कई कॉपी कैट इन्सिडेंट हुए हैं. यह इंसानी फितरत है कि डिस्ट्रक्टिव खबरों को लोग जल्दी कॉपी करते हैं. मीडिया भी निगेटिव खबरों को सेंसेशनल बना देते हैं. विक्टिम को नीचे हाशिए पर डाल दिया जाता है और आरोपी को ग्लोरिफाई करके दिखाया जाता है. आम लोग मेनस्ट्रीम मीडिया के आधार पर अपने रोल मॉडल बनाते हैं. वो खबरें देखकर, पढ़कर, या किसी खबर को मिले रियेक्शंस को देखकर अपना रोल मॉडल चुनते हैं. लोगों के अंदर खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की भावना भी इसका कारण है.'

हमने इस बारे में इलाहाबाद विवि में इतिहास विषय के पूर्व शिक्षाविद् और आधुनिक इतिहास पर शोध करने वाले सांस्कृतिक कर्मी लाल बहादुर वर्मा से बात की तो उन्होंने कहा- 'हमारे समाज में पहले से समूह भी रहे हैं और भीड़ भी रही है. दोनों हमेशा से रहे हैं, लेकिन इस समय जो हालात हैं उसकी वजह उनका संकीर्ण राजनीति का शिकार होना है.'

'समूह भी बड़े-बड़े काम करता है. समूह ही संगठन बनता है, ये सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी. दुनिया के बड़े-बड़े आंदोनल समूहों के बलबूते ही खड़े हुए हैं. ये अलग बात है कि कभी उस समूह का नेतृत्व महात्मा गांधी करते हैं तो कभी हिटलर.'

'अगर किसी समूह को लगता है कि वो सिर्फ अपने दुश्मनों पर वार कर रहा है तो ये गलत होगा दरअसल, ये खुद पर भी वार करता है. मौजूदा समय में कुछ निहित स्वार्थ के चलते समूह जो ताकत का परिचायक होता था उसे एक घातक उपकरण बना दिया गया है जो लंबे समय में आत्मघाती साबित होगा.'

भारत में इसका सबसे बड़ा उदाहरण बाबरी मस्जिद ध्वंस है. जबकि फ्रेंच आंदोलन भी इसी समूह की ताकत का एक ऐतिहासिक मिसाल है. हमारे आस-पास नकारात्मकता बढ़ रही है. 'सेल्फ एंड अदर्स' की भावना बढ़ गई. हमारा सेल्फ छोटा हो गया है. हिंसा असल में हमारा 'मैनिफेस्टेशन ऑफ सेल्फ' है. कुछ लोगों के भीतर दबी ऐसी भावनाओं को भड़काकर फायदा उठाया जाता है.

प्रो.वर्मा कहते हैं- ह्यूमन सिविलाइजेशन में बर्बरता बढ़ रही है, संयम खत्म हो रहा है इसमें सोशल इनसिक्योरिटी का बड़ा रोल है. लिंचिंग करने वाले लोग अपने घर में भी ऐसे ही होंगे. ऐसे ही लोग बेटियों को मार डालते हैं क्योंकि वो उनके ईगो को हर्ट करती है.

'मॉब लिंचिंग के पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि ऐसे लोगों का भीड़ में हौसला बढ़ जाता है. लेकिन ऐसा करते हुए हमारा 'सेल्फ लिंचिंग' भी होता है, हम अपने भीतर भी हर दिन किसी न किसी चीज़ की हत्या कर रहे होते हैं. शायद यही वो वजह है जिस कारण दुनिया की महाशक्ति कहा जाने वाला देश अमेरिका भी आज डरा हुआ है, उतना ही जितना कोई कट्टरपंथी.'

'अपने देश में अगर कहें तो हम राष्ट्रीयता के दौड़ में रैश्नल तो बन रहे हैं लेकिन हमारे भीतर संवेदना की कमी होती जा रही है. जो आगे चलकर हमें या तो रोबोट बना देगा या लेस ह्यूमन इसलिए लोगों को सेंसीटाईज़ करने की जरूरत है.

'सांस्कृतिक संगठनों को जागना होगा. जो लोग इन कामों में लगे हैं- उन्हें रोचक, रचनात्मक, पठनीय और कंस्ट्रक्टिव कामों के जरिए लोगों के भीतर संवदेना जगानी होगी, यही इस दिशा उठाया जाने वाला पहला कदम हो सकता है.'