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बीजेपी नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह कांग्रेस में शामिल, आखिर बीजेपी से कहां हुई चूक ?

पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह ने कांग्रेस का हाथ पकड़ लिया है.

Amitesh

पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह ने कांग्रेस का हाथ पकड़ लिया है. दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात के बाद मानवेंद्र सिंह ने कांग्रेसी पट्टा पहनकर औपचारिक तौर पर कांग्रेस में शामिल होने का ऐलान कर दिया.

कांग्रेस में शामिल होने के बाद मानवेंद्र सिंह ने कहा, ‘मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे समर्थक आगे भी समर्थन करना जारी रखेंगे.’ इस मौके पर राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर निशाना साधते हुए कहा, ‘बीजेपी और राजे को यह सोचना चाहिए कि क्यों दशकों से काम कर रहे लोगों को घुटन महसूस हो रही है.’


पायलट ने घनश्याम तिवाड़ी का नाम लेकर कहा, ‘बीजेपी के वरिष्ठ नेता पहले पार्टी से अलग हो गए और अब मानवेंद्र जी कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं.’ पायलट ने यह एहसास कराने की कोशिश की है जब बीजेपी के भीतर पार्टी के नेताओं का यह हाल है तो जनता की क्या हालत होगी! निशाने पर वसुंधरा थी सचिन पायलट उनके काम करने के अंदाज पर सवाल खड़े कर रहे थे.

मानवेंद्र का कांग्रेस में शामिल होना तय था !

गौरतलब है कि मानवेंद्र सिंह ने 2013 का विधानसभा चुनाव बीजेपी के टिकट पर बाड़मेर की शिव विधानसभा सीट से जीता था. लेकिन, पार्टी के भीतर अपनी उपेक्षा से वो पहले से ही खफा थे. चुनाव करीब आने पर मानवेंद्र सिंह ने अपने समर्थकों के साथ राय-मशविरा किया. उनके बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने का अंदाजा पहले ही लग गया था. 22 सितंबर को बाड़मेर में स्वाभिमान रैली कर मानवेंद्र सिंह ने बीजेपी छोड़ने की घोषणा की थी. उस स्वाभिमान रैली में मानवेंद्र ने बीजेपी के साथ रहने को 'कमल का फूल, बड़ी भूल' कहा था.

वसुंधरा राजे से नाराज मानवेंद्र सिंह ने जब ‘अपनी पार्टी’ बीजेपी के लिए भूल शब्द का इस्तेमाल किया था तो साफ हो गया था कि सही मौके की तलाश में हैं. हुआ भी ऐसा ही. नवरात्र के शुभ मौके पर अपने दिल्ली के घर में हवन-पूजा करने के बाद मानवेंद्र सिंह ने राहुल गांधी के सामने अब ‘अपनी भूल’ सुधारकर कांग्रेस में नई पारी की शुरुआत करने का ऐलान कर दिया.

क्यों अलग हुए मानवेंद्र सिंह ?

दरअसल, मानवेंद्र सिंह की उपेक्षा पहले से ही हो रही थी. 2013 में विधानसभा चुनाव में उन्होंने बाड़मेर की शिव विधानसभा सीट से जीत दर्ज की थी. इसके बावजूद उन्हें पार्टी और सरकार में कहीं भी कोई स्थान नहीं दिया गया. लेकिन, यह नाराजगी और बड़ी हो गई जब 2014 के लोकसभा चुनाव में उनके पिता जसवंत सिंह को बाड़मेर सीट से लोकसभा का टिकट नहीं दिया गया.

पूरे माड़वाड़ इलाके में मजबूत पकड़ रखने वाले जसोला परिवार के मुखिया जसवंत सिंह का टिकट कट गया. माना जाता है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के दखल के चलते ही जसवंत सिंह का टिकट कट गया जबकि कांग्रेस से बीजेपी में शामिल कर्नल सोनाराम को टिकट थमा दिया गया. जसोला परिवार को यह बात नागवार गुजरी थी और उसी के बाद जसवंत सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया.

जसवंत सिंह को हार का सामना करना पड़ा और कर्नल सोनाराम की जीत हुई. लेकिन, यह टीस उस वक्त से ही जसवंत सिंह और मानवेंद्र सिंह के मन में थी. बाद में जसवंत सिंह की तबीयत बिगड़ी और वो अभी कोमा में हैं. लेकिन, उनकी सक्रिय राजनीति से गैर-हाजिरी में उनके बेटे मानवेंद्र सिंह की उपेक्षा ने उन्हें बीजेपी से अलग होकर कांग्रेस का हाथ पकड़ने पर मजबूर कर दिया.

मानवेंद्र के अलग होने से कितना होगा असर ?

मानवेंद्र सिंह अलग होकर कांग्रेस में शामिल होने के असर से बीजेपी अछूती नहीं रहेगी. मारवाड़ क्षेत्र में मानवेंद्र सिंह का प्रभाव काफी ज्यादा है. मानवेंद्र सिंह खुद राजपूत समुदाय से हैं. लेकिन, राजपूत समुदाय के अलावा सिंधी और मुस्लिम समुदाय में भी उनका प्रभाव तगड़ा है.

राजस्थान में पहले से ही राजपूत समुदाय वसुंधरा राजे से नाराज चल रहा है. बीजेपी अध्यक्ष पद पर राज्य में केंद्रीय मंत्री और जोधपुर से सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत को बैठाने को लेकर पार्टी आलाकमान ने मन बना लिया था, लेकिन, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरोध के चलते ऐसा संभव नहीं हो पाया.

उधर, जोधपुर के समरऊ में हुई घटना को लेकर भी राजपूत समुदाय के भीतर नाराजगी थी जिसमें कथित तौर पर राजपूत समुदाय के लोगों के घर कथित तौर पर जाट समुदाय के लोगों ने जला दिए थे. महिलाओं के साथ भी बदसलूकी हुई थी. लेकिन, आरोपियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं होने से नाराजगी है.

उधर, आनंदपाल एनकाउंटर मामले को लेकर भी राजपूत समुदाय के भीतर की नाराजगी अभी दूर नहीं हुई है. ऐसे वक्त में मानवेंद्र सिंह जैसे राजपूत समाज के नेता का बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में शामिल होना बीजेपी के लिए नुकसान का कारण हो सकता है.

हालांकि इसे बीजेपी की चूक के तौर पर भी देखा जा रहा है. इतने दिनों से राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की तरफ से मानवेंद्र सिंह की उपेक्षा की जा रही थी, लेकिन, पार्टी आलाकमान की तरफ से उन्हें मनाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई. अगर उन्हें वक्त रहते पार्टी संगठन में ही सही जगह मिल जाती तो शायद आज यह नौबत नहीं आती.

कैसा रहा है जसोला परिवार का बीजेपी से संबंध ?

मानवेंद्र सिंह भले ही बीजपी से अलग होकर कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. लेकिन, उनके पिता जसवंत सिंह का भी बीजेपी के साथ खट्टा-मीठा अनुभव रहा है. सेना में नौकरी कर रहे जसवंत सिंह को 1966 में भैरों सिंह शेखावत ने उंगली पकड़कर सियासत के सफर पर चलना सिखाया था. उसके कुछ सालों बाद 1980 में जसवंत सिंह पहली बार राज्यसभा सांसद बन गए.

जसवंत सिंह का कद केंद्र की वाजपेयी सरकार में बहुत बड़ा था जब वो रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और विदेश मंत्री के तौर पर अपनी सेवा देते रहे. उस वक्त जसवंत सिंह को वाजपेयी का हनुमान कहा जाता था. उस वक्त जसवंत सिंह को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का बेहद करीबी माना जाता था. लेकिन, इतने ताकतवर को मंत्री और नेता का कद भी पार्टी के भीतर धीरे-धीरे कम होता गया.

खराब स्वास्थ्य की वजह से जब अटल बिहारी वाजपेयी सक्रिय राजनीति से दूर हो गए, तो उस वक्त जसवंत सिंह की हैसियत भी पार्टी के भीतर कम होती गई.

2009 में उन्होंने जिन्ना पर जब किताब लिखी तो यह संघ और बीजेपी को इतना नागवार गुजरा कि उन्हें सीधे पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. उनकी किताब ‘जिन्ना: इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ में एक तरह से जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश की गई थी. जबकि देश के बंटवारे के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को जिम्मेदार बताया गया था. हालांकि बाद में उनकी बीजेपी में वापसी हो गई थी. लेकिन, उस वक्त पार्टी से निष्कासन के बाद जसवंत सिंह काफी आहत थे.

2009 के लोकसभा चुनाव में जसवंत सिंह दार्जिलिंग से सांसद थे. लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी इच्छा थी कि वो अपने गृह नगर बाड़मेर-जैसलमेर की सीट से अपनी अंतिम सियासी पारी खेलकर फिर संन्यास ले लें. लेकिन, उस वक्त वसुंधरा राजे के साथ उनकी तनातनी और सियासी खींचतान का नतीजा था कि उन्हें टिकट नहीं दिया गया.

ये अलग बात है कि भैरों सिंह शेखावत के साथ-साथ जसवंत सिंह का भी वसुंधरा को आगे बढ़ाने में योगदान रहा, लेकिन, वसुंधरा ने राजस्थान की राजनीति में अपना दबदबा बरकरार रखने के लिए जसवंत सिंह को किनारे कर दिया. उस वक्त भैरों सिंह शेखावत भी नहीं थे, अटल बिहारी वाजपेयी भी सक्रिय नहीं थे, आडवाणी खुद अपने वजूद के लिए लड़ रहे थे. लिहाजा जसवंत सिंह किनारे लगा दिए गए.

उस वक्त निर्दलीय चुनाव लड़कर हार का सामना करने वाले जसवंत सिंह और उनके विधायक बेटे मानवेंद्र सिंह को वसुंधरा राजे का यह रवैया इतना नागवार गुजरा कि उसका असर अब दिख रहा है.