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दिल्ली के सपने बाद में, पहले बंगाल संभालो ममता 

मोदी को हटाने की जिद से पहले ममता को अपने राज्य पर फोकस करना चाहिए.

Sanjay Singh

नोटबंदी के खिलाफ बंद को लोगों ने नकार दिया. ममता ने अब जिद पकड़ी है कि वह नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने और उनका राजनीतिक जीवन खत्म करने तक चैन से नहीं बैठेंगी. मोदी को हटाने की जिद पकड़ने से पहले उन्हें अपने राज्य के प्रशासन पर फोकस करना चाहिए.

ममता बनर्जी गुस्से में हैं, बेहद गुस्से में हैं. प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी और उनके डीमॉनेटाइजेशन के फैसले के खिलाफ उनकी नाराजगी और बढ़ गई है. वजह यह है कि लोगों ने ममता और विपक्षी पार्टियों के राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव समेत दूसरे नेताओं के सोमवार, 28 नवंबर को बुलाए गए आक्रोश दिवस और भारत बंद को अनसुना कर दिया है.


जनता नहीं, बस विपक्ष ही आक्रोश में 

कांग्रेस, तृणमूल, लेफ्ट फ्रंट, आम आदमी पार्टी, डीएमके, सपा जैसी दूसरी पार्टियों के लीडर्स और वर्कर्स के सुर्खियां बटोरने के चक्कर में की गई कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो लोगों ने अपने आक्रोश का प्रदर्शन नहीं किया. लोगों ने बता दिया कि वे डीमॉनेटाइजेशन के विरोध में नेताओं के बुलाए गए बंद में उनके साथ नहीं हैं.

जिस लहजे में कोलकाता की पब्लिक रैली में तृणमूल कांग्रेस की बॉस और वेस्ट बंगाल की सीएम ने भाषण दिया उससे साफ हो गया कि उन्होंने इसे निजी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है. यही वजह है कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. बनर्जी ने दावा किया कि वह लोगों के लिए, लोगों को हो रही तकलीफ के लिए लड़ रही हैं. वह चाहती हैं कि पुरानी करेंसी और पुराना सिस्टम वापस लागू कर दिया जाए.

Photo. PTI

उन्हें समझ आ गया है कि मोदी उनकी आंदोलन करने की धमकियों से डरने वाले नहीं हैं, न ही वह यूपी और बिहार या देश के बाकी हिस्सों में अपने दौरे करने के शोर से परेशान हो रहे हैं. ममता को इसका एक आसान तोड़ समझ आया है- मोदी और उनकी सरकार को जल्द से जल्द उखाड़ फेंका जाए, उन्हें पूरे पांच साल का वक्त न दिया जाए, न ही 2019 में होने वाले संसदीय चुनावों तक इंतजार किया जाए.

मोदी को उखाड़ने की शपथ

रैली में उन्होंने गर्जना की, ‘आज, मैं यह शपथ लेती हूं कि चाहे मैं जिंदा रहूं या न न रहूं, लेकिन मैं पीएम मोदी को भारतीय राजनीति से हटाकर रहूंगी.’ एक मंझे हुए नेता के रूप में ममता ने यह नहीं बताया कि मोदी को सत्ता और राजनीतिक जीवन से बेदखल में कामयाब होने तक वह क्या करेंगी. वह खुद तो मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छोड़ने जा नहीं रही हैं.

इसका मतलब यह है कि मोदी को भारतीय राजनीति से हटाने के बड़े प्रयोजन के लिए वह अपने राज्य में गवर्नेंस से मुंह मोड़ सकती हैं, साथ ही आने वाले वक्त में वह चीफ मिनिस्टर के दफ्तर में तो होंगी, मगर उनकी प्राथमिकताएं अलग होंगी. अगर वह बात की पक्की हैं तो वह एक एक्टिविस्ट में तब्दील हो जाएंगी और धरना, विरोध, रैलियां, पुलिस को प्रतिक्रिया में कार्रवाई करने जैसे काम करेंगी, जिनके लिए उनकी पहचान है. वह पूरे देश में घूमेंगी और ढेर सारा वक्त दिल्ली में गुजारेंगी. इसकी शुरुआत वह पीएम मोदी के निवास के सामने धरना-प्रदर्शन के साथ करेंगी.

देश का मुखिया बनने की चाह

कोलकाता में बनर्जी ने भीड़ से जो नहीं कहा वह यह है कि एक बार वह मोदी को सत्ता और राजनीति से बेदखल करने में कामयाब हो गईं तो फिर वह देश की अगली प्राइम मिनिस्टर बन जाएंगी, देश की सरकार का जिम्मा संभालेंगी और पुरानी करेंसी और पुराने सिस्टम को बहाल कर देंगी.

उनके और उनके साथियों के लिए करप्शन, ब्लैक मनी, ड्रग्स, हवाला, टेरर और नक्सल फाइनेंसिंग जैसा कुछ भी नहीं है. अगर ममता इन्हें बुराइयां मानतीं तो उन्होंने शारदा, नारदा, नक्सल और नकली करेंसी रैकेट के खिलाफ कार्रवाई की होती.

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10 दिन पहले भी ममता ने मोदी को चेतावनी दी थी कि जब तक मोदी डीमॉनेटाइजेशन के फैसले को तीन दिन में वापस नहीं लेते हैं तो उन्हें पूरे देश में लोकप्रिय आंदोलन का सामना करना पड़ेगा. कुछ भी नहीं हुआ. पटना जाकर मोदी सरकार के खिलाफ रैली करने का उनका जोश तब ठंडा पड़ गया जब बिहार के चीफ मिनिस्टर नीतिश कुमार मोदी के डीमॉनेटाइजेशन के सपोर्ट में खुलकर सामने आ गए. भारत बंद का आइडिया सबसे पहले ममता ने ही दिया था, लेकिन जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि लोग पूरी तरह से बंद के खिलाफ हैं, सोशल मीडिया पर प्रस्तावित बंद के खिलाफ एक जबरदस्त मुहिम चल रही है और नीतीश कुमार इस आइडिया को खारिज कर चुके  हैं, तब उन्होंने यू-टर्न ले लिया और कहा कि कोई बंद नहीं है, केवल विरोध मार्च और रैलियां ही होंगी.

क्या ममता अकेली हैं?

डीमॉनेटाइजेशन पर ममता का आक्रामक रवैया चौंकाने वाला है और सत्ता के गलियारों में इस बात पर चर्चा हो रही है. दुर्भाग्य से उन्हें पीएम मोदी के खिलाफ जनसमर्थन नहीं मिल पाया. उनके राष्ट्रपति भवन मार्च में साथी शिवसेना बनी, लेकिन राहुल गांधी, सोनिया गांधी, अरविंद केजरीवाल, मुलायम सिंह यादव, मायावती जैसों ने इसका बायकॉट कर दिया. अगले दिन उन्होंने आजादपुर मंडी में रेडीमेड भीड़ को संबोधित किया. लेकिन, अगले दिन जब उन्होंने और केजरीवाल ने आरबीआई पहुंचकर अपना विरोध दर्ज कराना चाहा तो लाइनों में लगे लोगों ने ‘मोदी मोदी’ के नारे लगाकर उनके जोश पर पानी फेर दिया. कुछ दिन बाद जब ममता जंतर-मंतर पर एक रैली करने आईं तो उसमें केजरीवाल नहीं आए.

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पीएम मोदी के आवास पर धरना देकर वह अरविंद केजरीवाल को अपने साथ ला सकती हैं. ममता ने अभी तक केजरीवाल को अपने इस कदम में साथ जुड़ने के लिए आमंत्रित नहीं किया है.

पीएम पद के चक्कर में सीएम की जिम्मेदारियों को न भूलें ममता

हालात कैसे भी हों, किसी चीफ मिनिस्टर से पूरे देश में घूम-घूमकर विरोध प्रदर्शन आयोजित करने की बजाय पहले अपने राज्य के शासन पर गौर करने की उम्मीद की जाती है.

ऐसा लग रहा है कि ममता ने अपनी समझबूझ से एकला चलो की नीति पर चलने का मन बना लिया है. वह अपने निजी करिश्मे और ताकत के बूते मोदी को उखाड़ फेंकने पर भरोसा कर रही हैं. शायद उन्हें लग रहा है कि वह इंदिरा गांधी के बाद देश की दूसरी महिला प्राइम मिनिस्टर बन सकती हैं. उनके अंदर पैदा हुए नए आत्मविश्वास के पीछे यह भी वजह हो सकती है कि इलेक्शन कमीशन ने रिकॉर्ड्स में तृणमूल कांग्रेस को नेशनल पार्टी के रूप में दर्ज कर लिया है.

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