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मध्य प्रदेशः हिंदुत्व के एजेंडे वाले घोषणापत्र से कांग्रेस का खेल बनेगा?

मध्य प्रदेश के लिए चुनावी घोषणापत्र तैयार करने में कांग्रेस का 'अजीबोगरीब रवैया' हिंदुत्व के वैचारिक विरोधियों को नाराज कर देगा.

Ajaz Ashraf

मध्य प्रदेश के लिए चुनावी घोषणापत्र तैयार करने में कांग्रेस का 'अजीबोगरीब रवैया' हिंदुत्व के वैचारिक विरोधियों को नाराज कर देगा. वे ऐसा सोच सकते हैं कि इस राज्य में कांग्रेस की जीत भारत की राजनीति को निर्णायक रूप से दक्षिणपंथ की तरफ मोड़ देगी और बहुसंख्यकवाद को इस पार्टी द्वारा व्यावहारिक तौर पर मान्यता दे दी गई है. वे इस बात का भी आकलन करने लगेंगे कि क्या कांग्रेस को फिर से 'पुनर्जीवित' के लिए चुकाई जाने वाली कीमत वाजिब है.

हिंदुओं के तुष्टिकरण का फॉर्मूला तैयार करने की दिशा में उठाया गया कदम


देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का घोषणापत्र वाकई में अजीबोगरीब बयानों और इसी तरह के वादों में डूबे हुए दस्तावेज जैसा है. इस घोषणा पत्र में कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी की नकल करते हुए राम पथ गमन विकसित करने का वादा किया है. इसके तहत उस रास्ते को विकसित करने की बात है, जहां से हिंदू मान्यताओं के मुताबिक भगवान राम वनवास के दौरान गुजरे थे.

ऐसी मान्यता है कि राम ने अपने 14 साल वनवास में कुल 11 साल मौजूदा मध्य प्रदेश में स्थित इन जंगलों में ही गुजारे थे. इसके अलावा, हिंदू धर्मगुरुओं को तुष्ट करने के लिए भी कई तरह की बातों का जिक्र कांग्रेस के इस चुनावी घोषणा पत्र में किया गया है. दरअसल, ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने भी गाय की राजनीति को अपनाने के लिए गांधी टोपी को उतार कर फेंक दिया है.

इस घोषणापत्र में किए गए वादों पर गौर करें, तो मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सत्ता में आने पर कांग्रेस गोमूत्र का व्यावसायिक उत्पादन शुरू करेगी, हर पंचायत में गौशाला बनाएगी, गायों की सेवा से संबंधित कार्यों के लिए अलग फंड आवंटित करेगी और घायल गायों-बछड़ों के इलाज के लिए अस्थायी कैंप स्थापित करेगी. इतना ही नहीं, कांग्रेस के घोषणापत्र में जरूरत पड़ने पर गायों का अंतिम संस्कार किए जाने की भी बात कही गई है. एक और अजीबोगरीब बात यह कि पार्टी के लिए भूमि सुधार का आइडिया अब पशुओं के चरने के लिए अतिरिक्त जमीन उपलब्ध कराने में बदल गया है.

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र में किए गए ये तमाम वादे उन सभी लोगों की इस तरह की उम्मीदों को झुठलाते हैं कि कांग्रेस पार्टी बीजेपी के हिंदुत्व के आइडिया से अलग एक बेहतर वैकल्पिक ढांचा मुहैया कराएगी. ऐसे में इन सभी लोगों की उम्मीदों पर पानी फिरता नजर आ रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के असहिष्णु, लड़ाका संस्करण के मुकाबले कांग्रेस अपना आदर्श हिंदू संस्करण तैयार करेगी.

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इस तरह की उम्मीदों को इसलिए भी बल मिला था, क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हिंदू होने को लेकर अपनी छवि का प्रदर्शन कर रहे थे. इस मकसद के तहत इस तरह का संदेश देने के लिए राहुल गांधी मंदिरों में जा रहे थे कि वह और उनकी पार्टी हिंदू विरोधी नहीं है, जैसा कि बीजेपी आरोप लगाती है. राहुल गांधी द्वारा अपनी हिंदू पहचान को लेकर तवज्जो दिए जाने से माना जा रहा था कि उनकी तरफ से इस तरह की पहल हिंदू धर्म की दार्शनिक और सांस्कृतिक विरासत को फिर से हासिल करने के लिए संगठित संघर्ष की शुरुआत है. कइयों को ऐसा लग रहा था कि यह कम से कम बीजेपी को हिंदू धर्म पर उसके एकाधिकार से वंचित करने के लिए एक प्रयास जैसा है.

जनता की नजरों में कितना कारगर होगा सॉफ्ट हिंदुत्व का विकल्प?

बहरहाल, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस का यह घोषणापत्र दर्शाता है कि उसके पास इस तरह के कार्य के लिए न तो बौद्धिक क्षमता है और न ही पर्याप्त ऊर्जा और धैर्य. लिहाजा, पार्टी ने हिंदू धर्म की फिर से व्याख्या करने या इसे पुनः पारिभाषित करने की बजाय हिंदुत्व की नकल करने का विकल्प चुना.

कांग्रेस की तरफ से हिंदुत्व या सॉफ्ट हिंदुत्व की नकल करने के लिए जिस राज्य का विकल्प चुना गया है, उसका समीकरण भी काफी दिलचस्प और अलग किस्म का है. दरअसल, मध्य प्रदेश की कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा महज 6.57 फीसदी है, लिहाजा उनका संभावित अलगाव कांग्रेस के लिए चुनावी नजरिये से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है. कांग्रेस ने एक तरह से यह भी मान लिया है कि मुसलमान भारतीय जनता पार्टी के लिए वोट नहीं करेंगे.

आखिरकार, इस बात में भी किसी तरह का संदेह नहीं है कि संघ परिवार ने अपने हिंदू वोट-बैंक को इकट्ठा करने के लिए मुसलमान समुदाय पर निर्ममतापूर्वक निशाना साधा है.

कांग्रेस को लगता है कि मुसलमान बीजेपी के आक्रामक हिंदुत्व की बजाय उसके सॉफ्ट हिंदुत्व का विकल्प चुनेंगे, क्योंकि उनके (मुसलमान समुदाय) पास तीसरा कोई विकल्प नहीं है. यह ब्लैकमेलिंग की शानदार तरकीब हैः 'हमें वोट दीजिए या अगले 5 साल तक पिटते रहिए या जोर जुल्म सहते रहिए.' अगर मुसलमानों का एक तबका वोट देने के लिए घर से नहीं निकलता है या नोटा वाला बटन दबाता है, तो इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस को होने वाले वोटों के नुकसान साथ-साथ वैसे हिंदुओं के वोटों का फायदा भी मिल सकता है, जो अपनी धार्मिक भावनाओं के तुष्टिकरण के कारण कांग्रेस की तरफ जाने को आकर्षित हो सकते हैं. इस आकलन को ध्यान में रखते हुए कहा जाए तो कुल मिलाकर, कांग्रेस के लिए यह नुकसान से ज्यादा फायदे का सौदा साबित हो सकता है.

दरअसल, कांग्रेस का हिंदुत्व का यह जोखिम भरा दांव इसी तरह के आकलन पर आधारित है. कांग्रेस पार्टी को इस जोखिम भरे दांव को लेकर इसलिए भी उत्साह है, क्योंकि मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के इस घोषणापत्र का बुरा असर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस पर पड़ने की आशंका नहीं के बराबर दिख रही है. इन दोनों राज्यों (मध्य प्रदेश और राजस्थान) में अगले 26 दिनों में विधानसभा चुनाव होने हैं.

कांग्रेस के पास लंबी अवधि में गंवाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं

दरअसल, छत्तीसगढ़ में भी मुसलमानों की आबादी महज 7.17 फीसदी है और मध्य प्रदेश की राजनीति की तरह ही इस राज्य की राजनीति भी मोटे तौर पर दोध्रुवीय है. हालांकि, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के बीच गठबंधन होने से इस राज्य में तीसरा मोर्चा भी उभरकर सामने आया है. कांग्रेस ने चालाकी से अपना घोषणापत्र ऐसे वक्त में जारी किया, जब छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव का पहला दौर शुरू होने में 48 घंटे से भी कम वक्त बचा था. चुनाव विश्लेषक भी ऐसा मानते हैं कि आखिरी वक्त में या रातोंरात वोटिंग में बड़े पैमाने पर बदलाव नहीं के बराबर देखने को मिलता है.

राजस्थान में मुसलमानों की आबादी ठीक-ठाक यानी 9.7 फीसदी है. इस राज्य में करीबी मुकाबले की स्थिति में मुसलमानों का वोट निर्णायक साबित हो सकता है. हालांकि, राजस्थान में भी दोध्रुवीय यानी दो पार्टियों के दबदबे वाली ही राजनीति है. यहां तक कि इस राज्य में कागज पर भी कोई तीसरा मोर्चा नहीं है, जैसा कि छत्तीसगढ़ में है.

ज्यादातर मीडिया रिपोर्ट और ओपनियन पोल दिखा रहे हैं कि राजस्थान में बीजेपी सरकार की मुखिया और मुख्यमंत्री वसंधुरा राजे के खिलाफ हवा बह रही है. मुसलमान इस ट्रेंड के उलट नहीं जा सकते हैं. कांग्रेस का घोषणापत्र उन्हें कितना भी नाराज क्यों नहीं करे, क्या वे ऐसा कर सकते हैं? क्या उनका गुस्सा 7 दिसंबर तक टिका रहेगा, जब राजस्थान विधानसभा चुनावों के लिए वोट डाले जाएंगे? दोनों परिस्थितियों में जवाब हैः ऐसी संभावना नहीं के बराबर है.

कांग्रेस भी बहुसंख्यकवाद का गेम खेल सकती है, क्योंकि इसका आकलन यह है कि उसके पास लंबी अवधि में गंवाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है. मुसलमान वैसे राज्यों में अपना समर्थन क्षेत्रीय पार्टियों को दे रहे हैं, जहां उनकी अच्छी संख्यी है. इस तरह के राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और असम के बड़े हिस्से शामिल हैं.

कांग्रेस के लिए हिंदुत्व को लेकर चुनौती प्रमुख हिंदीभाषी राज्यों तक सीमित है. हालांकि, दक्षिण भारत में ऐसा नहीं है, जहां कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु में पहले ही चुनावी गठबंधन उभर चुका है. आंध्र प्रदेश में भी ऐसा होने की प्रबल संभावना है.

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कांग्रेस की नीतियों और उसके वैचारिक विचलन को लेकर जितना भी नाराजगी हो, लेकिन मुसलमान इन राज्यों में बीजेपी की अगुवाई वाले गठबंधन से जुड़ी क्षेत्रीय पार्टी को कतई वोट नहीं देंगे. केरल में धार्मिक अल्पसंख्यकों के पास वाम मोर्चे के साथ जुड़ने का विकल्प है. जाहिर तौर पर यह मोर्चा केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार का समर्थन नहीं करेगा.

इंदिरा गांधी के शासन में निकला था हिंदू कार्ड खेलने का फॉर्मूला

यह साफ तौर पर समझा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस के इस तरह का घोषणापत्र का मकसद बीजेपी को हिंदू वोटों से वंचित करना और 2019 के लोकसभा चुनावों में नाटकीय रूप से उसकी सीटों की संख्या को कम करना है. कुछ लोग व्यावहारिक रवैया अख्तियार करने के लिए इस घोषणापत्र को लेकर कांग्रेस की तारीफ कर सकते हैं. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस का मध्य प्रदेश का घोषणापत्र भारत की राजनीति में दक्षिणपंथ के दायरे को और बढ़ाता है.

ऐसे में इस बात के भी भी संकेत मिल रहे हैं कि कांग्रेस पहले से तय कर चुकी है कि वह 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्षी गठबंधन की अगुवाई करेगी. इस तरह के गठबंधन में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व की झलक भी देखने को मिल सकती है. इसके अलावा, कांग्रेस का घोषणापत्र हिंदुत्व और गाय की राजनीति को वैधता प्रदान करता है. यह कांग्रेस के लिए पैरोकारी रहे सेक्युलर-लिबरल ब्रिगेड के लिए भारी चिंता की बात होनी चाहिए.

ऐसा इसलिए माना जा सकता है कि भारत का चुनावी इतिहास बताता है कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा आजमाए जा रहे हिंदू कार्ड को उसी वक्त विश्वसनीयता और प्रमुखता मिल गई थी, जब इंदिरा गांधी ने इस तरह का कार्ड खेलने का फैसला किया. इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक से इस तरह का कार्ड खेलने की शुरुआत की था. कांग्रेस पार्टी में 1969 में हुए विभाजन ने इंदिरा गांधी को संगठन के नेटवर्क से वंचित कर दिया था. उन्होंने 'गरीबी हटाओ' और प्रिवी पर्स खत्म करने जैसी लोक-लुभावन नीतियों के जरिये इस समस्या से निपटने का प्रयास किया. इन नीतियों से चुनावी फायदा मिलना जब बिल्कुल कम हो गया, तो उन्होंने हिंदुओं को 'हिंदू बताकर' लुभाने की रणनीति अपनाई.

इंदिरा गांधी के शासन के बार में मरहूम पत्रकार बलराज पुरी ने लिखा था, 'उनका हिंदू धर्मस्थलों और धर्मगुरुओं के पास जाना काफी बढ़ गया और इससे उनकी धार्मिक छवि बनी. हालांकि, हिंदू कट्टरपंथी जिस बात से इंदिरा गांधी की तरफ आकर्षित हुए, वह उनका आक्रामक राष्ट्रवाद था, जिसे उन्होंने 1970 के दशक में भारतीय राजनीति में पेश किया और इसके माध्यम से उनका इरादा वैचारिक खालीपन को भरना था. इंदिरा-जेपी (जयप्रकाश नारायण) के टकराव से भी काफी हद तक यह वैचारिक खालीपन बढ़ा था, क्योंकि दोनों में से किसी भी पक्ष के ज्यादातर मामलों का वैचारिक आधार नहीं था.'

इंदिरा गांधी की मुश्किलें उस वक्त और बढ़ गई थीं, जब आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनावों में मुसलमान उनसे दूर चले गए. पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद के उभार ने उन्हें सिखों और कश्मीरी मुसलमानों के बारे में बिना किसी हिचकिचाहट के अलग नजरिये से बयां करने का मौका मुहैया कराया. मिसाल के तौर पर ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी ने गढ़वाल में दिए गए अपने एक भाषण में कहा कि हिंदू धर्म खतरे में है और उन्होंने हिंदू संस्कृति को सिख और मुस्लिम हमले से बचाने की अपील की.

इसके बाद 1983 में उन्होंने फिर जम्मू-कश्मीर के चुनाव अभियान में रीसेटलमेंट बिल का डर दिखाकर हिंदुओं को लुभाने का प्रयास किया. इस बिल के तहत 1947 से 1954 के दौरान पाकिस्तान गए कश्मीरियों के वापस लौटने पर अपनी संपत्ति का दावा करने की इजाजत दी गई थी.

उस वक्त कांग्रेस ने चुनावों में जम्मू क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जीत हासिल की थी. ठीक उसी तरह, जिस तरह बीजेपी ने ध्रुवीकरण के अपने तरीके से दिसंबर 2014 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी.

दरअसल, इंदिरा गांधी के इस कदम के बाद भारतीय राजनीति के 'हिंदूकरण' की प्रक्रिया तेज होने लगी. धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक कानून के जरिये 1985 के सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो फैसले को पलट दिया था. इसके बाद हिंदुओं को संतुष्ट करने के लिए राजीव गांधी सरकार ने 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया. इस दौर के बाद बीजेपी का ग्राफ बढ़ना शुरू हो गया, जबकि कांग्रेस की लोकप्रियता में गिरावट होने लगी.

संजय गांधी और राजीव गांधी के साथ इंदिरा गांधी

इंदिरा और राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व की नीति को बढ़ावा दिया और बाद के वर्षों में इसके आक्रामक स्वरूप के जरिये बीजेपी इस मामले में कांग्रेस से आगे निकल गई. अब कांग्रेस इस मोर्चे पर बीजेपी को पकड़ने की कोशिश कर रही है. इस बात की भविष्यवाणी करना हमेशा खतरनाक है कि लोग हिंदुत्व का 24 कैरेट वाला वर्जन स्वीकार करेंगे या इसके मुकाबले नकल वाले हिंदुत्व का विकल्प चुनेंगे.

इस बात को ध्यान में रखते हुए कि कांग्रेस की मान्यताएं उसके चुनावी प्रदर्शन के लिहाज से बदलती हैं, यह कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में उसकी जीत भारत की राजनीति को निर्णायक रूप से दक्षिणपंथ की दिशा में धक्का देगी. इसी तरह, इस राज्य में हार की स्थिति में सॉफ्ट हिंदुत्व के जरिये बीजेपी की चुनौती से निपटने की अपनी रणनीति में उसे संशोधन करना होगा. यह निश्चित तौर पर 'आइडिया ऑफ इंडिया' को जिंदा रखेगा, जिसके बारे में बात करते हुए राहुल गांधी कभी नहीं थकते.