मध्य प्रदेश में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने सेंधवा पर अपनी पकड़ बनाई है. यह क्षेत्र इंदौर से 150 किलोमीटर दूर है. बीजेपी की लगातार जीत का एक अहम कारण कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अंदरूनी विवाद और विद्रोहियों का होना है. हालत यह है कि अगर एक को वोट मिलता है, तो उसका विरोधी अपने पक्ष के सभी वोटर्स को बीजेपी प्रत्याशी की तरफ मोड़ देता है.
कांग्रेस के दो प्रत्याशियों ज्ञारसीलाल रावत और सुखलाल परमार के बीच तनातनी 2003 से जारी है. इससे पिछले तीन चुनावों में यह सीट कांग्रेस के हाथ से निकलती रही है. स्थानीय लोगों के मुताबिक अगर मतदाताओं का विश्लेषण किया जाए, तो सीट कांग्रेस के पक्ष में जाती दिखती है. इसकी वजह है इन उम्मीदवारों का आदिवासी कनेक्शन. अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित इस सीट पर मुख्य रूप से दो जातियों या समुदायों का दबदबा है – बरेला और भिलाला. रावत और परमार दोनों ही बरेला समुदाय से आते हैं. इनके बीच प्रतिद्वंद्विता इतनी ज्यादा है कि अगर एक को सेंधवा से टिकट दिया जाता है, तो दूसरा अपने वोटर्स को बीजेपी की तरफ मोड़ देता है.
अंतर सिंह आर्य ने यह सीट 2003 में 32 हजार वोटों से जीती थी
बीजेपी के अंतर सिंह आर्य ने कांग्रेस के गढ़ से यह सीट 2003 में 32 हजार वोटों से जीती थी. इसकी वजह थी कांग्रेस के दो ग्रुप में विवाद. बरवानी जिला कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष सुखलाल परमार का कहना है, ‘पार्टी में अंदरूनी राजनीति और गुटबाजी की वजह से सीट बीजेपी के हाथों में चली गई. यही हार का मुख्य कारण है. 2013 में भी पार्टी ने कमजोर उम्मीदवार को टिकट दिया. जिसकी वजह से हम लगातार तीसरी बार चुनाव हारे.’ पूर्व विधायक ज्ञारसीलाल रावत इस बार टिकट को लेकर आश्वस्त दिखते हैं. उनका दावा है, ‘पहले कुछ मुद्दे थे. लेकिन अब हम सब साथ हैं. इस बार हम चुनाव जरूर जीतेंगे.’ स्थानीय लोगों का दावा है कि बीजेपी के अंतर सिंह आर्य और कांग्रेस के रावत अपनी पार्टियों के ताकतवर नेताओं के तौर पर उभरे, जब 1990 में उन्हें टिकट दिया गया. रावत युवा नेता थे, जो कॉलेज इलेक्शन जीतने के बाद राजनीति की मुख्य धारा में आए. हालांकि वो इलेक्शन आर्य ने 3907 वोट से जीता था.
दंगों के बाद 1992 में एमपी की बीजेपी सरकार भंग कर दी गई थी
1993 और 1998 में रावत ने अपने पत्ते सही तरीके से खेले और जीते. पहली बार 6472 और दूसरी बार 3083 वोट से. बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद हुए दंगों के बाद 1992 में एमपी की बीजेपी सरकार भंग कर दी गई थी. हालांकि 90 के दशक की शुरुआत में सुखलाल परमार सेंधवा आए. परमार बिजनेसमैन थे और कांग्रेस के साथ जुड़े. उनके आने के बाद राजनीति का रूप बदला. 2003 में उन्हें कांग्रेस से टिकट नहीं मिला. परमार एनसीपी के समर्थन से चुनाव लड़े और बड़ी संख्या में वोट पाने में कामयाब रहे. उन्हें करीब 24 हजार वोट मिले. वो मामूली अंतर से हारे. लेकिन करीब-करीब रावत जितने वोट पाने में कामयाब रहे. रावत यह चुनाव आर्य के हाथों 30 हजार से ज्यादा वोट से हारे.
अंतर सिंह आर्य और रावत बरेला कम्युनिटी के हैं
2008 में परमार को कांग्रेस से टिकट मिला. रावत को नजरअंदाज किया गया. नतीजा यह रहा कि रावत ने बरेला कम्युनिटी का अपना वोट बैंक आर्य की तरफ मोड़ दिया. आर्य ने चुनाव 12,818 वोट से जीता. स्थानीय लोगों का दावा है कि अंतर सिंह आर्य और रावत बरेला कम्युनिटी के हैं और दूर के रिश्तेदार हैं.दोनों की प्रतिद्वंद्विता इस कदर बढ़ी कि कांग्रेस ने 2013 में सेंधवा टिकट बिल्कुल नए चेहरे दयाराम बाटा को दे दी. बाटा कृषि मंडी के अध्यक्ष थे. उन्हें भुवन सिंह पर तरजीह दी गई. भुवन सिंह को राज्य नेतृत्व ने तैयार किया था. दिल्ली में कांग्रेस नेताओं ने भुवन सिंह का टिकट काट दिया. भुवन पर रेप के आरोप थे. इसके बाद राज्य के नेतृत्व को कहा गया कि उनकी जगह किसी और को टिकट दें. बाटा का क्षेत्र में ज्यादा असर नहीं था, जिसकी वजह से बीजेपी ने 2013 में आसान जीत दर्ज की.
कांग्रेस ने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है
लेख लिखे जाने तक कांग्रेस ने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है. देखना रोचक होगा कि सेंधवा से पार्टी क्या करती है. बीजेपी के जिला अध्यक्ष एस वीर स्वामी का कहना है कि इन सालों में पार्टी और स्थानीय विधायक ने किसानों, युवाओं और स्थानीय लोगों के लिए बहुत काम किया है. उन्होंने उम्मीद जताई कि बीजेपी 40 हजार वोट से चुनाव जीतेगी.
(Author is a freelance writer and a member of 101reporters.com, a pan-India network of grassroots reporters)