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MP चुनाव: 2013 से 2018 तक में कितनी बदल गई बीजेपी और कांग्रेस की प्रचार रणनीति

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने का काम बुधवार को पूरा हो गया है. चुनाव नतीजे 11 दिसंबर को आएंगे.

Dinesh Gupta

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने का काम बुधवार को पूरा हो गया है. चुनाव नतीजे 11 दिसंबर को आएंगे. विधानसभा का यह चुनाव बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही करो या मरो के सिद्धांत पर लड़ा है. प्रदेश में पहली बार इस चुनाव में वोटर ने प्रचार की आक्रमक शैली और नेताओं के बिगड़ते बोल को देखा और सुना है.

मैदान से ज्यादा सोशल मीडिया पर दिखा चुनाव


मध्य प्रदेश में पिछले पंद्रह साल से भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. शिवराज सिंह चौहान पिछले तेरह साल से राज्य के मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के तौर उनके लंबे कार्यकाल का असर भारतीय जनता पार्टी के संगठन पर भी पड़ा है. पार्टी संगठन चुनाव में पूरी तरह से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर निर्भर दिखाई दिया. पार्टी के प्रचार के लिए निष्ठावान कार्यकर्ताओं की जगह आईटी प्रोफेशनल्स ने ले ली थी.

2003 से लेकर 2013 तक के तीन विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने अनिल माधव दवे के नेतृत्व में बनाई गई इलेक्शन मेनेजमेंट टीम के सहारे लड़ा था. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अनिल दवे के स्थान पर किसी अन्य नेता को यह जिम्मेदारी सीधे तौर पर नहीं सौंपी थी. अनिल माधव दवे का लगभग दो साल पहले निधन हो गया था. केन्द्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ चुनाव अभियान की जिम्मेदारी पूरी कर रहे थे.

नरेन्द्र सिंह तोमर के बारे में यह माना जाता है कि उन्हें नाराज कार्यकर्ताओं को मनाना आता है. चुनाव प्रबंधन के लिए भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रोफेशनल एजेंसियों का सहारा लिया था. ज्यादतर कंपनियां गुजरात मूल की बताई जाती हैं. चुनावी प्रबंधन पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की सीधी नजर थी. पंद्रह साल की सरकार में स्वभाविक तौर पर उभरने वाली एंटी इंकबेंसी से निपटने की रणनीति पर खास तौर पर ध्यान दिया गया था.

पहली बार पार्टी ने मध्यप्रदेश में पन्ना प्रभारी की नीति में संशोधन कर हाफ पन्ना प्रभारी बनाया गया. पन्ना प्रभारी वोटर लिस्ट के पन्ने के आधार पर बनाया गया. हर मतदान केन्द्र के औसत दस परिवारों पर एक कार्यकर्ता को तैनात किया गया. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके भरोसेमंद अफसरों की टीम लगातार जमीनी स्तर से फीडबैक लेती रही. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान मतदान केन्द्र के प्रभारियों से ऑडियो ब्रिज के जरिए दो बार बात भी की.

इस बात का असर जमीनी कार्यकर्ताओं पर सीधे तौर पर देखा गया. सोशल मीडिया का भी चुनाव प्रचार में जमकर उपयोग बीजेपी ने किया. मतदान के चार दिन पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ का मुस्लिम प्रतिनिधियों से नब्बे प्रतिशत वोट करने की अपील का वायरल हुए वीडियो को बीजेपी की सोशल मीडिया टीम ने सफलतापूर्वक प्रदेश के गांव-गांव तक पहुंचा दिया.

भारतीय जनता पार्टी में पहली बार बड़े पैमाने पर बगावत भी देखने को मिली. रामकृष्ण कुसमरिया, सरताज सिंह और केएल अग्रवाल जैसे नेता पार्टी के खिलाफ चुनाव मैदान में दिखाई दिए. पार्टी इन नेताओं को मनाने में पूरी तरह से असफल रही.

कांग्रेस के नेता एक जरूर दिख रहे थे लेकिन दिशाएं अलग-अलग थीं

भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव जीतने की अपनी रणनीति को दो चीजों पर केंद्रित किया था. पहला दिग्विजय सिंह और उनकी दस साल की सरकार के कामकाज को वोटर के दिमाग में ताजा करना. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान अपनी पंद्रह साल की सरकार और कांग्रेस की दस साल की सरकार की तुलना जनसभाओं में खुलकर की. शिवराज सिंह चौहान ने अपने पूरे चुनाव अभियान में कांग्रेस की सबसे कमजोर नस मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर भी हमले किए.

कांग्रेस ने अपनी नीति के अनुसार राज्य में किसी भी नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया. कांग्रेस के जितने भी बड़े नेता थे, उन्हें किसी न किसी कमेटी का चेयरमेन बनाकर राहुल गांधी ने गुटबाजी को रोकने की एक कोशिश की थी. दिग्विजय सिंह को कांग्रेस के नेताओं के बीच समन्वय की जिम्मेदारी दी गई थी. यह माना जाता है कि राज्य में कांग्रेस पिछले तीन चुनाव दिग्विजय सिंह समर्थकों के भितरघात के कारण ही हारी थी.

कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने उनकी छवि का उपयोग चुनाव प्रचार में नहीं किया. चुनाव प्रचार की रणनीति सुरेश पचौरी को बनानी थी. टिकट वितरण के वक्त स्थिति यह हो गई कि सिंधिया को रोकने के लिए कांग्रेस के सारे नेता एक हो गए. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष की कुर्सी कमलनाथ को देने की सबसे बड़ी वजह पार्टी का आर्थिक संकट था. कमलनाथ के बारे में यह माना जाता है कि वे चुनाव के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की क्षमता रखते हैं.

कांग्रेस आर्थिक संसाधनों के मामले में बीजेपी से काफी पीछे रही. बीजेपी ने अपने प्रचार के लिए हर अखबार को एक पेज का विज्ञापन दिया था. जबकि कांग्रेस अधिकतम सेंटीमीटर से ज्यादा बड़ा विज्ञापन नहीं दे पाई. कमलनाथ ने प्रचार के लिए हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर का इंतजाम जरूर पार्टी नेताओं के लिए कर दिया. पहली बार कांग्रेस के सभी बड़े नेता अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचार करते दिखाई दे रहे थे.

कांग्रेस का हर नेता सिर्फ उन्ही विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार के लिए जा रहा था, जहां उसका समर्थक चुनाव लड़ रहा था. कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम बीजेपी की ओर से होने वाले प्रचार का जवाब भी नहीं दे पाई. राहुल गांधी के शक्ति ऐप को भी ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई. राहुल गांधी की अगुआई में कांग्रेस पहली बार मध्यप्रदेश का चुनाव लड़ रही थी. इस चुनाव में राहुल गांधी ने दर्जन भर से अधिक स्थानों पर सभाएं लीं लेकिन, वे इन सभाओं में वे जनता की नब्ज को पहचान कर बीजेपी पर हमला नहीं बोल सके. उनके निशाने पर सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहे. उनके कंफ्यूजन से भी कांग्रेस बैकफुट पर दिखाई दे रही थी.

शिवराज के पीछे खड़े नजर आए मोदी-शाह

देश में अगले साल लोकसभा के आम चुनाव होना है. इससे पहले हो रहे मध्य प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को सत्ता का सेमीफायनल माना जा रहा है. 2013 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया था. एक तरह से देखा जाए तो मध्य प्रदेश में विधानसभा का पिछला चुनाव मोदी के चेहरे की छाया में हुआ था. हालांकि, राज्य के चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पार्टी की प्रचार सामग्री में मोदी के चेहरे का उपयोग भी नहीं किया था.

शिवराज सिंह चौहान ने अपने चेहरे को ही आगे रखकर चुनाव जीता था. देश में यूपीए सरकार के खिलाफ हवा बह रही थी. इसका लाभ शिवराज सिंह चौहान ने उठाया. तीसरी बार राज्य में बीजेपी की सरकार बनने का श्रेय भी उन्होंने अपने खाते में ही दर्ज किया. इस बार के चुनाव के वक्त नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं. बीजेपी की प्रचार सामग्री में सिर्फ मोदी-शिवराज के चेहरे को ही आगे रखा गया.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अपने भाषणों में मोदी के नेतृत्व को ईश्वर के वरदान के तौर पर जाहिर किया. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने मध्य प्रदेश को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखा था. शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को ही आगे रखकर चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई गई. संघ को साधने का काम भी अमित शाह ने ही किया. मोदी ओर शाह के निशाने पर सिर्फ राहुल गांधी ही रहे. भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा ऐसा कोई चेहरा शिवराज सिंह चौहान के पास नहीं था, जो सभाओं में भीड़ जुटा सकता.