view all

MP चुनाव: हार-जीत के समीकरण पर कितना असर डालेंगे पार्टियों के बागी

टिकट न देने के बावजूद कांग्रेस और बीजेपी इन बागी हुए उम्मीदवारों की 'अदृश्य ताकत' से वाकिफ है तभी मना लेने के बावजूद सतर्क रहने के फॉर्मूले पर काम करेगी

Kinshuk Praval

मध्यप्रदेश में बीजेपी के शासन को 15 साल हो गए हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चौथे कार्यकाल के लिए एड़ी-चोटी को जोर लगा रहे हैं क्योंकि 15 साल बाद अब मुकाबला कड़ा होने जा रहा है. लेकिन बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल उन बागियों की वजह से भी खड़ी हो सकती है, जिनका इस बार टिकट काट दिया गया.

टिकट काटने की चोट गहरी होती है और ये दूर तक मार करती है. यही वजह रही कि बीजेपी से बागी हुए उम्मीदवारों को मनाने में नामांकन वापस लेने की आखिरी तारीख तक बीजेपी जुटी रही. बीजेपी को रूठों को मनाने में कामयाबी भी मिली और जो नहीं मानें तो उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया.


बागियों को मनाने में बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री रामलाल, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर जैसे दिग्गज भी जुटे रहे. किसी ने फोन पर तो किसी ने निजी तौर पर मुलाकात कर मनाने का काम किया. जिसके बाद राघव जी भाई जैसे पूर्व मंत्री ने विदिशा के शमशाबाद से तो कई बागियों ने अपना नामांकन वापस ले लिया. राघव जी भाई ने सपॉक्स की तरफ से पर्चा भरा था.

वहीं बीजेपी ने बड़ी कार्रवाई करते हुए 64 बागियों को पार्टी से बाहर कर दिया. निष्कासित किए हुए लोगों में 3 पूर्व मंत्री भी शामिल हैं. इन सभी को 6 साल के लिए पार्टी से बाहर कर दिया.

सरताज सिंह, केएल अग्रवाल और रामकृष्ण कुसमरिया जैसे पूर्व मंत्री अपने अपने इलाकों के धाकड़ नेता हैं. सरताज सिंह ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया. वहीं ग्वालियर से महापौर समीक्षा गुप्ता और दमोह से रामकृष्ण कुसुमरिया ने निर्दलीय खड़े हो कर बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. ऐसे ही कई सीटों पर उन उम्मीदवारों के लिए हालात बेहद मुश्किल हो जाते हैं जिनके सामने एक तरफ मजबूत विरोधी होता है तो दूसरी तरफ अपनी ही पार्टी का बागी उम्मीदवार भी.  गुना में बमौरी विधानसभा सीट से बीजेपी के पूर्व मंत्री कन्हैया अग्रवाल ने निर्दलीय उतर कर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया. कन्हैया अग्रवाल ने बीजेपी और कांग्रेस के समीकरण ही बिगाड़ दिए हैं.

ऐसे ही हालात कांग्रेस के साथ भी है. कांग्रेस के विधायकों को टिकट न मिलने पर समाजवादी पार्टी ने खुला ऑफर दे रखा है. एसपी चीफ अखिलेश यादव ने कहा है कि जिन्हें कांग्रेस से टिकट नहीं मिले तो वो समाजवादी पार्टी से टिकट ले सकते हैं. हालांकि भोपाल, इंदौर और ग्वालियर जैसे शहरों में सीटें न मिलने से नाराज कई कांग्रेसी नेता रूठने के बाद मान भी गए क्योंकि उन्हें सरकार बनने के बाद सम्मानजनक दर्जा देने का आश्वासन मिला है.

इस बार कांग्रेस सत्ता में वापसी को लेकर सारे तिकड़म भिड़ा रही है. कांग्रेस अब पंद्रह साल से इकट्ठे किए हुए मुद्दों को भुनाने में जोरशोर से जुटी हुई है, क्योंकि उसे सत्ता विरोधी लहर दिखाई दे रही है तो दूसरी तरफ अचानक अवतरित हुई पार्टियां भी समीकरण बिगाड़ने के लिए तैयार दिख रही हैं. चाहे वो सपाक्स हो या फिर जयस या फिर एसपी, बीएसपी और आप. सपॉक्स और आम आदमी पार्टी भी बागियों के बाजार में ऊंची बोली लगा रहे हैं.

कुल मिलाकर बागियों की बल्ले-बल्ले भी है. टिकट न देने के बावजूद कांग्रेस और बीजेपी इन बागी हुए उम्मीदवारों की 'अदृश्य ताकत' से वाकिफ है तभी मना लेने के बावजूद सतर्क रहने के फॉर्मूले पर ही दोनों पार्टियां काम करेंगी. क्योंकि भले ही नामांकन वापस लेने के आखिरी घंटों में रूठों को मना लिया गया लेकिन इसके बावजूद भीतरघात न होने की कोई गारंटी नहीं है. यही वजह है कि बीजेपी ने 64 बागियों को बाहर कर बगावत पर काबू पाने की कोशिश की है.

लेकिन बड़ा सवाल ये भी है कि सुबह के भूले शाम को जब घर वापस लौटेंगे तो क्या वो अपनी सीट पर खड़े दूसरे उम्मीदवार के लिए चुनाव प्रचार करेंगे?

अगर ऐसा होता तो मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान के साले को भी बीजेपी छोड़कर नहीं जाना चाहिए था. लेकिन उन्होंने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया जो राजनीति में देखी जाती रही है. मुख्यमंत्री शिवराज के साले संजय सिंह ने बीजेपी छोड़कर कांग्रेस का 'हाथ' थाम लिया था. संजय का 'वेलकम' करते हुए कांग्रेस ने उनकी पसंदीदा सीट वारासिवनी से टिकट दे दिया.

टिकट पाने के लिए पार्टी छोड़ना एक बेहतरीन शॉर्टकट है. लेकिन इस रिस्क में आसान लोन देने वाली कंपनियों का '*कंडिशन्स अप्लाई' भी साथ में चस्पा होता है. अगर पार्टी छोड़ने वाले नेता का बैकग्राउन्ड और बायोडाटा बड़ा है तो टिकट मिलने की गारंटी भी तभी ही है.

संजय सिंह के कांग्रेस में शामिल होने से दो रणनीतिक चालें भी दिखाई देती हैं. पहली ये कि पार्टी के बाकी असंतुष्टों में ये संदेश जाए कि टिकट बंटवारे में भाई-भतीजावाद नहीं हुआ और पूरी निष्पक्षता के साथ उम्मीदवार की काबिलियत, लोकप्रियता, जातिगत समीकरण देखने और कसौटी पर कसने के बाद ही टिकट दिया गया. ऐसे में मुख्यमंत्री के साले को मिसाल रखते हुए बाकी असंतुष्ट नेताओं में संदेश दिया गया कि मध्यप्रदेश की महाभारत में संजय का भी टिकट काट दिया गया.

वहीं  कांग्रेस में शामिल होने वाले संजय की 'दूरदृष्टी' को देखकर तस्वीर का दूसरा रुख भी समझने की जरूरत है. दरअसल, मध्यप्रदेश की राजनीति में जब किसी एक परिवार का सत्ता में एकाधिकार हो जाता है तो वो दूसरी पार्टी में भी एक सुरक्षित सीट जरूर रखता है. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्वजिय सिंह के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह भी एक बार बीजेपी में शामिल हुए थे तो इसी तरह ग्वालियर में सिंधिया घराने की महारानी विजयराजे सिंधिया के बेटे माधव राव सिंधिया आखिर तक कांग्रेस की नुमाइंदगी करते रहे. अब ऐसी ही मिसालों को आगे बढ़ाते हुए शिवराज परिवार से उनके साले ने कांग्रेस में न सिर्फ अपनी सियासी छांव टटोली बल्कि भविष्य का सेफ एरिया भी तलाश लिया.

भले ही ये अंदरूनी रणनीति का हिस्सा रहा हो लेकिन इससे एक दूसरा संदेश कांग्रेस ने भी लपका. कांग्रेस ने इस घटनाक्रम पर कहा कि खुद शिवराज के परिवार में उनके साले ही बीजेपी सरकार के दोबारा सत्ता में आने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं और तभी उन्होंने कांग्रेस का 'हाथ' थाम लिया. निश्चित तौर पर कांग्रेस में संजय सिंह की एन्ट्री कांग्रेस का राज्य में मनोबल बढ़ाने वाली मानी जा सकती है तो बीजेपी के वो असंतुष्ट जिन्हें टिकट नहीं मिला और जो किसी दूसरी पार्टी में जा भी नहीं सकते वो खुद को ये दिलासा दे सकते हैं कि शिवराज ने अपने साले को भी टिकट नहीं दिया.

बहरहाल, बड़े बागी हैं इस राह पर और उन्हें पार्टी से निकालने भर से ही सत्ता की बाधा रेस पार नहीं की जा सकती है. ये बागी बाहर से भले ही मान जाएं लेकिन भीतर से हिसाब बराबर करने का मौका नहीं चूकेंगे. क्योंकि पिछली बार विधानसभा चुनाव में जब दूसरे का टिकट काटकर इन्हें मौका मिला था तब इनके साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था. ये राजनीति का चरित्र है जो चेहरों का साथ बदलता नहीं है.

बहरहाल,  बीजेपी ने बागियों को छह साल के लिए पार्टी से बाहर कर ये संदेश भी दे दिया है कि लोकसभा चुनाव में भी रिपोर्ट कार्ड ठीक न होने पर सांसदों के टिकट भी कट सकते हैं. यानी साल 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर बीजपी ने विधायकों का टिकट काटकर सांसदों को भी हाई अलर्ट पर छोड़ दिया है.