view all

करुणानिधि का 78 साल का राजनीतिक सफर

एम.करुणानिधि ने देश की राजनीति को गहरे प्रभावित किया है.

सुरेश बाफना

अपनी 92 साल की उम्र में 78 साल लंबा राजनीतिक जीवन जीने वाले पूर्व मुख्‍यमंत्री एम.करुणानिधि ने न केवल तमिलनाडु की राजनीति को बल्कि देश की राजनीति को गहरे प्रभावित किया है. 14 साल की उम्र में हिन्दी-विरोधी आंदोलन से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करके उन्होंने उन लोगों की जिन्दगी में बुनियादी बदलाव संभव किया है, जो पूरी तरह समाज के निचले पायदान पर खड़े हुए थे.

तमिलनाडु में सामाजिक स्तर पर सुधार आंदोलनों की एक लंबी परंपरा रही है. रामास्वामी पेरियार ने समाज में व्याप्त जाति और लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ अहिंसक आंदोलन शुरू किया था, जिसे द्रविड़ आंदोलन के रूप में भी जाना जाता है. करुणानिधि ने भी इस आंदोलन को अपनी फिल्मों व राजनीति के माध्यम से आगे बढ़ाया है. आज जिस मिड-डे मील योजना की बात पूरे देश में हो रही है, उसकी शुरुआत का श्रेय द्रविड़ आंदोलन को ही जाता है.


1969 में पहली बार बने सीएम 

1969 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बनने के बाद करुणानिधि का राजनीतिक जीवन कई उतार-चढ़ावों से गुजरा है. 1967 के बाद से तमिलनाडु की राजनीति एआईएडीएमके और डीएमके के बीच विभाजित रही है और कांग्रेस पार्टी पूरी तरह हाशिए पर जिन्दा है.

1977 में जब दिल्ली में जनता पार्टी की सरकार का गठन हुआ, तब एआईएडीएमके पार्टी कांग्रेस के साथ और डीएमके जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन में थीं. तब डीएमके को केवल एक सीट और एआईएडीएमके को 19 सीटें मिली थीं. गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन के साथ ही करुणानिधि का दिल्ली की राजनीति में प्रवेश हुआ. वे तमिलनाडु में कांग्रेस-विरोध के ध्रुव के रूप में उभरे.

वीपी सिंह को पीएम बनाने में अहम रोल 

1989 को लोकसभा चुनाव के नतीजों में डीएमके पार्टी को एक भी सीट पर विजय ‍नहीं मिल पाई थी, लेकिन करुणानिधि ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने में चौधरी देवीलाल के साथ मिलकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. संसदीय दल की बैठक में देवीलाल को नेता चुना गया था, लेकिन देवीलाल ने नेता चुने जाने के बाद प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार करके वीपी सिंह को नेता बनाने का प्रस्ताव पेश कर दिया था, जिसका करुणानिधि ने समर्थन किया था.

अन्य नेताअों के साथ वीपी सिंह पर करुणानिधि का भी दबाव था कि मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाए. तामिलनाडु में अन्नादुराई के जमाने से पिछड़ों को आरक्षण मिला है. मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने के बाद उत्तर भारत की राजनीति में भी उबाल आ गया.

अचानक बन गए गेमचेंजर 

फिर 1991 के लोकसभा चुनाव में करुणानिधि की पार्टी डीएमके को एक भी सीट पर विजय नहीं मिलीं. नतीजा यह हुआ कि दिल्ली की राजनीति में उनका वजूद काफी कम हुआ. राव सरकार के मंत्री अर्जुन सिंह ने डीएमके नेताअों पर आरोप लगाया था कि राजीव गांधी की हत्या में उनका हाथ था. 1996 के लोकसभा चुनाव में डीएमके को 17 और उसकी सहयोगी तमिल मनीला कांग्रेस को 20 सीटें प्राप्त हुई. दिल्ली में करुणानिधि अचानक प्रधानमंत्री बनाने वाले नेता बन गए.

फिर तमिलनाडु भवन और करुणानिधि देश की राजनीति के केन्द्र में आ गए. करुणानिधि चाहते थे कि वीपी सिंह फिर प्रधानमंत्री बनें, लेकिन वीपी सिंह दिल्ली की रिंग रोड पर चक्कर काटते रहें. वीपी सिंह फिर प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे. अंतत: करुणानिधि के सुझाव पर एच.डी. देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया.

यूपीए सरकार में करुणानिधि की खास भूमिका रही.

फिर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी द्वारा देवेगौड़ा सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद इंद्रकुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनने में भी करुणानिधि ने निर्णायक भूमिका निभाई. इसी दौरान कांग्रेस के नेताअों के साथ उनके रिश्ते बने. ‍

यूपीए और एनडीए दोनों में शामिल

1998 में एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने से अटल बिहारी वाजेपयी की सरकार गिर गई. फिर 1999 के लोकसभा में डीएमके एनडीए का हिस्सा बन गई. 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले ही डीएमके ने एनडीए का साथ छोड दिया. करुणानिधि यूपीए के संस्थापक सदस्यों में एक हैं.

फिर मनमोहन सिंह सरकार में करुणानिधि का दबदबा इतना अधिक था कि वे ही तय करते थे कि उनकी पार्टी से जुड़े मंत्रियों को कौन-से विभाग मिलने चाहिए. मनमोहन सिंह चाहते हुए भी दयानिधि मारन को संचार मंत्रालय से नहीं हटा पाए.

बाद में जब 2जी में भ्रष्टाचार को लेकर विवाद इतना गंभीर हो गया कि डा. मनमोहन सिंह को डीएमके के मंत्री ए. राजा व करुणिानिधि की बेटी कनिमोझी को जेल भिजवाना पड़ा. ऐसी स्थिति में करुणानिधि के सामने कांग्रेस पार्टी से अपना रिश्ता खत्म करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. करुणानिधि आज उम्र के इस पड़ाव पर राजनीतिक अकेलेपन का सामना कर रहे हैं.