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2019 लोकसभा चुनाव: किसान बनाम मंदिर, कौन सा मुद्दा रहेगा हावी

किसान संगठन भी समझ रहें है कि सरकार उनके आंदोलन से घबराई है, लेकिन आम जन को समझाना जरूरी है कि मंदिर से ज्यादा किसान का मुद्दा बड़ा है.

Syed Mojiz Imam

दिल्ली में 29-30 नंवबर को किसानों का मार्च है. दो दिन के इस जमावड़े में किसान अपने मुद्दों पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें कई अहम मसले हैं. किसानों की सबसे अहम मांग है कि 21 दिनों के  भीतर उनके मुद्दों पर संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए.

किसान की मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश लागू की जाए और एमएसपी डेढ़ गुना किया जाए, किसानों का आरोप है कि प्रधानमंत्री अपने वायदों पर खरे नहीं उतरे हैं. जिसमें किसानों की कर्ज माफी एक अहम वायदे में से था.


किसानों का आंदोलन ऐसे समय में हो रहा है जब अयोध्या विवाद को बीजेपी हवा दे रही है. 25 नवंबर को ही अयोध्या में विहिप ने धर्मसभा के जरिए माहौल गरम करने की कोशिश की है. प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर मामले को लटकाने का आरोप लगाया है. हालांकि मामला कोर्ट में लंबित है. 2019 के आम चुनाव में कई अहम मसले हैं. बीजेपी संघ परिवार के समर्थन से राम मंदिर के मसले पर माहौल बनाने की कोशिश कर रही है. वहीं बाकी दल आम आदमी के मसले उठाकर सरकार के खिलाफ एकजुट होने तैयारी कर रहे हैं.

किसान बनाम मंदिर

प्रतीकात्मक तस्वीर

हालांकि किसानों को लेकर सरकार का भी दावा है. सरकार कह रही है कि किसान के कल्याण के लिए बहुत कुछ किया गया है लेकिन किसान सरकार के रवैये से खुश नहीं है. कृषि की लागत बढ़ रही है इसके अनुपात में आमदनी कम है. किसान का मसला अहम है. ये सभी जानते हैं. खासकर चुनाव के मौके पर इसका राजनीतिक दोहन खूब होता है. बाद में सब भूल जाते हैं.

किसान किसी राज्य तक सीमित नहीं हैं बल्कि पूरे देश में समस्या एक जैसी है. मॉनसून आधारित खेती पर किसान की निर्भरता कम नहीं हो रही है. डीजल खाद के दाम लगातार बढ़ने से स्थिति खराब हो रही है. कर्ज में डूबा किसान अपनी जान देने पर तुला है .वहीं सरकार ने भूमिहीन बंटाईदार किसान को किसान की श्रेणी से बाहर रखती है. जो किसान को मिलने वाली सहायता से महरूम है. किसान संगठन गैर सरकारी आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं जिसके मुताबिक 2014 से तकरीबन 50000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. जिसका मूल कारण कर्ज है. किसान नेता सरकार की नियत पर शक कर रहे हैं क्योंकि एनसीआरबी ने किसान आत्महत्या का आंकड़ा जारी करना बंद कर दिया है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ किसान को ही चुनाव के बाद भुला दिया जाता है. शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मंदिर बनाने की बात भुला देने का आरोप लगाया है. अयोध्या में उद्धव ठाकरे का आरोप गंभीर है. शिवसेना सरकार की भागीदार है. नारा भी नया दिया है-पहले मंदिर फिर सरकार. जाहिर है कि सरकार के लिए मुश्किल घड़ी है.

किसान सड़क पर हैं. मंदिर का मुद्दा भी गरम है. विहिप और बीजेपी ने बड़े करीने से अयोध्या को लेकर माहौल बनाने की कोशिश की है. पिछले 6 महीने से प्रयास  हो रहा है लेकिन 25 नंवबर को उम्मीद के मुताबिक जनसमर्थन नहीं मिला है, जिससे संघ परिवार के भीतर निश्चित बातचीत हो रही होगी.

किसान आंदोलन से जुड़े अखिल भारतीय किसान सभा के सचिव पुरुषोत्तम शर्मा ने अपने लेख में लिखा है कि देश के किसानों के गुस्से से घबराकर आज मोदी सरकार एक बार फिर किसानों की एकता को धार्मिक उन्माद और मंदिर मस्जिद का विवाद पैदा कर तोड़ना चाहती है पर देश के 210 किसान संगठनों ने एकताबद्ध होकर सरकार की इस साजिश को चकनाचूर और जवाब देने का संकल्प लिया है. वहीं लाल बहादुर सिंह का कहना है कि सरकार के पास देने के लिए जुमला भी नहीं बचा है.

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति इन 210 संगठनों की कोऑर्डिनेटिंग कमेटी है. इसको लगभग कई गैरएनडीए दलों का समर्थन मिला है.

हालांकि सवाल उठता है कि आम मुद्दे से हटकर केन्द्र सरकार मंदिर का मुद्दा लाने का प्रयास कर रही है तो इसके हामी कई लोग मिल सकते हैं. राम मंदिर का मुद्दा जिस तरह से उठाया जा रहा है उससे साफ है कि सरकार की मंशा यही है.हालांकि सरकार अगर ये सोच रही है कि सिर्फ मंदिर चुनाव वैतरणी पार लगा सकता है तो मंदिर के लिए कोई बड़ा कदम उठाना पड़ेगा,नहीं तो किसान और आमजन का मुद्दा सरकार पर भारी पड़ सकता है.

किसान संगठन भी समझ रहें है कि सरकार उनके आंदोलन से घबराई है, लेकिन आम जन को समझाना जरूरी है कि मंदिर से ज्यादा किसान का मुद्दा बड़ा है. ये आसान नहीं है कि जिस तरह से मंदिर के मसले को तूल दिया जा रहा है उससे आम जनमानस में कौतुहल है. सरकार के अगले कदम पर निगाह है

सरकार बनाम विपक्ष

सरकार और विपक्ष आमने-सामने है. बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड को जवाब देने के लिए गैर-बीजेपी दल धीरे धीरे इकट्ठा हो रहे हैं. इस नए समीकरण को बनने में वक्त लग सकता है .हर दल अपना राजनीतिक गणित लगाने में लगा हुआ है.साउथ में तस्वीर साफ हो रही है, लेकिन उत्तर भारत में कशमकश है.महागठबंधन का मामला यूपी बंगाल,ओडीशा और असम में अधर में है. जहां से तकरीबन 150 सांसद चुने जाने हैं

यूपी में संभावित महागठबंधन की काट के लिए हिदुत्व और मंदिर का कार्ड खेला जा रहा है,एसपी ,बीएसपी के एक होने में बीजेपी की राह दुश्वार हो सकती है.बीजेपी भी इसको समझ रही है.यूपी के गठबंधन का लिट्मस टेस्ट हो चुका है.जिसमें बीजेपी को नुकसान हुआ है.पश्चिम यूपी बीजेपी का गढ़ बन गया था.लेकिन कैराना के उपचुनाव नतीजों ने बीजेपी के लिए मुश्किल पैदा की है.धर्म के नाम पर पश्चिम यूपी में लकीर गहरी हुई थी लेकिन अब पेशे के नाम पर संगठित हुआ है.इसमें हर धर्म के लोग हैं. आरएलडी के मुखिया अजित सिंह कई साल से इस खाई को पाटने में लगे थे. गांव गांव जाकर अपनी जमीन मज़बूत कर रहे हैं.बीजेपी के लिए यूपी में पहले जैसा माहौल नहीं है. हालांकि राजनीतिक  दल अलग लड़े तो फायदा बीजेपी को होगा, लेकिन महागठबंधन की सूरत में बीजेपी का टिकना मुश्किल हो सकता है.

किसान की समस्या रोजी रोटी से जुड़ी है,बल्कि किसान का संगठित होना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है. किसान के संगठित होने से धार्मिक बंधन टूट सकता है,क्योंकि खेती किसानी हर जाति और धर्म के लोग करते हैं ऐसे में किसान बीजेपी के मंदिर मुद्दे का माकूल जवाब बन सकता है.

किसान क्यों नाखुश

किसानों का कहना है कि मोदी सरकार ने नया कुछ नहीं किया है.जो डेढ़ गुना एमएसपी की दुहाई दी जा रही है ये पहले से है. जिसमें नकद लागत और श्रम को जोड़ा गया है. स्वामीनाथन आयोग ने खेत का किराया और बैंक का ब्याज भी जोड़ा था.इस तरह पीएम की आशा योजना में घालमेल है. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से किसान को लाभ नहीं मिल पा रहा है. हालांकि सरकार अपना पीेठ थपथपा रही है.