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लोकसभा चुनाव 2019: क्या बीजेपी के खिलाफ बनेगा तीसरा मोर्चा?

सवाल उठता है कि क्या वजह है कि तीसरे मोर्चे के पैरोकार अचानक ही पीछे हट गए? इसके कई कारण हैं

Aparna Dwivedi

क्या बीजेपी के खिलाफ तीसरा मोर्चा बनेगा? ये एक ऐसा सवाल है जिस पर इस मुद्दे से जुड़ी कोई भी पार्टी गारंटी के साथ बोलने को तैयार नहीं है. कोशिश है, किया जा सकता है पर क्या ऐसा होगा- मामला शायद पर ही अटक जाता है. तीसरा मोर्चा यानी गैर कांग्रेस और गैर बीजेपी दलों की सरकार. इस साल तृलमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने शरद पवार के समर्थन के साथ तेजी से बातचीत शुरू की. लेकिन गाड़ी तो बढ़ी नहीं बल्कि ब्रेक एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के बयान से ही लग गया.

एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने तीसरे मोर्चे को अव्यावहरिक बताते हुए एकजुट विपक्ष की बात कही. उनका कहना है कि 'सबसे पहले मुझे खुद भी महागठबंधन या विकल्‍प के लिए बहुत भरोसा नहीं है. मैं निजी तौर पर महसूस करता हूं कि स्थिति वर्ष 1977 के जैसी है. आप देखिए इंदिरा गांधी एक मजबूत इरादों वाली महिला थीं. आपातकाल के बाद वह प्रधानमंत्री थीं. उस समय कोई राजनीतिक दल नहीं था लेकिन कश्‍मीर से लेकर कन्‍याकुमारी तक जनता ने उनके खिलाफ वोट किया और कांग्रेस की हार हुई.'


तीसरे मोर्चे की कोशिश

हालांकि शरद पवार ने इसे निजी राय बताई लेकिन तीसरे मोर्चे की पूरी कोशिश तभी शुरू हुई थी, जब पवार ने प्रफुल्ल पटेल को ममता बनर्जी से मिलने के लिए भेजा था. उसके बाद ममता बनर्जी ओवरएक्टिव हो गईं और दनादन गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी नेताओं से मुलाकात शुरू कर दी. दिल्ली से हैदराबाद तक के चक्कर लगाए. पार्टियों के नेताओं से मिलीं. शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल (एनसीपी), संजय राउत (शिवसेना), मीसा भारती (आरजेडी), वाईएस चौधरी (टीडीपी), के कविता (टीआरएस), पिनाकी मिश्रा ( बीजेडी), कनिमोझी (डीएमके) से एक के एक बाद मिलीं. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के संपर्क में हैं और तो और दिल्ली में उपराज्यपाल के खिलाफ उनके ही आफिस में धरने पर बैठे अरविंद केजरीवाल से मिली. एक बैठक सोनिया गांधी से भी की. लेकिन उनके इरादा एक ऐसा गठबंधन बनाने का था जिसमें ना कांग्रेस हो ना ही बीजेपी.

एक फार्मूला भी पेश किया जिस के तहत-

1 - 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 31 फीसदी वोट मिले थे. वहीं विपक्ष को 69 फीसदी वोट मिले थे. अगर ये सब एक हो जाए तो बीजेपी को हराना आसान होगा.

2 - जिस राज्य में जो भी पार्टी ताकतवर है वह बीजेपी से सीधे दो-दो हाथ करे.

3 - राज्‍यों में दूसरी पार्टियों को उस पार्टी की मदद करनी चाहिए जो ताकतवर पार्टी है. यानी हर सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार के सामने विपक्ष का एक ही उम्मीदवार हो.

4 - अगर विपक्ष एक हो जाता है तो फूलपुर,गोरखपुर और कैराना में सपा-बसपा के साथ आने से जैसे बीजेपी हारी वैसा ही सब जगह होगी.

हालांकि इस फॉर्मूले पर सिर्फ अखबारों में चर्चा हुई, राजनैतिक पार्टियां इस पर बात करने से कतराती रहीं. तीसरे मोर्चे में प्रधानमंत्री रहे एच डी देवेगौड़ा दोनो तरफ की बात कर रहे हैं. कर्नाटक में कांग्रेस के साथ सरकार बनाने वाली जेडीएस एक तरफ विपक्षी एकता की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस और बीजेपी दोनो से डर भी रहे हैं.

तीसरा मोर्चा खड़ा करने में मुश्किलें

अब सवाल उठता है कि क्या वजह है कि तीसरे मोर्चे के पैरोकार अचानक ही पीछे हट गए? इसके कई कारण हैं. पहला भले ही ये क्षेत्रीय दल एक जैसा सोचते हैं, इनमें से कोई ऐसा दल नहीं है जिसने कभी भी बीजेपी या कांग्रेस का सहयोग नहीं लिया है. मोर्चे में शायद ही कोई पार्टी हो जो अपने दम पर लोकसभा में दस फीसदी सीट जीत पाए. यहां तक कि जिन राज्यों में इनका दबदबा है वहां पर भी ये लोकसभा की सारी सीटें जीतने की कुव्वत नहीं रखती हैं.

दूसरा सबसे बड़ा कारण ये है कि किसी भी क्षेत्रीय पार्टी की पकड़ एक से ज्यादा राज्य में नहीं है. बहुजन समाजवादी पार्टी जिसके वोट फीसदी बाकियों से बेहतर हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के अलावा उनके पास राजनैतिक जीत कहीं नहीं हैं. कांग्रेस और बीजेपी के अलावा राष्ट्रीय पार्टियों में वामदल आते थे लेकिन अब उनका वर्चस्व खत्म हो गया है.

तीसरा सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और बीजेपी अभी भी मजबूत हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव भले ही बीजेपी के नाम रहा लेकिन मात्र 44 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस को खत्म नहीं माना जा रहा है. वो 224 सीटों पर नंबर दो पार्टी रही. यानी कांग्रेस पूरी कोशिश करे तो उसकी वापसी का रास्ता खुला हुआ है. और ये एहसास तीसरे मोर्चे में जुट रही सभी पार्टियों को है.

तीसरे मोर्चे का इतिहास

हालांकि तीसरे मोर्चे की सरकार तो एक बार ही बनी है लेकिन प्रयास तो काफी दशकों से रहा है. पर वो ज्यादातर सांकेतिक प्रयास रहा है और वहां पर भी वामदलों की मुख्य भूमिका रहती थी. साल 1996 में जब पहली बार तीसरे मोर्चे की सरकार बनी तो गैर कांग्रेस और गैर बीजेपी पार्टियां काफी खुश हुई.

यूनाइटेड फ्रंट के नाम से देश में पहली बार ऐसी सरकार बनी थी जिसमें क्षेत्रीय दलों को मुख्य भूमिका निभाने का मौका था. हालांकि गजब अजूबे की सरकार थी. जनता दल, समाजवादी पार्टी, डीएमके, टीडी, एजीपी, ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस( तिवारी), लेफ्ट फ्रंट( चार पार्टियां) तमिल मानिला कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेस, और एमजीपी ने मिल कर 13 पार्टियों का यूनाइटेड फ्रंट बनाया था. इस गठबंधन ने 1996 और 1998 में सरकार बनाई. पहली बार एच डी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने और बाद में आई के गुजराल.

1996 में बीजेपी को 161 सीटें मिली थी लेकिन वो अपना बहुमत साबित नहीं कर पाई और 13 दिन की सरकार गिर गई. कांग्रेस को 140 सीट मिली थी लेकिन उसने सरकार बनाने से इंकार कर दिया लेकिन यूनाइटेड फ्रंट की सरकार को बाहर से समर्थन दिया. एक जून 1996 में बनी सरकार दो प्रधानमंत्रियों के साथ 19 मार्च 1998 तक चली. ये तीसरे मोर्चे की सरकार थी. उसके बाद तीसरा मोर्चे की अपनी सरकार कभी नहीं बनी लेकिन हर लोकसभा चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे की चर्चा जबरदस्त होती है. हालांकि गैर कांग्रेस की सरकार 1977 और 1990 में बनी थी लेकिन उसे तीसरे मोर्चे की सरकार नहीं माना जाएगा.

क्या तीसरे मोर्चे की सरकार सफल थी? इस पर भी वैचारिक मतभेद साफ दिखते थे. वरिष्ठ पत्रकारों का मानना था कि 1996 में प्रधानमंत्री भले ही एच डी देवेगौड़ा थे लेकिन उनकी ही पार्टी के शरद यादव और लालू प्रसाद यादव ज्यादा ताकतवर नेता थे. कैबिनेट के फैसले कुछ होते थे और नेताओं की बैठक में नतीजा कुछ और होता था. मुख्य मुद्दों पर महीनों बहस होती थी.

उसके बाद क्षेत्रीय दलों ने या तो कांग्रेस का हाथ थामा या फिर बीजेपी का. खुलकर नहीं तो लेकिन यूनाइटेड फ्रंट में हिस्सेदार रहे नेताओं का मानना था कि कांग्रेस एक ऐसे गोंद का काम करती है जो सभी क्षेत्रीय पार्टियों को बांधने का काम करती है. मतभेद होते हैं लेकिन सरकार चलती है. यही वजह है कि यूपीए की सरकार दस साल तक देश में राज करती रही.

अब जबकि बीजेपी को पछाड़ना है तो सभी क्षेत्रीय पार्टियां पूरा दम लगा रही हैं. तीसरे मोर्चे का लालच है, क्योंकि अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनी तो काफी क्षेत्रीय पार्टियों को काफी ताकत मिलेगी लेकिन भरोसे की भी कमी है. अपने अपने राज्य में खुदा बनी पार्टियां देश में अपना नाम करना चाहती हैं लेकिन बाकी राज्यों में सिर्फ अपने बल पर उतरने का खतरा उठाने के लिए ना उनमें ताकत है ना हिम्मत. ऐसे में ज्यादातर पार्टियां पहले से आजमाए हुए पार्टी के साथ ही जुड़ना चाहेंगी.