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लोकसभा चुनाव 2019: 'मोदी बनाम राहुल' की लड़ाई की संभावना, क्या बैकफुट पर है BJP?

राहुल गांधी की स्वीकार्यता हाल के दिनों में तेजी से बढ़ी है. लेकिन लोकप्रियता के मामले में वे अब भी प्रधानमंत्री मोदी से बहुत पीछे हैं

Rakesh Kayasth

बीजेपी हमेशा से 2019 की चुनावी लड़ाई को मोदी बनाम राहुल बनाना चाहती थी. कांग्रेसी थिंक टैंक ऐसा नहीं चाहता था. बाकी विपक्षी पार्टियां भी यह कतई नहीं चाहती कि मामला मोदी बनाम राहुल बने. लेकिन ऐसा होता दिख रहा है.

सवाल यह है कि क्या बीजेपी अब वाकई इससे खुश है? शायद उतना नहीं जितना उसे होना चाहिए. कई चिंताएं भी सिर उठा रही हैं. क्या खेल के मोदी बनाम राहुल के ग्राउंड पर आने से कांग्रेस पार्टी परेशान है? शायद उतनी नहीं जितनी पहले थी. वाकई राजनीति पल-पल बदलते हालात का दूसरा नाम है. देश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति पर चर्चा से पहले थोड़ा पीछे लौटते हैं, जहां से मोदी बनाम राहुल या मोदी वर्सेज ऑल की बहस शुरू होती है.


2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से भारतीय राजनीति में एक नया दौर शुरू हुआ, जिसे बिना किसी शक के मोदी युग कहा जा सकता है. नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति के इतिहास में 1984 के बाद का सबसे बड़ा बहुमत लेकर आए. केंद्र में आने के बाद भी उनकी लोकप्रियता लगातार कायम रही.

2017 में यह लोकप्रियता अपने चरम पर दिखी, जब नोटबंदी के तुरंत बाद हुए यूपी विधानसभा के चुनाव में तमाम आकलनों को ध्वस्त करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पार्टी को ऐतिहासिक जीत दिलाई. विजय रथ लगातार आगे बढ़ता गया और बीजेपी ने कई ऐसे राज्यों में सरकार बनाई, जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था.

दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के ऐतिहासिक रूप से खराब प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी हाशिए पर चले गये थे. उनकी छवि एक ऐसे शख्स की बनती जा रही थी जो अपने राजनीतिक करियर को लेकर गंभीर नहीं है. लोकसभा के बाद ज्यादातर राज्यों में मिली नाकामी और बार-बार लंबी छुट्टी पर जाने से राहुल की यह छवि और पुख्ता हुई.

मोदी बनाम राहुल के अपने नैरेटिव का ताना-बाना बीजेपी ने इन्ही बातों को ध्यान में रखकर बुनना शुरू किया था. बीजेपी लगातार यह मानती रही कि `अनाड़ी’ राहुल मोदी के करिश्मे को कभी चुनौती नहीं दे पाएंगे. इसलिए बीजेपी हमेशा यह सवाल पूछती आई कि अगर 2019 में नरेंद्र मोदी नहीं तो फिर कौन होगा?

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यह सवाल कांग्रेस नहीं बल्कि पूरे विपक्ष को असहज करने वाला था, क्योंकि लड़ाई व्यक्ति केंद्रित होते ही अपने आप नरेंद्र मोदी के पक्ष मे झुक जाती. इसलिए कांग्रेस ने एक बार भी राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया. 2014 के बाद कांग्रेस की राजनीतिक ताकत इतनी नहीं रही कि सभी बीजेपी विरोधी दल उसके पीछे चलने में अपना भविष्य देख सकें. इसलिए तमाम दूसरी पार्टियां भी `मोदी के मुकाबले कौन’ वाले सवाल को टालती रहीं. दलील यह दी गई कि जो जहां मजबूत है, वह मोदी के विजय रथ को रोके और प्रधानमंत्री के रूप में विपक्षी उम्मीदवार का फैसला 2019 के नतीजे आने के बाद हो.

राहुल के करियर का टर्निंग प्वाइंट

उधर लगातार मिली नाकामियों के बीच राहुल गांधी मैदान में डटे रहे. 2017 के आखिर में हुआ गुजरात विधानसभा का चुनाव राहुल के करियर का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. यह वही समय था, जब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में उनकी ताजपोशी हुई थी. राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को उनके गढ़ में लगातार ललकार रहे थे.

गुजरात कैंपेन के दौरान राहुल गांधी एक नए अंदाज में नजर आए. सधा लहजा, मुद्दों पर दो टूक बात और कई जगहों पर प्रधानमंत्री मोदी की कॉपी करते हुए उछाले गए तालियां बटोरने वाले जुमले. राहुल ने आवाम से संवाद के अलावा टिकट के बंटवारे से लेकर संगठन को साधने तक राजनीतिक कौशल का भरपूर परिचय दिया. असर यह हुआ कि गुजरात में सत्तारूढ़ बीजेपी को कांग्रेस जबरदस्त टक्कर देने में कामयाब रही. सरकार भले ही बीजेपी की बनी लेकिन राहुल ने ये साबित कर दिया कि वे लड़ना जानते हैं.

गुजरात से शुरू हुआ सिलसिला कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में भी आगे बढ़ा. बेशक बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन कांग्रेस ने चुनाव के बाद अचानक जेडीएस से मिलकर खेल बदल दिया. लगातार इन दो बड़े चुनावों ने राहुल गांधी को नया आत्मविश्वास ही नहीं दिया बल्कि कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं का भरोसा भी उनपर बढ़ा.

कर्नाटक चुनाव के दौरान पूछे गए एक सवाल के जवाब में राहुल ने कहा कि अगर 2019 के नतीजों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है तो यकीनन वे प्रधानमंत्री बनेंगे. यह पहला मौका था, जब राहुल ने खुले तौर पर प्रधानमंत्री बनने को लेकर अपनी दावेदारी पेश की. बीजेपी ने चिर-परिचित अंदाज में इसका मजाक उड़ाया और तीसरे मोर्चे की वकालत कर रही पार्टियां भी इस दावे को लेकर थोड़ी संशकित हो गई. लेकिन 2019 की लड़ाई के मोदी वर्सेज राहुल में तब्दील होने का सिलसिला शुरू हो गया.

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2018 का साल राहुल गांधी के करियर के लिहाज से बेहद अहम रहा है. उनकी स्वीकार्यता बहुत तेजी से बढ़ी है. अलग-अलग सर्वे बता रहे हैं कि राहुल की लोकप्रियता का ग्राफ 200 से 250 प्रतिशत तक चढ़ा है. सीएसडीएस के सर्वे को आधार मानें तो 2017 में नरेंद्र मोदी के 44 फीसदी के मुकाबले राहुल गांधी की लोकप्रियता सिर्फ 9 फीसदी थी.

लेकिन 2018 जुलाई तक इस आंकड़े में भारी बदलाव आ गया. प्रधानमंत्री के रूप में 34 फीसदी के साथ नरेंद्र मोदी अब भी देश की पहली पसंद हैं लेकिन राहुल गांधी की लोकप्रियता 9 फीसदी से बढ़कर 24 प्रतिशत तक आ पहुंची है. इतना ही नहीं इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन सर्वे में मोदी के विकल्प के रूप में 46 फीसदी लोगों ने राहुल गांधी के नाम पर अपनी मुहर लगाई. 2019 की लड़ाई के मोदी बनाम राहुल बनने को लेकर बीजेपी की खुशी और कांग्रेस की आशंका में आए बदलाव के पीछे की असली कहानी यही है.

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राहुल गांधी के आलोचकों की सबसे बड़ी शिकायत उनका कंसिस्टेंट ना होना रही है. उन्हें पसंद करने वाले तक यह कहते हैं कि अपनी कई अच्छाइयों के बावजूद राहुल कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बीजेपी वालों की तरह कामयाबी की भूख नहीं जगा सकते. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वे मोदी-शाह की जोड़ी की तरह मेहनत नहीं कर सकते हैं. यह सच है कि राजनीति के मैदान में पसीना बहाने के मामले में मोदी-शाह का कोई सानी नहीं है. लेकिन पिछले एक-डेढ़ साल में राहुल ने भी दिखाया है कि वे निरंतर सक्रिय रह सकते हैं.

मोदी के खिलाफ राहुल अकेले विपक्षी योद्धा

राहुल सिर्फ सक्रिय ही नहीं हैं बल्कि सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोल रहे हैं. किसानों की आत्महत्या, अर्थव्यस्था में गिरावट, बैकिंग सेक्टर के घोटाले और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कथित रूप से कमजोर किए जाने के तमाम मामलों की जिम्मेदारी राहुल गांधी सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर डाल रहे हैं.

दिलचस्प बात यह है कि राहुल के इस आक्रामक तेवर के बीच बीजेपी विरोधी क्षेत्रीय पार्टियों के बड़े नेता या तो चुप हैं या फिर बहुत नाप-तौलकर बोल रहे हैं. 2019 में बीजेपी का रास्ता रोकने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मायावती-अखिलेश की गठबंधन पर है. लेकिन ये दोनों बीजेपी को लेकर उस तरह आक्रामक नहीं हैं, जिसकी उम्मीद उनके समर्थक कर रहे थे. मायावती ने एकाध बार इस बात के संकेत भी दिए हैं कि वे महागठबंधन से अलग हो सकती हैं.

यही हाल महाराष्ट्र में कांग्रेस की पार्टनर और यूपीए की मजबूत साझीदार एनसीपी का है. पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की. हालांकि उसके बाद कुछ और बयानों के साथ मामला बैलेंस कर दिया. फिर भी 2019 की लड़ाई फिलहाल मोदी वर्सेज ऑल के बदले मोदी बनाम राहुल की तरफ ही बढ़ रही है.

राफेल विमान सौदे में कथित भ्रष्टाचार के मामले में राहुल गांधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री पर सीधे-सीधे भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है, उसने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया है. राहुल के हर आरोप को काउंटर करने के लिए बीजेपी ने वरिष्ठ मंत्रियों और प्रवक्ताओं की फौज उतार रखी है. लेकिन राहुल गांधी के हमले जारी हैं.

खास बात यह है कि तीसरे मोर्चे की वकालत करने वाले चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे बड़े क्षेत्रीय नेताओं नेताओं ने भी इस मामले पर चुप्पी साध रखी है. शरद पवार यह दोहरा ही चुके हैं कि प्रधानमंत्री पर इल्जाम लगाना ठीक नहीं है. ऐसे में राहुल बनाम मोदी की जंग अब किसी के चाहने या ना चाहने का मामला नहीं रह गया है. यह स्वभाविक रूप से आकार लेता जा रहा है.

आखिर बीजेपी चिंतित क्यों है?

अब सवाल यह है कि बीजेपी लगातार जो कथानक लिखने में जुटी थी, उसके आगे बढ़ने पर वह उस कदर जोश में क्यों नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था? पहली बात यह है कि अगर राहुल गांधी अपनी पुरानी इमेज में कैद होते और कांग्रेस पार्टी 2014 की तरह कमजोर होती तो बीजेपी का काम बहुत आसान हो जाता.

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लेकिन अब वह स्थिति नहीं है. गुजरात के अलावा कई उप-चुनावों में कांग्रेस ने इस बात के संकेत दिए हैं कि पार्टी पुनर्जीवित होने के रास्ते पर है. हालांकि कांग्रेस के पक्ष में कोई लहर नहीं है लेकिन उसकी स्थिति बेहतर हो रही है. लेकिन यह बीजेपी की चिंता की सबसे बड़ी वजह नहीं है. सबसे बड़ी वजह यह है कि जिस लार्जर दैन लाइफ इमेज को आगे करके बीजेपी लगातार सफलता के रास्ते पर बढ़ रही है, राहुल गांधी उसे खंडित करने पर तुले हैं.

प्रधानमंत्री मोदी पर राहुल गांधी के ताबड़तोड़ हमलों के जवाब में बीजेपी ने नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ कैंपेन चला रखा है. लेकिन पीएम का लगातार कठघरे में खड़ा किया जाना बीजेपी के लिए एक बेहद परेशान करने वाली बात है. प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी अगर सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा बन गई तो इसका पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. दूसरी तरफ मौजूदा राजनीति के `महानायक’ के खिलाफ सीधी लड़ाई मोल लेना राहुल गांधी के लिए फायदे का सौदा साबित हो रहा है.

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं. इनमें से तीन राज्य ऐसे हैं, जहां बीजेपी की सरकार है. मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए सर्वे में कांग्रेस की स्थिति अच्छी नजर आ रही है. राजस्थान में तो यह लगभग तय माना जा रहा है कि अगली सरकार कांग्रेस की बनेगी.

अगर इन राज्यों की चुनावी रैलियों में राहुल गांधी प्रधानमंत्री को निशाने बनाते रहे और नतीजे बीजेपी के खिलाफ गए तो 2019 से पहले के पॉलिटिकल सेंटीमेंट पर इसका काफी असर पड़ेगा. दूसरी तरफ कांग्रेस की स्थिति मजबूत होगी और महागठबंधन के अगुआ के तौर पर भी राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ सकती है. यकीनन बीजेपी ऐसा किसी भी हालत में नहीं चाहेगी. ऐसे में पांच राज्यों के चुनाव सही मायने में सत्ता का सेमीफाइनल होंगे.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)