खेल चाहे कोई भी हो, एक ही रणनीति सबसे ज्यादा कामयाब होती है. लीड में चल रही टीम जानबूझकर गेम को कुछ वक्त के लिए धीमा कर देती है. इससे सांस लेने और थोड़ा ठहरकर सोचने का मौका मिलता है. दूसरी तरफ विपक्षी कैंप में हताशा बढ़ती है. दबाव में आकर विपक्षी खिलाड़ी खुद-ब-खुद गलतियां करते हैं और आखिर में मैच हार जाते हैं. चुनावी राजनीति भी एक खेल है. मौजूदा दौर में इस खेल के दो चैंपियन हैं और दोनो एक ही टीम में हैं. बिना नाम लिये भी आप समझ सकते हैं कि यहां बात नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी की हो रही है.
पिछले चार साल में मोदी-शाह की जोड़ी ने हर नामुमकिन को मुमकिन करके दिखाया है. बीजेपी अपने विस्तार के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है. केंद्र के साथ बीस से ज्यादा राज्यों में सरकार है. पूर्वोत्तर में त्रिपुरा से लेकर दक्षिण पश्चिम में गोवा तक पार्टी का परचम लहरा रहा है. बीजेपी ने जिस तरह एक के बाद एक करके विधानसभा चुनाव जीते, उसे देखते हुए यह कहा जा रहा था कि 2019 एक तरह से एनडीए के लिए वॉक ओवर होगा. लेकिन पिछले कुछ समय से हालात इस तेजी से बदले हैं कि चार साल में जीत के शानदार रिकॉर्ड के बावजूद बीजेपी के कैंप में हताशा है.
मिडिल ओवर में बिखरती बीजेपी
दरअसल मोदी-शाह की जोड़ी गेम को धीमा करने वाली रणनीति अपनाकर मुकाबले नहीं जीतती है. यह जोड़ी 'अटैक इज द बेस्ट डिफेंस' वाले फॉर्मूल में यकीन रखती है. मैदान कोई भी हो इरादा हर गेंद पर सिक्सर लगाने का होता है. अब तक यह शैली कारगर साबित हो रही थी, लेकिन लोकसभा उप-चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद इसे लेकर गंभीर सवाल उठ रह रहे हैं.
हिंदुत्व की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में हार के बाद यह पूछा जा रहा है कि कहीं बीजेपी Middle over collapse की शिकार तो नहीं हो रही है? जबरदस्त ओपनिंग के बाद बीच के ओवरों में बीजेपी लगातार विकेट गंवा रही है. सवाल यह भी है कि इस बिखराव के साथ भला बीजेपी 2019 का मुकाबला किस तरह जीत पाएगी?
किसी भी विश्लेषण से पहले यह याद रखना चाहिए कि भारतीय राजनीति हवा, लहर और आंधी जैसे विशेषणों के आगे ठोस अंकगणित पर चलती है.
अंकगणित का मतलब है, विविधता भरे समाज के अलग-अलग समूहों का एक-दूसरे से जुड़ना या अलग होना. 2014 से पहले नरेंद्र मोदी के पक्ष में अभूतपूर्व किस्म का जनसमर्थन था, लेकिन मोदी की आंधी में विश्लेषकों को यह याद नहीं रहा कि पर्दे के पीछे अमित शाह ने चुनावी अंकगणित बिठाने के लिए कितनी मेहनत की थी.
यूपी में अपना दल से लेकर बिहार में उपेंद्र कुशवाहा के राष्ट्रीय लोक समता पार्टी तक छोटे-छोटे जातीय समूहों वाली पार्टियों को शाह ने एनडीए से जोड़ा था, तब जाकर 2014 का ऐतिहासिक नतीजा सामने आया था. लेकिन 2019 से पहले अंकगणित आश्चर्यजनक ढंग से विपक्ष के लिए सही बैठता दिख रहा है. सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
लगातार मिट रही हैं विपक्षी दलों की दूरियां
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर-प्रदेश की दो सबसे बड़ी पार्टियां पिछले पच्चीस साल से एक-दूसरे को अपना शत्रु मानती आई थीं. समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ जा सकती थी, लेकिन बहुजन समाज पार्टी के साथ जाने को तैयार नहीं थी. बहुजन समाज पार्टी का रुख बहुत साफ था- कांग्रेस नागनाथ, बीजेपी सांपनाथ, फिर भी दोनो के साथ एडजस्टमेंट संभव है, लेकिन समाजवादी पार्टी के साथ बिल्कुल नहीं.
लेकिन अचानक कुछ ऐसा हुआ कि सपा-बसपा ने हाथ मिला लिया और राष्ट्रीय राजनीति रातों-रात बदल गई. सपा-बसपा ने निर्जीव विपक्ष में एक ऐसी जान फूंकी है कि बीजेपी को रोकने के लिए तमाम विपक्षी पार्टियां हर मुमकिन तालमेल के लिए तैयार दिख रही हैं. कर्नाटक में कांग्रेस ने बड़ा दिल दिखाते हुए सीएम की कुर्सी जेडीएस को सौंप दी, ताकि बीजेपी सत्ता में ना आ पाये.
राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और बसपा के बीच चुनाव तालमेल की खबरें तेज हैं. इन राज्यों में बसपा का वोट बैंक कांग्रेस के पक्ष में निर्णायक भूमिका निभा सकता है. और तो और यूपीए सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाकर सत्ता में आई आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच भी 2019 के चुनाव के लिए सीट शेयरिंग की खबरें जोर पकड़ चुकी हैं.
गौर करने वाली बात है कि जो पिछले 25 साल में नहीं हुआ वह रातों-रात कैसे हो गया? जवाब यह है कि पिछले 25 साल में केंद्र में कोई ऐसी सरकार नहीं रही जो पूरे भारत पर एकछत्र राज को लेकर इतनी ज्यादा आक्रामक रही हो. कोई ऐसी पार्टी नहीं रही जिसने सारे विरोधियों को मटियामेट करने का अपना इरादा बीजेपी की तरह सार्वजनिक किया हो. बीजेपी के शीर्ष नेताओं के भाषणों पर गौर कीजिये. वे हमेशा अपनी सरकार के कार्यक्रम और नीतियों से ज्यादा बात कांग्रेस मुक्त भारत पर करते हैं. अमित शाह तो विपक्षी नेताओं की तुलना उन जानवरों से कर चुके हैं जो बाढ़ में जान बचाने के लिए किसी पेड़ के नीचे इकट्ठा हो जाते हैं.
ज़ाहिर है, विपक्षी पार्टियां लगातार यह संदेश ग्रहण कर रही हैं, अगर एकजुट ना हुई तो उन्हे मिटा दिया जाएगा. एकता की कोशिशों के बीच इनकम टैक्स के छापे या पुराने मुकदमों का खुलना महज संयोग हो सकते हैं. लेकिन संदेश लगातार यही जा रहा है कि बीजेपी येन-केन-प्रकारेण विरोधियों को डराने की कोशिश कर रही है. यह डर विरोधियों की एकजुटता को मजबूत कर रहा है और इसका नुकसान किसी और को नहीं बल्कि केवल बीजेपी को हो रहा है.
मोदी वर्सेज ऑल का आत्मघाती नारा
यूपी के जिन तीन लोकसभा उपचुनावों में बीजेपी की हार हुई है, वह बिना विपक्षी एकता के मुमकिन नहीं थी. अगर कांग्रेस और जेडीएस ने कर्नाटक विधानसभा का चुनाव मिलकर लड़ा होता तो उन्हे 55 परसेंट से ज्यादा वोट मिलते और बीजेपी सीटों के लिहाज से बहुत छोटे आंकड़े में सिमट चुकी होती. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी कर्नाटक की 28 में से 17 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. लेकिन चुनावी पंडितों का मानना है कि अगर कांग्रेस-जेडीएस का गठबंधन लोकसभा चुनाव तक जारी रहा तो बीजेपी कर्नाटक से सिर्फ 6 सीटें हासिल कर पाएगी.
बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा चिंताजनक आंकड़े उत्तर प्रदेश के हैं. सपा-बसपा गठबंधन के बाद विपक्ष वोट शेयर के हिसाब से करीब साठ सीटों पर बेहद मजबूत नजर आ रहा है. कुछ चुनावी पंडितों को मानना है कि अगर विपक्ष की ताकत को इकट्ठा किया जाये तो देशभर की 543 लोकसभा सीटो में 429 सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी को बेहद कड़ी टक्कर मिलती नजर आ रही है.
बीजेपी के लिए ऐसे हालात कोई अचानक नहीं बने हैं. 2014 के चुनाव के प्रचंड बहुमत के बाद शायद पार्टी ने यह मान लिया था कि यह समर्थन अनकंडीशनल और अनिश्चितकालीन है. इस अति आत्मविश्वास ने बीजेपी नेताओं को 'मोदी वर्सेज ऑल' का आत्मघाती नारा गढ़ने को प्रेरित किया. बीजेपी के कोर वोटर्स को यह नारा पसंद आ सकता है, लेकिन बीजेपी जैसे-जैसे 'मोदी वर्सेज ऑल' के रास्ते पर बढ़ रही है, नये साझीदारों के एनडीए से जुड़ने की संभावनाएं खत्म होती जा रही हैं.
लगातार कमजोर होता एनडीए
पिछले चार साल में बेशक बीजेपी ने बहुत से विधानसभा चुनाव जीते हों लेकिन गठबंधन के रूप में एनडीए को नहीं संभाल पाई है. दक्षिण के ताकतवर नेता चंद्रबाबू नायडू अलग हो चुके हैं. नीतीश कुमार ने एलान कर दिया है कि बिहार में 2019 का चुनाव एनडीए को उन्हीं के नेतृत्व में लड़ना होगा और जेडीयू का दावा 25 सीटों का है.
साफ है, नीतीश बीजेपी की मजबूरी का फायदा उठाकर अपनी पार्टी के लिए एक बेहतर सौदा करना चाहते हैं. रामबिलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे पार्टनर भी इस बात का संकेत दे रहे हैं कि वे हवा का रुख भांपकर आगे कोई भी फैसला ले सकते हैं. शिवसेना ने पालघर लोकसभा का उपचुनाव एनडीए से अलग होकर लड़ा और बीजेपी को अच्छी-खासी टक्कर देने में कामयाब रही.
हालांकि शिवसेना अब भी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकारों में शामिल है लेकिन वह बीजेपी के खिलाफ बाकी विपक्षी पार्टियों के मुकाबले कहीं ज्यादा मुखर है. यानी एनडीए में इस वक्त कोई ऐसी पार्टी ढूंढना मुश्किल है, जो यह खुलकर दावा करे कि वह बीजेपी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है.
जो पार्टियां एनडीए में मौजूद हैं, वे भी लगातार यह शिकायत कर रही हैं कि बीजेपी गठबंधन धर्म भूल चुकी है. यह बात बहुत साफ है कि बिना किसी चमत्कार के 2019 में बीजेपी का अपने दम पर सत्ता में पहुंच पाना कठिन है. फिर विपक्ष पर लगातार हमलावर होने के बदले बीजेपी फिलहाल अपना घर संभालने पर ध्यान क्यों नहीं दे रही है, यह एक ऐसा सवाल है, जिसपर थिंक टैक को सोचना होगा.
हर चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न क्यों?
फ्रंट फुट पर खेलने की अभ्यस्त शाह-मोदी की जोड़ी ने हर चुनाव को पूरी ताकत से लड़ा है. विधानसभा और लोकसभा उप-चुनाव नहीं दिल्ली नगर निगम के चुनाव तक में अमित शाह जी-जान लड़ाते नजर आये. बेशक शीर्ष नेतृत्व का 'किलर इंस्टिंक्ट' कार्यकर्ताओं में एक नया जोश भरता है, लेकिन अगर हर चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बनेगा तो प्रतिकूल परिणाम उतनी ही हताशा भी पैदा करेंगे.
गुजरात की राज्यसभा सीट पर कांग्रेस के अहमद पटेल को हरवाने के लिए बीजेपी ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया.
साम-दाम दंड-भेद के नाकाम होने के बाद यहां पार्टी की काफी किरकिरी हुई. कुछ ऐसा ही मामला कर्नाटक का भी रहा. अगर बीजेपी यह एलान करती कि जनादेश कांग्रेस के खिलाफ है. हम सबसे बड़ी पार्टी हैं, फिर भी बहुमत ना होने की वजह से हम विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे तो इसका राष्ट्रीय स्तर पर बहुत अच्छा संदेश जाता, लेकिन बीजेपी ने सरकार बनाने के लिए हर संभव पैंतरे आजमाये और आखिरकार उसे अपमानित होकर पीछे हटना पड़ा.
चुनावी जंग दो ही तरीके से जीती जा सकती है. पहला तरीका, जनमत को अपने पक्ष में मोड़ना. दूसरा, तालमेल के जरिये अंकगणित अपने पक्ष में बिठाना. हाल के दिनों नाकामियों के बावजूद जनमत अब भी प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में है. लेकिन हमेशा बना रहेगा इस बात का दावा कोई नहीं कर सकता. जनमत को अपने पक्ष में बनाये रखने के साथ बीजेपी को अंकगणित पर भी काफी मेहनत करनी पड़ेगी.
शतरंज के खेल का एक नियम है-सबसे बड़ा मोहरा यानी वज़ीर सीधे मैदान में नहीं उतरता. किलेबंदी प्यादों से की जाती है. हमलावार घोड़ा और ऊंट जैसे बाकी मोहरे होते हैं. वज़ीर निर्णायक चाल चलता है. क्या प्रधानमंत्री मोदी से आनेवाले दौर में ऐसी निर्णायक चाल देखने को मिलेगी या फिर वो आनेवाले विधानसभा चुनावों में भी जी-जान लड़ाकर हमेशा की तरह फ्रंटफुट पर खेलेंगे? मेरे हिसाब से चिर-परिचित कार्यशैली का बदलना थोड़ा मुश्किल है.