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आडवाणी की यात्रा में कई पड़ाव...राष्ट्रपति पद तो एक मोड़ था

शायद अब सियासत की एक किताब लिखी जा सकती है – नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन.

Kinshuk Praval

जो कभी कल्पवृक्ष था आज वो किसी वटवृक्ष की तरह झुका हुआ दिखाई दे रहा है. जो कभी पार्टी के लिए लौहपुरुष था आज वो मोम सा पिघला हुआ नजर आ रहा है. जो कभी पार्टी के इतिहास का अहम अध्याय रहा आज वो अपने युग को खुद को पीछे छूटता हुआ देख रहा है.

लालकृष्ण आडवाणी एक नाम लेकिन 37 साल की हो चुकी बीजेपी के इतिहास के पन्नों में अलग-अलग भूमिकाओं का किरदार. कभी लौहपुरुष, कभी सारथी, कभी कर्णधार, कभी भीष्म पितामह और अब मार्गदर्शक.


राजनीति की विडंबना देखिये कि जिस आडवाणी को विरासत में वो बीजेपी मिली थी जो '84 में इंदिरा लहर में ऐसी डूबी कि सिर्फ दो नेता ही संसद पहुंच सके थे. उसी बीजेपी को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाले आडवाणी आज राजनीतिक शून्य पर अपने मौन के साथ एक सवाल बन चुके हैं.

अाडवाणी के सियासी सफर पर अब 'पूर्ण विराम'

भाग्य और सियासत के खेल का इत्तेफाक है कि अपनी पार्टी को पहला प्रधानमंत्री देने वाला आज राष्ट्रपति बनने की राह पर देखा भी नहीं जा सका. ‘आडवाणी युग’ पीएम-इन-वेटिंग के साथ इतिहास में समा गया.

साल 2002 का वो दौर जब वाजपेयी, आडवाणी और भैरोसिंह शेखावत की त्रिमूर्ति हुआ करती थी उस वक्त एनडीए ने एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया था. आज जब बीजेपी खुद सत्ता के शिखर पर है और जहां सहयोगियों के समर्थन की बैचेनी नहीं है तो राष्ट्रपति के नामों की फेहरिस्त में भीष्म पितामह का नाम कहीं नहीं होना संवेदनाओं में कोलाहल पैदा करता है. केंद्र सरकार का पुरजोर विरोध करने वाली टीएमसी नेता ममता बनर्जी तक लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति पद का सबसे अच्छा उम्मीदवार मानती हैं. ऐसे कई नाम हैं जिनके मन में ये टीस है कि राष्ट्रपति पद के लिये आडवाणी से बेहतर दूसरा नाम कोई नहीं हो सकता था फिर ये फैसला क्यों?

दरअसल सियासत विडंबनाओं का खेल है तो यहां भी इतिहास खुद को दोहराता है. सत्तर के दशक का एक वो दौर था जब जनसंघ से बलराज मधोक को बाहर का रास्ता दिखाया गया था और उस समय आडवाणी ही जनसंघ के अध्यक्ष थे.बलराज मधोक ने जनसंघ को मजबूत करने और खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. उनकी अहमियत का अंदाजा ही सिर्फ इस बात से लग सकता है कि जब बलराज मधोक जनसंघ के अध्यक्ष थे तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय महामंत्री हुआ करते थे. लेकिन समय का फेर ऐसा चला कि भारतीय जनसंघ का पहला घोषणापत्र लिखने वाले बलराज मधोक को अपनी ही पार्टी से आडवाणी विरोध की वजह से निष्कासन झेलना पड़ा. जनसंघ के कानपुर अधिवेशन में आडवाणी  अध्यक्ष बने और उनका नाम अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रस्तावित किया. बलराज मधोक राजनीतिक वनवास की तरफ बढ़ गए तो आडवाणी सियासत की यात्रा में साल 2005 तक शीर्ष पर पहुंच गए.

पहले बलराज मधोक पार्टी के लिए अप्रासंगिक हुए तो अब लालकृष्ण आडवाणी के साथ वैसी ही स्थिति देखी जा सकती है.

बीजेपी में 'आडवाणी युग'

1980 में जनसंघ के इतिहास को पीछे छोड़कर बीजेपी की शुरुआत हुई. पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी बने तो आडवाणी महासचिव. लेकिन 1984 में मिली करारी हार में वाजपेयी भी चुनाव हार गए थे. जिसके बाद आडवाणी को पार्टी की जिम्मेदारी मिली. यहां से शुरू हुआ बीजेपी में नया युग. सारथी की भूमिका में थे लालकृष्ण आडवाणी. 1989 के लोकसभा चुनावों में 86 सीटें जीतकर बीजेपी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी.

बीजेपी को आडवाणी रफ्तार दे चुके थे. 1990 में उन्होंने रथयात्रा की शुरुआत की. राम आंदोलन को देशभर में गूंज देने वाला नाम बना लालकृष्ण आडवाणी. बीजेपी का देश के कोने-कोने में प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ. साल 1999 में केंद्र में सरकार बनी तो वाजपेयी पीएम हुए और आडवाणी गृहमंत्री बनाए गए. 2004 में सत्ता से बाहर होने पर नेता विपक्ष बने. लेकिन वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद आडवाणी पीएम नहीं बन सके. साल 2009 का चुनाव उनके नाम और चेहरे पर लड़ा गया. लेकिन बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं कर सकी.

पीएम, प्रेसिडेंट पद के सिवाए सारी पद-प्रतिष्ठा हासिल की

आडवाणी अपने सियासी सफर में कई अहम पदों पर रहे. 1977 में सूचना प्रसारण मंत्री बने तो साल 2002 में उप-प्रधानमंत्री बने. लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के आगे हमेशा भाग्य आड़े आया. वाजपेयी जी के सियासत में रहते हुए वो पीएम पद के बारे में सोच नहीं सकते थे और अब जब बीजेपी देशभर में जिस तरह से जीतते हुए अपना विस्तार कर रही है उसके बावजूद आडवाणी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नहीं बन सके.

जिस राम आंदोलन ने उन्हें कट्टर हिंदू नेता की छवि दी, आज अतीत का वही आंदोलन उन्हें राष्ट्रपति भवन की बजाए अदालत के दरवाजे पर ले जा चुका है. लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ बाबरी ढांचे को गिराने की आपराधिक साजिश रचने का केस शुरु हो गया है.

राजनीति में उम्र का तजुर्बा ही वरिष्ठता का आधार होता है. लेकिन अब सियासत भी 75 साल से ऊपर की उम्र वालों के लिये रिटायरमेंट का अहसास कराने लगी है. आडवाणी ने अपनी आत्मकथा लिखी थी –माई कंट्री माई लाइफ. शायद अब किताब और लिखी जा सकती है – नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन.

90 साल की उम्र में भी वही तेजी

90 साल की उम्र में भी आडवाणी हमेशा एक्टिव रहते हैं. चाहे संसद में उनकी मौजूदगी हो या फिर बाबरी मामले में कोर्ट में पेश होने का ही मामला क्यों न हो, आडवाणी किसी को शिकायत का मौका नहीं देते. उम्र उन पर हावी नहीं हो सकी.

बस एक सच्चाई उन्हें भी महसूस करनी होगी कि जब परिवर्तन का दौर हो तो इंसान को अपनी जगह पर स्थिर हो कर गतीयमान दृश्यों को देखना चाहिये. वो पार्टी खड़ी कर चुके हैं और इसका क्रेडिट उनसे कोई भी नहीं छीन सकता. खुद सेंट्रल हॉल में पीएम मोदी भावुक हो गए थे जब उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी का जिक्र किया था.

बीजेपी के संस्थापक वाजपेयी और आडवाणी हमेशा भावी पीढ़ी के लिए आदर्श रहेंगे. भले ही आडवाणी राष्ट्रपति नहीं बन सके लेकिन उनका कद देश की राजनीति में कभी छोटा नहीं हो सकता. वो सिर्फ मार्गदर्शक नहीं हैं बल्कि नई पीढ़ी के लिये मिसाल भी हैं जो उनके सफर से सियासत की करवटों को पढ़ना सीख सकती है.