अक्टूबर की बात है. छत्तीसगढ़ युवजन आयोग के अध्यक्ष और बस्तर के 22वें राजा कमलचंद भंजदेव जिले में आयोजित एक मुरिया दरबार में मुखिया, मांझी, चाल्किन तथा मेमरिन( ये आदिवासी समाज में विभिन्न पदों के नाम हैं) की समस्याओं को सुन रहे थे. भंजदेव ने बताया, 'पुराने वक्त में हमलोग समस्याओं की सुनवाई करते थे और फौरन ही उनका समाधान कर देते थे.' दरबार लगाना एक सालाना रस्म है. दशहरे के वक्त दरबार लगता है. इस समय पूरे बस्तर संभाग से आदिवासी समाज के लोग राज-परिवार के सम्मान में एकजुट होते हैं और राजा को आपसी विवादों के बारे में बताते हैं.
छत्तीसगढ़ में 12 और 20 नवंबर को विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं. खबर गर्म थी कि भंजदेव को बस्तर से बीजेपी का टिकट मिल सकता है. इसी अटकल के पेशेनजर अक्टूबर महीने में दरबार लगा था. लेकिन 20 अक्टूबर के दिन अटकल को विराम लग गया, बीजेपी ने संतोष बाफना को बस्तर से अपना उम्मीदवार बनाया.
आदिवासी बहुल कांकेड़ राज के शासक भानुप्रताप देव सन् 1951 तथा 1962 में विधायक चुने गए थे. कांकेड़ की सीट बाद में आदिवासी उम्मीदवार के लिए आरक्षित हो गई और कांकेड़ राज के उत्तराधिकारी सत्ता तथा सियासत से बाहर हो गए. आदिवासी अधिकारों की दुहाई देने वाले बस्तर इस्टेट के शासक प्रवीरचंद भंजदेव 1957 में जगदलपुर से निर्वाचित हुए थे लेकिन पार्टी के कामकाज से असंतुष्ट होकर उन्होंने 1959 में इस्तीफा दे दिया था.
उस वक्त प्रवीरचंद को अहसास हुआ कि राजसत्ता बस्तर के संसाधनों का बड़ी बेरहमी से दोहन कर रही है और इसकी काट के लिए आदिवासियों का एक राष्ट्रीय मंच बनाना जरूरी है. उनके संगठन ने 9 उम्मीदवारों का नेतृत्व किया और अविभाजित मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में इन उम्मीदवारों की मदद की.
प्रवीरचंद 25 मार्च 1966 को पुलिस फायरिंग के दौरान अपने राजमहल की सीढ़ियों पर ही मारे गए. उनके साथ आदिवासी समाज के कई पुरुष, स्त्री तथा बच्चे भी मारे गए. इसके बाद बस्तर के राजपरिवार ने सक्रिय राजनीति से अपने कदम वापस खींच लिए.
फिलहाल प्रवीरचंद के वंशज कमलचंद भंजदेव सूबे की राजनीति में सक्रिय हैं. वे 2013 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी में शामिल हुए. कमलचंद भंजदेव आखिरी महाराजा भरतचंद्र भंजदेव (1970-’96) के बेटे हैं.
विपक्ष के नेता टीएस भंजदेव भी मौजूदा विधानसभा चुनावों में भाग ले रहे हैं. वे सरगुजा के राजपरिवार के वंशज हैं. उन्हें सूबे में कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में एक माना जा रहा है.
राज गया मगर शासन जारी रहा
'वे दिन गए जब कोई कोख से ही राजा-रानी बनकर पैदा होता था. रियासतों का खात्मा हो चुका है. टीएस भंजदेव राजा रहे हैं तो फिर कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार क्यों नहीं घोषित किया.' यह कहना है कि छत्तीसगढ़ के पंचायत मंत्री अजय चंद्राकर का.
बहरहाल, टीएस देव का कहना है कि सूबे की सरकार के मुखिया को चुनने का एक संवैधानिक तरीका है. चुनकर विधानसभा में आने वाले विधायक किसी एक को सर्व-सहमति से अपना नेता चुनते हैं. कांग्रेस इसी तरीके का पालन करेगी.
छत्तीसगढ़ में आदिवासी समाज के राजपरिवारों ने आजादी के बाद अपनी रियासत तो खो दी लेकिन इस इलाके में अब भी उनका दबदबा कायम है और इलाके की विधानसभा सीटों के लिए चलने वाली चुनावी राजनीति पर इसका असर पड़ता है. सरगुजा से लेकर बस्तर तक राजे-महाराजों का सूबे की राजनीति में दखल कायम है.
राजनीति विज्ञानी ब्रजेन्द्र शुक्ल का कहना है, 'छत्तीसगढ़ में ज्यादातर रियासतों ने राजनीति में कठिन मेहनत से जगह बनाई है. राजपरिवार का होने भर से इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि आपको राजनीति में भी खास मुकाम हासिल होगा.'
रियासतों के दबदबे वाले बहुत से इलाकों में सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई हैं. इस कारण राजपरिवारों के उत्तराधिकारी सत्ता से बाहर हो गए हैं लेकिन सरगुजा सरीखे जिलों में अब भी राजनीति रियासतों के इर्द-गिर्द ही घूमती है.
सरगुजा मे कांग्रेस, जसपुर में संघ
सन् 1951 में छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी रियासत सरगुजा के शासक रामानुज शरण सिंह इलाके से पहली दफे विधायक चुने गए. बाद के वक्त में उनकी पत्नी महारानी देवेन्द्र कुमारी ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और विधायक चुने जाने पर मंत्री बनीं. उमेश्वरशरण सिंह तथा महारानी देवेन्द्र कुमारी सिंहदेव राजनीति में सक्रिय रहे लेकिन 1957 में सरगुजा की लोकसभा सीट तथा इसके अंतर्गत आनेवाली ज्यादातर विधानसभा की सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गईं और इस तरह राजपरिवार सत्ता की दौड़ से बाहर हो गया.
साल 2008 में सरगुजा संभाग की अम्बिकापुर सीट अनारक्षित हुई तो कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर से राजपरिवारों का रुख किया और टीएस सिंह देव को उम्मीदवार बनाया. टीएस सिंहदेव ने बीजेपी के अनुरागसिंह देव को 980 वोटों से हराया. साल 2013 में टीएस सिंहदेव फिर विजयी हुए. उन्होंने इस बार अनुराग सिंहदेव को 19558 मतों के भारी अंतर से पराजित किया. इस बड़ी जीत के बाद टीएस सिंहदेव को सूबे की विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया गया.
सिंहदेव राजपरिवार ही राजनीति में कामयाबी हासिल करने वाला एकमात्र परिवार नहीं है. सरनगढ़ इस्टेट के राजा नरेशचंद्र सिंह सरनगढ़ से ही 1951 में हुए पहले चुनाव में विधायक बने थे. इसके बाद वे लगातार तीन दफे चुनाव जीते. 1969 में वे 13 दिनों के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे. उनकी बेटी कमला देवी, रजनीगंधा और पुष्पादेवी सिंह ने भी राजनीति में कदम रखा और पुष्पादेवी चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचीं. स्वर्गीय नरेशचंद्र के दामाद डॉ. प्रवेश मिश्रा, जिनकी शादी राजा नरेशचंद्र की चौथी बेटी मेनका देवी से हुई है राजनीति में सक्रिय हैं. उनकी बेटी भी राजनीति में हैं.
कोरिया राजपरिवार के रामचंद्र सिंहदेव ने भी 1967 में विधानसभा चुनावों में कामयाबी हासिल की थी और वे सरकार में 16 विभागों के मंत्री बने थे. उन्होंने छह चुनावों में जीत हासिल की और कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाला. वे छत्तीसगढ़ के पहले वित्तमंत्री भी बने. चुनावों में शराब बांटने के चलन का विरोध करने वाले रामचंद्र सिंह देव ने बाद के वक्त में राजनीति से संन्यास ले लिया. इस साल जुलाई में उनकी मृत्यु हुई है. इसके बाद उनकी भतीजी अंबिका सिंहदेव बैंकुंठपुर की सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं.
जसपुर राजपरिवार के विजयभूषण सिंहदेव 1952 में पहली बार जसपुर से विधायक चुने गए, 1957 में भी यहीं से विधायक बने फिर 1962 में रायगढ़ से सांसद निर्वाचित हुए. विजयभूषण सिंहदेव के बेटे दिलीप सिंह जुदेव जनसंघ के जमाने से ही राजनीति में थे और जसपुर राजपरिवार से राजनीति में आने वाले सदस्यों में सबसे प्रसिद्ध हैं. उन्होंने इलाके में आदिवासियों के धर्म-परिवर्तन के खिलाफ अभियान चलाया और राजनीति में प्रवेश के लिए इसका इस्तेमाल किया.
साल 1989 में जुदेव जांजगिर सीट से लोकसभा के लिए चुने गए लेकिन 1991 में हार गये. बाद में, बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया. उन्होंने केंद्रीय मंत्री के रूप में भी काम किया और सूबे के मंत्रिमंडल का भी हिस्सा रहे. जुदेव मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदारों में थे लेकिन रिश्वतखोरी के एक मामले में नाम उछलने के बाद राजनीति में उन्हें किनारे कर दिया गया. कहा जाता है कि रिश्वतखोरी के इस कांड में उन्होंने कहा था, 'रुपया खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं.' बाद के वक्त में वे बिलासपुर से निर्वाचित हुए और बीमारी के कारण 2013 में उनकी मृत्यु हो गई.
जूदेव की मृत्यु के बाद खाली हुई सीट से उनके भतीजे रणविजय सिंह जुदेव राज्यसभा के सांसद बनाये गए. दिलीप सिंह जुदेव के बेटे युद्धवीर सिंह चंद्रपुर सीट से दो दफे विधायक रहे हैं. साल 2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने युद्धवीर सिंह की पत्नी संयोगिता सिंह को चंद्रपुर से अपना उम्मीदवार बनाया है.
खैरागढ़ की रियासत कई राजनीतिक खेमों में बंटी है लेकिन यहां की सीट पर विधानसभा के चुनावों में राजपरिवार के ही सदस्यों को कामयाबी मिली है. रश्मि देवी सिंह ने खैरागढ़ सीट से चार दफे जीत दर्ज की है और उनके बेटे देवव्रत सिंह तीन बार चुनाव जीते हैं. इसके अतिरिक्त रायबहादुर बीरेन्द्र बहादुर सिंह भी 1951 में हुए पहले चुनाव में खैरागढ़ से निर्वाचित हुए हैं.
( लेखिका रायपुर की हुए स्वतंत्र पत्रकार हैं और ग्राउंड रिपोर्टर्स के अखिल भारतीय नेटवर्क 101Reporters.com की सदस्य हैं)