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केरल: मोदी 'उफान' में अंतिम किला ढहने की आशंका से चिंतित है CPM?

केरल में राजनीतिक हत्याओं का लंबा इतिहास है. जब जिस भी पार्टी की सत्ता आती है उसपर अपने विरोधियों की हत्या करवाने के आरोप लगते हैं

Debobrat Ghose

दक्षिण भारतीय राज्य केरल कुरुक्षेत्र बना हुआ है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-बीजेपी के बीच खूनी खेल जारी है. क्या इस खूनी खेल के पीछे कोई और भी छुपी हुई कहानी है?

आरएसएस का दावा है कि सीपीआई(एम) की अगुवाई में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की सरकार वाले केरल में 2016 के अक्टूबर से उसके 14 कार्यकर्ता मार दिए गए हैं. आरएसएस का यह भी कहना है कि केरल में 2016 में एलडीएफ के सत्ता में आने के बाद से विपक्ष के लोगों, खासकर आरएसएस और बीजेपी के सदस्यों की हत्या की घटनाएं बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं.


इस संकट ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय अहमियत हासिल कर ली है. इसकी एक पहचान तो यही है कि केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली जमीनी हालात का जायजा लेने और दोनों सियासी धड़ों के बीच बढ़ रहे तनाव के बीच मध्यस्थता करने केरल पहुंच गए.

राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले लोग हाल-फिलहाल का कोई ऐसा समय नहीं बता सकते जब सूबे में दोनों धड़ों के बीच दुश्मनी ने इतनी ज्यादा अहमियत अख्तियार की हो.

अरुण जेटली के दौरे की अहमियत

केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली रविवार को तिरुअनंतपुरम पहुंचे और आरएसएस के कार्यकर्ता राजेश के परिवारजनों को सांत्वना देने उनके घर गए. आरएसएस के कार्यकर्ताओं और सीपीएम के सदस्यों के बीच तिरुअनंतपुरम में पिछले हफ्ते कई हिंसक झड़प हुईं. जिसके नतीजे में 34 साल के स्वयंसेवक राजेश की हत्या हुई.

उच्च-स्तरीय हस्तक्षेप और तयशुदा समय के भीतर जांच की मांग करते हुए संघ ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखा कि मामले का संज्ञान लिया जाए.

आरएसएस-बीजेपी के कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हमले को लेकर सीपीएम की निंदा करते हुए अरुण जेटली ने दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं की सभा में कहा कि 'राष्ट्रों की दुश्मनी से कहीं ज्यादा बड़ी सियासी दुश्मनी होती है.'

जेटली मोदी सरकार के वरिष्ठतम सदस्यों में से एक हैं और संकट की स्थिति में पार्टी और सरकार दोनों के लिए संकटमोचक की तरह काम करते हैं. उनके केरल दौरे से सियासी हिंसा का मुद्दा राष्ट्रीय फलक पर उभर कर सामने आ सकता है. साथ ही, दौरे से सूबे की सरकार पर भी बिगड़ती कानून-व्यवस्था की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए दबाव बढ़ेगा. जेटली केरल की राजधानी के अलग-अलग हिस्सों में बीजेपी के उन वार्ड-पार्षद से भी मिले जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वो सीपीएम कार्यकर्ताओं के हमले का निशाना बने हैं.

रविवार की सभा में मौजूद तिरुअनंतपुरम के एक आरएसएस कार्यकर्ता ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि 'जेटली जी के दौरे से निश्चित ही विजयन सरकार के ऊपर कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ है कि केंद्र के एक वरिष्ठ मंत्री ने केरल का दौरा किया है और वामपंथी हिंसा के बारे में खुलकर बात की है.'

सूत्रों के मुताबिक जेटली के दौरे के बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और दूसरे सूबों के मुख्यमंत्री भी आरएसएस-बीजेपी के कार्यकर्ताओं को नैतिक समर्थन देने और एलडीएफ की सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से केरल के दौरे पर आएंगे.

क्या आरएसएस-बीजेपी का प्रभाव बढ़ रहा है?

आरएसएस ने दिल्ली में हाल में हुए एक प्रेस सम्मेलन में बाकी बातों के साथ यह भी बताया कि केरल में मार्क्सवादियों के हाथों आरएएसएस कार्यकर्ता की हत्या की पहली घटना 1969 में हुई थी. लेकिन जमीनी स्तर पर ठीक-ठाक मौजूदगी के बावजूद भगवा पार्टी केरल के सत्ता के गलियारों में अपनी खास अहमियत दर्ज नहीं कर पाई है.

मिसाल के लिए, केरल की मौजूदा विधानसभा के 140 सदस्यों में सिर्फ एक विधायक बीजेपी का है. इस विधायक का नाम डॉ. ओ. राजागोपाल है. राजागोपाल केरल में पार्टी के बड़े नेता हैं और पिछले साल हुए चुनाव में केरल विधानसभा के लिए बीजेपी की तरफ से निर्वाचित प्रथम विधायक बनने का श्रेय उन्हें हासिल हुआ.

केरल में आरएसएस-बीजेपी और सीपीएम के बीच उबलते हुए तनाव की क्या वजह हो सकती है ? क्या वजह है जो हाल के दिनों में दोनों सियासी धड़ों के बीच हिंसा की घटनाओं में इजाफा हुआ है?

केरल विधानसभा

दोनों के बीच झगड़ा इस बात का चलता है कि हमला किसकी ओर से पहले हुआ. लेकिन यह बात बड़ी दिलचस्प है कि आरएसएस-बीजेपी की मौजूदगी सूबे की सियासत में ना के बराबर है तो भी सीपीएम को उनसे खतरा महसूस हो रहा है. सीपीएम की मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदवी कांग्रेस है. एक सूबे के तौर पर केरल 1956 में वजूद में आया. उसके बाद से ही, कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो दोनों पार्टियों ने बारी-बारी से केरल में शासन किया है.

यह सोचना असंगत नहीं होगा कि अपने घर में मजबूती से पैर जमाए सीपीएम को अब नरेंद्र मोदी के विजयी रथ की धमक सुनाई देने लगी है. हो सकता है पराभव का क्षण अभी दूर हो लेकिन भारतीय उप-महाद्वीप में वामपंथ अवसान पर है. केरल के अपने किले में वामपंथ को जमीन हिलती हुई नजर आ रही है. वामपंथी राजनीति अपना एक किला पश्चिम बंगाल के रुप में गंवा चुकी है. संसद में उसकी मौजूदगी भी खस्ताहाली का ही सबूत है जहां सभी वामदलों को मिलाकर सांसदों की संख्या केवल 19 रह गई है.

केरल देवताओं का देश कहलाता है लेकिन यहां कम्युनिज्म लोगों की रगों में दौड़ता है. लंबे समय तक यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि यहां हिंदुत्ववादी राजनीति के बीज पड़ सकते हैं. लेकिन, संघ का दावा है कि केरल में वामपंथ पसोपेश में हैं क्योंकि बड़ी संख्या में सीपीएम के कार्यकर्ता आरएसएस में आ गए हैं.

सीपीएम से बगावत करने वाले टीपी चंद्रशेखरन की हत्या पर इस संदर्भ में गौर किया जा सकता है.

केरल के दक्षिणी इलाके के एक राजनीतिक कार्यकर्ता आर गणेश ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि 'कम्युनिस्ट पार्टियां दगाबाजी बर्दाश्त नहीं करतीं. इसी कारण टीपी चंद्रशेखरन की हत्या हुई और आरएसएस के कार्यकर्ताओं की मौत की वजह भी यही है. पार्टी के साथ दगा करने वाले कार्यकर्ताओं की हर हत्या के साथ पार्टी उम्मीद पालती है कि बीजेपी में उसके कार्यकर्ताओं का जाना रुकेगा. अब कॉमरेड लोगों के लिए बीजेपी में ही जाने का विकल्प बचा है सो बीजेपी को निशाने पर लिया जा रहा है.'

गणेश के मुताबिक जिन स्वयंसेवकों की हत्या हुई उसमें 80 फीसदी स्वयंसेवक पहले सीपीएम के कार्यकर्ता. गणेश का दावा है कि '80 से 85 फीसदी हत्याएं पार्टी के दबदबे वाले गांवों में हुईं हैं. हाल ही में 22 साल के स्वयंसेवक मनोज की कन्नौर में हत्या हुई. वह भी सीपीएम का था और आरएसएस में चला आया था.'

केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन

अब से पहले की कहानी

एलडीएफ के शासन में आने के बाद से हालांकि राजनीतिक हिंसा में तेजी आई है. लेकिन आरएसएस का दावा है कि 1969 से अब तक सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने 300 स्वयंसेवकों की हत्या की है.

आरएसएस के सह-सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले का कहना है कि 'इमर्जेंसी के बाद सीपीएम के कार्यकर्ताओं का आरएसएस में आना बढ़ गया. इस कारण आरएसएस को चुनिंदा तौर पर निशाना बनाया गया, हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं.'

लेकिन केरल का राजनीतिक इतिहास बताता है कि मामला सीपीएम बनाम आरएसएस-बीजेपी भर का नहीं है. अन्य राजनीतिक पार्टियों जैसे सीपीआई, कांग्रेस, मुस्लिम लीग आदि के कार्यकर्ताओं को भी सीपीएम ने निशाना बनाया है. होसबोले का कहना है कि मामला 'सीपीएम बनाम शेष राजनीतिक दलों का है.'

क्या यह राज्य-प्रायोजित हिंसा है ?

होसबोले का आरोप है कि 'सीपीएम की अगुवाई में एलडीएफ के सत्ता में आने और पिनरई विजयन के मुख्यमंत्री बनने के बाद से केरल में हिंसा की राजनीति आसमान चढ़ रही है. विजयन खुद भी कन्नूर से आते हैं और ऐसी ही एक राजनीतिक हत्या के आरोपी रहे हैं. सीपीएम के राज्य सचिव के बालाकृष्णन भी कन्नूर से हैं और उन्होंने कई अपराधियों को शरण दे रखा है.'

आरएसएस का एक आरोप यह भी है कि पुलिस सत्ताधारी दल के संरक्षण में काम कर रही है और कार्रवाई में पक्षपात करती है. आरएसएस के नेता और प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे नंदकुमार बताते हैं कि 'शायद देश में केरल पुलिस ही एकमात्र ऐसी पुलिस है जिसका ट्रेड यूनियन है. यह पुलिस गैर-सीपीएम दलों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ पूर्वाग्रह और मनमाने ढंग से काम करती है. सूबे में कानून-व्यवस्था एकदम खस्ताहाल है.'

संघ की प्रकाशन इकाई के साप्ताहिक आर्गनाइजर में सन् 2016 में एक विस्तृत कवर स्टोरी कीलिंग फील्ड ऑफ कन्नूर (कन्नूर का कुरुक्षेत्र) नाम से छपी. इस जमीनी रिपोर्ट ने राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया का ध्यान खींचा. कवर स्टोरी से जाहिर हो रहा था कि एलडीएफ के शासन में आने के बाद से केरल में हिसा बढ़ रही है. और सीपीएम के कार्यकर्ताओं के हाथों आरएसएस के स्वयंसेवक मारे जा रहे हैं.

कम्युनिस्ट पार्टी के दबदबे वाले गांव

यह सारा कुछ केरल के कन्नूर जिले के गांवों में शुरु हुआ. माना जाता है कि इलाके के 40 गावों पर सीपीएम ने दबदबा कायम कर रखा है. यहां सीपीएम किसी अन्य पार्टी को काम नहीं करने देती. पट्यम, मोकेरी, किज्झाके कथीरुर, कय्यूर, चोकली, पंथक्कल, मदापीदिका, पूक्कोम, पारद, मन्नथेरी आदि ऐसे ही गांव हैं.

कुछ इलाकों में साइन बोर्ड नजर आते हैं. उनपर लिखा होता है- ‘कम्युनिस्ट पार्टी के गांव में आपका स्वागत है’! कुछ साइनबोर्ड पर लिखा नजर आता है—‘चे ग्वारा ग्रामम्.’

कुछ पोस्टर ऐसे भी हैं जिनपर खुलेआम एलान किया गया है—‘आरएसएस प्रतिबंधित क्षेत्र ’, आरएसएस के सांप्रदायिक तत्वों का प्रवेश वर्जित.’

'यहां सचमुच आपको फासीवाद का चेहरा दिखाई देता है लेकिन कोई भी मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता इसको लेकर परेशान नहीं दिखता. यहां किसी भी गैर-कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा या पोस्टर लगाना मना है. यह और कुछ नहीं बल्कि हमारे संविधान में दिए गए बुनियादी अधिकारों का खुला उल्लंघन है. इन गांवों का जीवन-स्तर और हालत सीपीएम के विकास कार्यों की पोल खोलते हैं. ये गांव सीपीएम के नेताओं के पूर्ण नियंत्रण में हैं, यहां किसी और की आवाज बर्दाश्त नहीं की जाती. शादी-ब्याह से लेकर मतदान तक- सबकुछ सीपीएम के नियंत्रण में है. अगर आप उनकी बात नहीं मानते तो आप मारे जाएंगे.' ये बात कन्नूर के एक निवासी ने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट को बताई.

कन्नूर मॉडल

आरएसएस और बीजेपी के कार्यकर्ताओं का आरोप है कि सीपीएम ने राज्य में स्टालिनवादी नियंत्रण कायम कर रखा है. राजनीति की इस शैली को कन्नूर मॉडल का नाम दिया गया है. यह मॉडल अब कन्नूर के बाहर भी पैर पसारने लगा है. इसका मकसद है सीपीएम-विरोधी या गैर-सीपीएम आवाज को हमले या फिर हत्या के द्वारा खत्म कर देना. इस काम के लिए आम तौर पर देसी बम, फरसा और तलवार का इस्तेमाल किया जाता है.

आर गणेश का कहना है कि 'वामपंथ और अन्य जिसमें आरएसएस भी शामिल है, के बीच सांस्कृतिक अलगाव है. इस कारण सीपीएम किसी और आवाज का वजूद कायम होता नहीं देखना चाहती. वे लोग आरएसएस और बीजेपी का बड़े व्यवस्थित तरीके से खात्मा कर रहे हैं. यह काम बीते समय में भी होता रहा है लेकिन एलडीएफ सरकार के संरक्षण में अब यह मॉडल कन्नूर के बाहर भी अमल में है, पहले कन्नूर ही ऐसी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था.'

सीपीएम का प्रत्यारोप

सीपीएम का आरोप है कि मई 2016 में चुनाव के नतीजों की घोषणा के साथ ही आरएसएस और बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना शुरू कर दिया.

सीपीएम पोलित ब्यूरो का आरोप है कि उसके 13 कार्यकर्ता और अन्य समर्थक आरएसएस और बीजेपी के लोगों के हाथों मारे गए हैं. जबकि 200 कार्यकर्ता और समर्थक इन हमलों में घायल हुए हैं.

पोलित ब्यूरो का आरोप है कि 'बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व और केंद्रीय मंत्री सीपीएम पर बेबुनियाद और पक्षपाती आरोप लगा रहे हैं. ये लोग सीपीएम के कार्यकर्ताओं पर उकसावा भरी कार्रवाई करते हैं, उन्हें अपने हमले का निशाना बनाते हैं और इसके बाद शोर मचाते हैं कि सीपीएम हिंसा पर उतारु है. ये केरल की सरकार पर तोहमत लगाते हैं कि वह ऐसे हमलों को नहीं रोक रही.'

आरएसएस का जवाबी आरोप

नंदकुमार ने फ़र्स्टपोस्ट से कहा कि 'जैसा हमने किया है वैसे ही उन लोगों को भी अपनी बात सबूत के साथ कहनी चाहिए. यह तो सीपीएम की पहले से गढ़ी हुई कहानी है. यह कहानी आरएसएस के बारे में नहीं है. 1966 में जब पहली बार हत्या हुई तो एक सीपीआई के नेता की जान गई थी. उसके बाद से कांग्रेस के 40 और मुस्लिम लीग पार्टी के 8 कार्यकर्ता मारे गए हैं. अब सिर्फ आरएसएस को निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि हमलोग उनको तगड़ी चुनौती दे रहे हैं.'

नंदकुमार की बात में होसबोले अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं, 'केरल में हिंसा का कोई अंत नहीं. हमारे कार्यकर्ता राजेश की बेरहमी से हत्या हुई. खून की प्यासी हिंसा के ब्यौरे और नृशंस हत्याएं हमारे लहू को जमा देने के लिए काफी हैं.'

क्या शांति बैठकें एक दिखावा हैं?

सीपीएम और आरएसएस-बीजेपी के बीच शनिवार के दिन कन्नूर में एक शांति बैठक बुलाई गई. शायद ये ऐसा पहली बार हुआ जब सीपीएम के राज्य सचिव कोडियरी बालकृष्णन ने अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा कि वो राजनीति में हिंसा से काम ना लें.

रविवार के दिन एक और सर्वदलीय बैठक होनी है.

बहरहाल, अरुण जेटली के तिरुअनंतपुरम पहुंचने पर सीपीएम कार्यकर्ताओं ने एक विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया.

एक स्थानीय सूत्र ने बताया कि 'ये शांति बैठकें एक छलावा हैं. अब से पहले भी हत्या की घटना के बाद ऐसी बैठक आयोजित की गई है. आखिरकार, कुछ भी कारगर साबित नहीं होता. इस बार केंद्र के भारी दबाव के बीच सीपीएम के राज्य सचिव ने एक सार्वजनिक बयान जरुर जारी किया है.'