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कर्नाटक चुनाव 2018: दलितों को साधकर सिद्धारमैया के वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है बीजेपी

कर्नाटक की छह करोड़ आबादी में दलितों की तादाद करीब 18 फीसदी है. यानी यह समुदाय राज्य का एक बड़ा वोट बैंक है. लिहाज़ा दलित समुदाय को अपने साथ जोड़ने के लिए बीजेपी पुरज़ोर कोशिश कर रही है

T S Sudhir

कर्नाटक में बीजेपी अरसे से दलित समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिशों में जुटी है, लेकिन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कर्नाटक में अपनी पार्टी के प्रमुख दलित नेता श्रीनिवास प्रसाद से संतुष्ट नहीं हैं. श्रीनिवास प्रसाद मैसूर से संबंध रखते हैं. वह कभी पक्के कांग्रेसी हुआ करते थे और सिद्धारमैया कैबिनेट में राजस्व मंत्री भी रह चुके हैं. साल 2016 में मंत्रिमंडल के पुनर्गठन के दौरान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने श्रीनिवास प्रसाद को मंत्री पद से हटा दिया था.

मंत्रिमंडल से हटाया जाना श्रीनिवास प्रसाद को बहुत नागवार गुजरा. नाराज होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और बीजेपी का दामन थाम लिया. 2017 में हुए विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी ने श्रीनिवास प्रसाद को नंजनगुड सीट पर अपना उम्मीदवार बनाया. नंजनगुड सीट श्रीनिवास प्रसाद के इस्तीफे से ही खाली हुई थी. लिहाज़ा बीजेपी को पूरी उम्मीद थी कि श्रीनिवास प्रसाद इलाके के दलितों को एकजुट करने में कामयाब होंगे और उपचुनाव में शानदार जीत हासिल करेंगे.


दलित समुदाय अब भी चिंतित है

श्रीनिवास प्रसाद भी अपने गढ़ यानी नंजनगुड सीट पर जीत को लेकर आश्वस्त थे. उन्हें लगता था कि उपचुनाव में जीत का परचम लहराकर वह सिद्धारमैया को करारा जवाब देंगे. लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने श्रीनिवास प्रसाद और बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर दिया. नंजनगुड सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार कलाले केशवमूर्ति ने श्रीनिवास प्रसाद को 21 हजार से ज्यादा वोटों से करारी शिकस्त दी.

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कर्नाटक दौरे पर पहुंचे अमित शाह ने बीते शुक्रवार (30 मार्च) को राज्य के दलित नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ एक अहम बैठक की. इस बैठक के दौरान श्रीनिवास प्रसाद ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से केंद्रीय कौशल विकास मंत्री अनंत कुमार हेगड़े पर पार्टी का पक्ष स्पष्ट करने की मांग की.

दरअसल दिसंबर 2017 में अनंत कुमार हेगड़े ने बी.आर. आंबेडकर द्वारा तैयार किए गए देश के संविधान में संशोधन की बात कही थी. हेगड़े के बयान पर तब खासा हंगामा हुआ था. यहां तक कि हेगड़े को संसद में अपना बयान वापस लेना पड़ा और माफी भी मांगनी पड़ी थी. हेगड़े की माफी के बाद लगा था कि वह मुद्दा शांत हो गया. लेकिन मैसूर में बीजेपी द्वारा आयोजित बैठक में जो कुछ हुआ उसने जाहिर कर दिया है कि हेगड़े के बयान पर लोगों में अब भी नाराज़गी है. यानी कर्नाटक के दलित समुदाय के लिए यह मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ है. बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा तैयार संविधान में संशोधन को लेकर दलित समुदाय अब भी चिंतित है.

बीजेपी के दलित नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ बैठक में श्रीनिवास प्रसाद के स्पष्टीकरण मांगने पर अमित शाह असहज हो उठे थे. वहीं प्रसाद के सवाल और अनुरोध से बैठक में शामिल लोगों को हंगामा करने का मौका मिल गया. हेगड़े के बयान को लेकर बैठक में जिस तरह हंगामा हुआ उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. अमित शाह की किसी भी बैठक में कभी भी ऐसी अनुशासनहीनता नहीं देखी गई. हंगामे की वजह से हालात ऐसे हो गए थे जिन्हें संभालना कर्नाटक के बीजेपी नेताओं के लिए मुश्किल हो गया. बीजेपी को शर्मिंदा करने वाली बैठक के हंगामेदार दृश्यों को मीडिया के कैमरों ने भी कैद किया.

दलित नेताओं के दबाव और हालात के मद्देनजर आखिरकार अमित शाह को कहना पड़ा कि अनंत कुमार हेगड़े के बयान से उनकी पार्टी का कोई संबंध नहीं है. लेकिन हेगड़े के बयान से दूरी बनाना भी शाह के लिए कारगर साबित नहीं हुआ और बैठक में शामिल लोगों ने हंगामा जारी रखा.

मैसूर में दलित संघर्ष समिति के संयोजक चोरनल्ली शिवन्ना ने अमित शाह से पूछा, ‘अगर आप कहते हैं कि आप हेगड़े के बयान का समर्थन नहीं करते हैं, तो वह अब भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में क्यों हैं? अगर यह बीजेपी का हिडेन एजेंडा नहीं है, तो आपने हेगड़े को मंत्रिमंडल से निकाल के बाहर क्यों नहीं किया?’

जाहिर है कि अमित शाह की यह बैठक स्क्रिप्ट के मुताबिक नहीं हुई. हालांकि बीजेपी ने बैठक में हंगामे के लिए सिद्धारमैया को जिम्मेदार ठहराया. बीजेपी ने आरोप लगाया कि सिद्धारमैया के इशारे पर बैठक में कुछ शरारती तत्वों को भेजा गया था. बहरहाल अमित शाह की बैठक में हुए हंगामे ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि कर्नाटक में बीजेपी नेताओं को बहुत सोच-समझकर ज़ुबान खोलनी होगी. यानी बीजेपी नेताओं को अपने ऊल-जुलूल बयानों पर लगाम लगानी होगी वरना कर्नाटक में पार्टी को तगड़ा झटका लग सकता है. वहीं अमित शाह की बैठक में जो कुछ हुआ उसने विरोधी दलों को भी चौकन्ना कर दिया है. दलित वोट बैंक पर बीजेपी की सेंधमारी की कोशिशों ने विरोधी दलों की चिंताएं बढ़ा दी हैं.

मदीगा और चालावाडी जाति के बीच कई मुद्दों को लेकर गहरे मतभेद हैं

पिछले कुछ सालों से कर्नाटक में बीजेपी दलित समुदाय को रिझाने में जुटी हुई है. कर्नाटक की छह करोड़ आबादी में दलितों की तादाद करीब 18 फीसदी है. यानी यह समुदाय राज्य का एक बड़ा वोट बैंक है. लिहाज़ा दलित समुदाय को अपने साथ जोड़ने के लिए बीजेपी पुरज़ोर कोशिश कर रही है. बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बी.एस. येदियुरप्पा दलितों के घर उनके साथ खाना खाने जा रहे हैं, ताकि दूरियों को कम किया जा सके.

बीजेपी की असल कोशिश सिद्धारमैया के वोट बैंक कहे जाने वाले अहिंदा (पिछड़ा वर्ग, दलित समुदाय और अल्पसंख्यकों का कन्नड़ में शॉर्ट फॉर्म) को तोड़ने की है. साल 2013 के विधानसभा चुनाव में अहिंदा वोट बैंक ने कांग्रेस की जीत में प्रमुख भूमिका निभाई थी. ऐसे में बीजेपी की खास नजर दलितों की मदीगा जाति पर है.

पारंपरिक रूप से मदीगा जाति के लोग चमड़े का काम करते रहे हैं. उन्हें अब भी अछूत माना जाता है. वहीं दलितों की एक और जाति चालावाडी के लोगों से अछूत होने का ठप्पा हट चुका है. परंपरागत रूप से चालावाडी जाति के लोग इंदिरा गांधी के ज़माने से कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं. मदीगा और चालावाडी जाति के बीच कई मुद्दों को लेकर गहरे मतभेद हैं. मदीगा जाति के लोगों की शिकायत है कि दलितों के लिए आवंटित बजट का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ चालावाडी जाति के लोगों को दे दिया जाता है.

यही वजह है कि इस सप्ताह चित्रदुर्ग में दलित मठ के प्रमुख मधारा चेन्नैयाह के साथ अमित शाह की 45 मिनट लंबी बैठक बेहद महत्वपूर्ण मानी जा रही है. बताया जा रहा है कि बीजेपी ने दलित समुदाय के भीतर मदीगा जाति के लिए आंतरिक आरक्षण का वादा किया है. दरअसल कई सालों से मदीगा जाति के लोग अपने लिए वाजिब आरक्षण की मांग पर विरोध-प्रदर्शन करते आ रहे हैं.

मदीगा जाति के लोगों का कहना है कि उन्हें कायदे से 8 से 10 फीसदी के बीच आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए, जबकि उनके हिस्से में आ बहुत ही कम रहा है. ऐसे में बीजेपी को उम्मीद है कि वह दलित मठ के प्रमुख के आशीर्वाद से मदीगा जाति को साधने में कामयाब हो जाएगी. मध्य कर्नाटक के चार जिलों की 26 विधानसभा सीटों पर दलित मठ के प्रमुख का खासा प्रभाव है. लिहाजा मदीगा जाति को साधकर बीजेपी इस इलाके से अच्छी बढ़त हासिल कर सकती है.

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कर्नाटक में कांग्रेस अपने दलित वोट बैंक की हिफाजत बड़ी मुस्तैदी के साथ करती है. इस बार भी कांग्रेस हर संभव कोशिश कर रही है कि दलित उसके साथ ही रहें. हालांकि कांग्रेस को आशंका है कि इस बार मदीगा जाति के वोट एक हद तक उससे छिटक सकते हैं. दलित वोट बैंक ही वह वजह रही कि कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष के तौर पर जी. परमेश्वर अपना पद बरकरार रख सके. हालांकि कांग्रेस में परमेश्वर के खिलाफ असंतोष के सुर खासे बुलंद हो चले थे.

दलित समुदाय 60 विधानसभा सीटों के नतीजे निर्धारित कर सकता है

पार्टी में उनके विरोधियों का कहना था कि दलितों पर परमेश्वर की पकड़ कमजोर हो गई है. विरोधी अक्सर उन्हें 'प्रेस कॉन्फ्रेंस का चीफ' कहा करते हैं. लेकिन फिर भी कांग्रेस आलाकमान ने परमेश्वर पर ही भरोसा जताया ताकि दलितों को कोई गलत संदेश न चला जाए. कांग्रेस को उम्मीद है कि परमेश्वर से हुई किसी भी चूक की भरपाई पार्टी के वरिष्ठ दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे कर लेंगे. लोकसभा में विपक्ष के नेता खड़गे हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में स्थित कलबुर्गी के रहने वाले हैं.

कर्नाटक में किसी भी पार्टी के लिए दलित वोटों का महत्व कम नहीं है. राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से 36 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं. लेकिन ऐसा अनुमान है कि दलित समुदाय कर्नाटक की 60 विधानसभा सीटों के नतीजे निर्धारित कर सकता है. कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा की पुरानी परंपरा है. इसके अलावा साल 1985 से कोई भी सत्ताधारी पार्टी लगातार दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाई है. ऐसे में दलितों के प्रभाव वाली 60 सीटों का महत्व खासा बढ़ जाता है.

दलित वोट बैंक के लिए कांग्रेस और बीजेपी के बीच जारी सियासी ज़ोर आज़माइश के बीच बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) भी कूद पड़ी है. बीएसपी ने कर्नाटक में जेडीएस के साथ गठबंधन किया है और वह 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवारों के चयन के आधार पर बीएसपी दो मुख्य पार्टियों यानी कांग्रेस और बीजेपी में से किसी एक के कुछ हज़ार वोट काट सकती है. कांटे की लड़ाई में कुछ हज़ार वोटों का नुकसान कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.

हालांकि, इस चुनाव में काफी हद तक ध्यान लिंगायत वोट पर केंद्रित किया गया है. सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देकर बढ़त बनाने की कोशिश की है. लेकिन इस गर्मी में कर्नाटक के चुनावी समर के दौरान दलित वोट साइलेंट किलर साबित हो सकते हैं.