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कर्नाटक में जीतकर भी हारने की ओर बढ़ रही है बीजेपी

क्या बीजेपी जीती हुई बाजी हारने की तरफ कदम बढ़ाने जा रही है?

Rajeev Ranjan Jha

राजनीतिक दलों की दृष्टि और स्मृति सुविधाजनक ढंग से छोटी और लंबी होती रहती है. पर अब वही बात विश्लेषकों, पत्रकारों और दलीय समर्थकों में भी दिखने लगी है. जनता की स्मृति तो छोटी होती ही है!

सबसे पहले तो याद रखने की जरूरत है कि हमने बहुदलीय लोकतंत्र का वह रास्ता चुन रखा है, जिसमें सरकार सदन में बहुमत के आधार पर बनती-गिरती है. इसलिए मत-प्रतिशत के आंकड़े किनारे रखिए. वे आंकड़े रणनीतिकारों के मतलब की चीज हैं, वह भी चुनाव से पहले. चुनाव के बाद मत प्रतिशत के आंकड़ों से न तो सरकार बनती है, न गिरती है.


सबसे बड़े दल का तर्क बेमतलब

इसलिए सरकार केवल यह देख कर बनेगी कि सदन में बहुमत साबित करने की स्थिति में कौन है. यहां कुछ लोग सबसे बड़े दल को पहला मौका मिलने का सवाल उठा रहे हैं. एस. आर. बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की इस रूप में व्याख्या की जा सकती है. लेकिन उस फैसले को आधार बनाने का अवसर तब आना चाहिए, जब यह स्पष्ट न हो रहा हो कि कौन-सा दल या कौन-सा गठबंधन बहुमत के आंकड़े को पार कर पा रहा है.

भारतीय लोकतंत्र में यह न पहला अवसर है, न अंतिम अवसर होगा जब न किसी एक दल को बहुमत मिला हो, न ही चुनाव से पहले बने किसी गठबंधन को. ऐसे में चुनाव के बाद ही कोई ऐसा गठबंधन बनेगा, जो बहुमत साबित कर सके. कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी ने यही किया. बिहार में चुनाव-पूर्व गठबंधन तो जेडीयू और आरजेडी का था, पर उनका गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी ने जेडीयू को समर्थन देकर सत्ता में साझेदारी की.

चुनाव के बाद यदि किसी एक दल को साफ बहुमत मिल जाता है तो राज्यपाल के पास उस दल के नेता को सरकार बनाने का निमंत्रण देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहता है. यदि चुनाव-पूर्व बने किसी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल जाता है, तो भी ज्यादा तीन-पांच की गुंजाइश नहीं होती. लेकिन यदि ये दोनों स्थितियां नहीं हैं, तो क्या होगा? जाहिर है कि जिन दलों ने एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा होगा, उन्हीं में से कुछ को एक साथ मिल कर सरकार बनानी होगी. महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना ने एक-दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड़ा था. चुनाव के बाद उन्होंने साथ मिल कर सरकार बनाई.

बीजेपी सीधे-सीधे जता रही है कि वो कांग्रेस-जेडीएस के सदस्यों को अपने पाले में ले आएगी

बीजेपी तर्क दे रही है कि कांग्रेस और जेडीएस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं था, इसलिए राज्यपाल को पहला न्योता उसे ही देना चाहिए. मगर यह तर्क वहां उचित होगा, जहां चुनाव के बाद भी कोई ऐसा गठबंधन सामने नहीं आ पा रहा हो, जिसके पास स्पष्ट बहुमत हो. कर्नाटक के संदर्भ में यह बहुत स्पष्ट है कि कांग्रेस और जेडीएस को मिली कुल सीटें बहुमत की जरूरी संख्या से ऊपर हैं. यदि हम मान लें कि बीजेपी दूसरे दलों में तोड़-फोड़ के जरिये बहुमत साबित करने का इरादा नहीं रखती है, तो फिर येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद सदन में बहुमत कैसे साबित करेंगे?

यदि विधायकों की खरीद-बिक्री और राजनीतिक तोड़-फोड़ नहीं होगी, तो विश्वास-प्रस्ताव पर बीजेपी के 104 विधायकों के समर्थन के विपरीत जेडीएस और कांग्रेस के कुल 116 विधायकों का विरोध दर्ज होगा और विश्वास प्रस्ताव गिर जाएगा. वर्तमान स्थितियों में बीजेपी अगर सरकार बनाने का दावा कर रही है, तो सीधे-सीधे यह कह रही है कि हम कांग्रेस और जेडीएस के कुछ सदस्यों को अपने पाले में ले आएंगे.

कांग्रेस के पापों का अनुसरण कर बीजेपी क्या हासिल कर लेगी?

अगर जेडीएस और कांग्रेस मिलकर बहुमत का आंकड़ा पार कर रहे हैं, तो बीजेपी को जोड़-घटाव से दूर रह कर उन्हें सरकार बनाने देना चाहिए. वैसे भी, आज तक का राजनीतिक इतिहास बताता है कि कांग्रेस किसी और की सरकार को लंबे समय तक समर्थन दे ही नहीं पाती. कोई भी सरकार बनाने के बाद वह तुरंत उसे गिराने के लिए बेचैन हो जाती है. इसलिए अगर राजनीतिक रणनीति की भी बात करें तो बीजेपी के लिए उपयुक्त है कि वह विपक्ष में बैठने का फैसला करे.

कुछ भाजपाई याद दिला रहे हैं कि कांग्रेस ने कब क्या-क्या किया, कैसे तिकड़मों से दूसरों की सरकारें गिरायीं और कैसे तोड़-फोड़ से सरकारें बनायीं या बनवायीं. यह सच है कि राजभवनों के सियासी दुरुपयोग में कांग्रेस के नाम पर जो कीर्तिमान हैं, उन्हें तोड़ पाने का अवसर शायद ही किसी को मिलेगा. लेकिन यह न भूलें कि उन्हीं दुरुपयोगों के चलते अब न्यायिक निर्णयों का एक ऐसा सुरक्षा चक्र बन चुका है, जिसके चलते राज्यपाल मनमाने फैसले नहीं कर सकते. अगर एक बार वे राजनीतिक वफादारी के चलते ऐसा कर भी लें तो न्यायालय में ऐसे मनमाने फैसले की धज्जियां उड़ जायेंगी. और हां, अगर कांग्रेस आज देश के नक्शे में छिट-पुट जगहों पर सिमट गयी है जिसे लेकर प्रधानमंत्री पीपीपी का जुमला उछाल कर तंज कसते हैं, तो अतीत के इन पापों का भी योगदान इसमें कम नहीं है. बीजेपी उसका अनुसरण करके क्या हासिल कर लेगी?

लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि बीजेपी बिना अपनी फजीहत कराये विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है. बीजेपी पिछले विधानसभा चुनाव से काफी अधिक सीटें जीतने, मत-प्रतिशत में अच्छी-खासी वृद्धि करने और सत्तारूढ़ कांग्रेस को अपदस्थ करने के बाद यदि बहुमत से थोड़ा पीछे रहने के आधार पर विपक्ष में भी बैठे तो वह विजेता जैसी दिखेगी. लेकिन जोड़-तोड़ के जरिये अगर वह सरकार बना भी ले तो पराजित नजर आयेगी. और अगर कहीं इस सारे तीन-तिकड़म के बाद वह उस सरकार को बचा नहीं पायी, फिर तो माया मिली न राम वाली कहानी ही होगी. क्या बीजेपी जीती हुई बाजी हारने की तरफ कदम बढ़ाने जा रही है?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं.)