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कर्नाटक चुनाव 2018: कन्नड़ अस्मिता बना मुख्य चुनावी मुद्दा

पुराने समय के कन्नड़ झंडे पकड़ने वाले कन्नड़ कार्यकर्ताओं के विपरीत, नए जमाने के कन्नड़ कार्यकर्ता अपने हाथों में मोबाइल से आंदोलन कर रहे हैं

FP Staff

पिछले साल जुलाई में केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को अनिवार्य करने पर बेंगलुरु के सोशल मीडिया सर्कल में गर्मागर्म बहस छिड़ी थी. बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी बोर्ड लगाने के बाद यह मुद्दा सामने आया था. शुरुआत में यह केवल वर्चुअल दुनिया तक सीमित था लेकिन एक महीने के अंदर यह एक आंदोलन में तब्दील हो गया और सिद्धारमैया सरकार को इस पर अपनी प्रतिक्रिया देनी पड़ी.

स्थानीय कन्नड़ टीवी चैनलों ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया. राज्य सरकार ने केंद्र से बेंगलुरु के सभी मेट्रो स्टेशनों से हिंदी में साइनबोर्ड हटाने को कहा. इस घटना ने सिद्धारमैया को कन्नड़ कार्यकर्ताओं के बीच हीरो बना दिया. #StopHindiImposition ट्विटर और फेसबुक पर टॉप ट्रेंडिंग हैशटैग में से एक रहा.


यह कोई अचानक विरोध नहीं था. कन्नड़ के लिए नए आंदोलन की अगुवाई अब सुशिक्षित और पेशेवर युवा कर रहे हैं. पारंपरिक सामाजिक कार्यकर्ताओं के विपरीत ये कार्यकर्ता ज्यादातर अदृश्य हैं. ये कर्नाटक में कन्नड़ भाषा के लिए लोकतांत्रिक तरीके से लड़ना चाहते हैं.

क्या है इन युवा कार्यकर्ताओं की मांग

कर्नाटक चुनाव के इतिहास में पहली बार इन युवा कार्यकर्ताओं ने राज्य के तीन प्रमुख दलों कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस से मांग की है कि वे घोषणा पत्र में बताएं कि कन्नड़ के लिए क्या कर रहे हैं. मुन्नोटा, बनसवी बालागा, कन्नड़ ग्राहक कूट जैसे स्वैच्छिक संगठन पिछले कुछ सालों से कन्नड़ और कन्नड़ भाषियों के हितों की रक्षा के लिए व्यवस्थित रूप से लड़ते रहे हैं.

मुन्नोटा संस्था चलाने वाले कार्यकर्ताओं में से एक बसंत शेट्टी ने कहा कि पिछले दो-तीन वर्षों में उनके प्रयासों का सकारात्मक परिणाम सामने आया है. तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाले शेट्टी ने कहा कि राज्य खासकर बेंगलुरु में कन्नड़ आंदोलन को कुछ निहित स्वार्थों ने बदनाम किया था. तर्क में कुछ सच्चाई हो सकती है कि कुछ लोग पैसे बनाने के लिए इसका उपयोग कर रहे हैं, लेकिन एक मजबूत आंदोलन हमारे समय की एक जरूरत है.

हिंदी भाषा नहीं बल्कि इसे थोपने के खिलाफ है आंदोलन

शेट्टी उन लोगों से सहमत नहीं हैं जो इसे हिंदी विरोधी आंदोलन कहते हैं. वह बताते हैं कि यह हिंदी भाषा के खिलाफ नहीं बल्कि कन्नड़ पर हिंदी थोपने के खिलाफ है. उन्होंने कहा कि कुछ निहित स्वार्थ इसे हिंदी-हिंदी विरोधी आंदोलन कह रहे हैं. हम भाषायी समानता चाहते हैं. गैर-हिंदी राज्यों पर हिंदी को लागू करने की कोई आवश्यकता नहीं है. हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को बढ़ावा देना चाहिए. क्या वे हिंदी राज्यों में कन्नड़ या तमिल को बढ़ावा देते हैं?

पुराने समय के कन्नड़ झंडे पकड़ने वाले कन्नड़ कार्यकर्ताओं के विपरीत, नए जमाने के कन्नड़ कार्यकर्ता अपने हाथों में मोबाइल से आंदोलन कर रहे हैं. उन्होंने लोगों को एकजुट करने के लिए व्हाट्सऐप समूह, फेसबुक पेज, ट्विटर अकाउंट्स और वेबसाइट्स बनाई हैं.

आईटी पृष्ठभूमि से भी एक अन्य प्रमुख कार्यकर्ता अरुण जवागल ने न्यूज18 को बताया कि कन्नड़ के लिए सड़कों पर उतरने वाले कार्यकर्ता भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं. हम नई तकनीक का उपयोग करके जागरूकता पैदा करते हैं और वे विरोध-प्रदर्शन करते हैं और सार्वजनिक बैठकों का आयोजन करते हैं. हम एक-दूसरे के पूरक होते हैं.

कार्यकर्ता दावा करते हैं कि उनके लगातार अभियान ने निजी एयरलाइंस, निजी बैंकों, सेवा क्षेत्र उद्योग आदि को कन्नड़ के प्रति अपना रवैया बदलने के लिए मजबूर कर दिया है. इनमें से कई अब कन्नड़ भाषा का आधिकारिक इस्तेमाल कर रहै हैं.

मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को भी इन आंदोलनों के प्रभाव का एहसास है. उन्होंने कन्नड़ के पक्ष में कई फैसले लिए हैं जैसे मेट्रो से हिंदी में साइनबोर्ड हटाने, सरकारी नौकरियों में कन्नड़ भाषियों के लिए आरक्षण, कन्नड़ फ्लैग, कन्नड़ में एनईईटी परीक्षाएं आदि. सरकार और टॉप नेताओं द्वारा सोशल मीडिया में कन्नड़ के उपयोग में बढ़ोतरी हुई है.

बदले हुए परिदृश्य में विधानसभा चुनावों में क्या कन्नड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा? बहुत से स्थानीय लोगों का मानना है कि चुनाव में इसका प्रभाव हो सकता है.

वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण उपाध्याय का मानना है कि कन्नड़ पहले ही एक चुनाव विषय बन चुका है. उन्होंने कहा कि नेताओं को भी पता है कि वे कन्नड़ कार्यकर्ताओं की वैध मांगों को नजरअंदाज नहीं कर सकते. वे इन लोगों को गंभीरता से ले रहे हैं.

बीजेपी शुरू में इन कार्यकर्ताओं को कांग्रेस एजेंटों के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की थी. बीजेपी के सीएम उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा ने पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को कन्नड़ से संबंधित मुद्दों पर नकारात्मक टिप्पणी नहीं करने का निर्देश दिया है.

(न्यूज18 के लिए डीपी सतीश की रिपोर्ट)