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तीन बार मिला मौका फिर भी पीएम नहीं बन पाए ज्योति बसु

ज्योति बसु के दरवाजे से प्रधानमंत्री पद का आॅफर तीन-तीन बार आकर लौट गया था

Surendra Kishore

मुलायम सिंह यादव को तो एक ही बार प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था, पर ज्योति बसु के दरवाजे से प्रधानमंत्री पद का आॅफर तीन-तीन बार आकर लौट गया था.

मुलायम को उनके एक स्वजातीय किंतु प्रतिद्वंद्वी नेता ने प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया, पर ज्योति बसु को तो उनके दल माकपा ने सर्वोच्च पद पर जाने से रोक दिया था.


कब मिला था मौका

ज्योति बसु की अधिकृत जीवनी लेखक सुरभि बनर्जी और ज्योति बसु के जीवन पर किताब लिखने वाले अरूण पांडेय ने इस प्रकरण की विस्तार से चर्चा की है.

ज्योति बसु ने दो बार तो खुद ही यह पद ठुकरा दिया. पर तीसरी बार जब 1996 में संयुक्त मोर्चा की ओर से वी.पी.सिंह ने उन्हें आॅफर दिया तो उन्होंने इस शर्त पर स्वीकार कर लिया था कि यदि पार्टी अनुमति दे. लेकिन पार्टी ने इस आॅफर को ठुकरा दिया.

सन 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला तो मिलीजुली सरकार बनाने की कोशिश हुई.

जब ज्योति बसु हुए राजी

पहले तो वी.पी.सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की नेताओं ने जिद की. पर वे नहीं बने. कुछ समय के लिए तो वी. पी. सिंह भूमिगत ही हो गये थे. पर बाद में सिंह ने कलकत्ता में ज्योति बसु को फोन किया. वे राजी हो गए.

(फोटो. रॉयटर्स)

बसु ने बाद में एक अखबार को बताया था कि ‘यदि हम सरकार में शामिल होते तो न सिर्फ पार्टी बल्कि देश का भी हित होता. साझा सरकार चलाने के अपने लंबे अनुभवों का हमें फायदा मिलता. मोर्चे के किसी अन्य व्यक्ति की तुलना में हम बेहतर सरकार चलाते. न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर सरकार चलाते. इससे हम अपनी राजनीति और विचारधारा का विस्तार कर पाते.’

पर पार्टी ने ज्योति बसु के इन तर्कों को भी खारिज कर दिया.

कांग्रेस के समर्थन का विरोध

माकपा नेतृत्व ने अन्य कुछ बातों के अलावा यह भी कहा कि ‘कांग्रेस के समर्थन से चलने वाली सरकार में शामिल होने से हमारी पार्टी का विस्तार रुक जाएगा.’

माकपा की केंद्रीय कमेटी के एक सदस्य का कहना था कि ज्योति बसु जैसे वृद्ध मुख्यमंत्री की सहायता करने के लिए पार्टी के पास कई सक्षम प्रशासक हैं. पर केंद्र में पार्टी के पास ऐसे सक्षम प्रशासकों का अभाव है.

ज्योति बसु की जीवनी लेखिका सुरभि बनर्जी ने लिखा है, ‘केंद्रीय कमेटी के फैसले के बाद मैंने माकपा के ढेर सारे सदस्यों और कई राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत की. लगभग सभी ने यही कहा कि यह फैसला देशहित को ध्यान में रखकर लिया गया फैसला नहीं था. लेकिन यह पार्टी में मौजूद परंपरागत राजनीतिक द्वंद्व का परिणाम था.'

वी.पी. सिंह और ज्योति बसु. (फोटो. रॉयटर्स)

माकपा का विरोध पड़ा भारी 

ज्योति बसु से अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी और विचारधारात्मक विरोधों के चलते माकपा की केंद्रीय कमेटी के अधिकतर सदस्यों ने बैठक में आने से पहले ही यह तय कर लिया था कि किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री नहीं बनने देना है.

ज्योति बसु की व्यक्तिगत दुश्मनी आखिर किससे थी? इस प्रश्न का जवाब आज तक अनुत्तरित है. पूरे प्रकरण में पार्टी के बंगाल बनाम केरल वाला निष्कर्ष निकाला गया.

सबसे दिलचस्प बात तब हुई जब उन्हीं दिनों दो अमेरिकी अखबारों में ज्योति बसु की प्रशंसा में लेख छपे.

इससे पार्टी के भीतर के बसु विरोधी लाॅबी को मौका मिल गया. इसे बसु के पक्ष में अमरीकन लाॅबी और पूंजीपति वर्ग की ओर से की गई प्रशंसा के रूप में प्रचारित किया गया.

जाहिर है कि जब किसी देश में किसी नेता का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उछलेगा तो विदेशी अखबार उस नेता पर कुछ तो लिखेंगे ही.

पार्टी द्वारा इस आॅफर को ठुकराने को लेकर ज्योति बसु खासे दुखी रहते थे. उन्होंने कहा था, 'सरकार में शामिल होने के सवाल पर पार्टी ने जैसा अड़ियल रुख अपनाया. इसका कारण था मेरे अपने पाॅलित ब्यूरो में और केंद्रीय कमेटी के साथियों में उपयुक्त राजनीतिक समझ का अभाव. इसी कारण वे स्थिति का सामना सकारात्मक रुप से नहीं कर सके. अधिकतर के विचार युक्तियुक्त नहीं थे. उन्होंने भयंकर भूल की. समूचा घटनाक्रम आज भी मेरे जेहन में घूमता रहता है.'

इस बात का हमें दिली अफसोस है कि केंद्र सरकार में शामिल न होने का फैसला करके हमारी पार्टी के साथियों ने मेरे सुझाव को महत्वहीन माना और एक प्रकार से मेरे विवेक को अपमानित किया.

उन्होंने कहा था, 'लोग हमें इस निर्णय के लिए उसी प्रकार दोषी ठहराएंगे जिस तरह उन्होंने तब दोषी ठहराया था जब हमने मोरारजी सरकार को समर्थन नहीं दिया था.’

जनता के हीरो थे वी.पी.सिंह 

इससे पहले 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद चंद्रशेखर और अरूण नेहरू ने ज्योति बसु से कहा था कि वे प्रधानमंत्री बन जाएं.

हालांकि बोफर्स घोटाले का पर्दाफाश करने के कारण आम जनता वी.पी.सिंह को हीरो मानती थी, उन्हीं के नाम पर वोट मिले थे. तब ज्योति बसु ने महसूस किया था कि उन्हें वी.पी.सिंह का हक मारने का अधिकार नहीं है.

पर दुबारा यह मौका 1990 में आया था जब वी.पी.सिंह की सरकार गिर गई. राजीव गांधी की नजर में तब चंद्रशेखर के साथ -साथ ज्योति बसु भी थे. लेकिन ज्योति बसु ने मना कर दिया.