पुरानी दोस्ती टूटने के बाद फिर से जुड़ चुकी है. लेकिन दोनों एक दूसरे पर विश्वास करने के बजाए नफा नुकसान ज्यादा तौल रहे हैं. बात जेडीयू और बीजेपी की दोस्ती की हो रही है.
बिहार में अमित शाह की सक्रियता की भनक लगते ही नीतीश कुमार भी प्लान बी बनाने में लग गए हैं. उन्होंने पड़ोसी राज्य झारखंड की पिच को इसके लिए चुना. झारखंड में लोकसभा चुनाव के बजाए विधानसभा चुनाव पर फोकस किया.
उन्हें याद आया कि कभी आठ विधायक झारखंड में हुआ करते थे. यही वक्त है उनको याद किया जाए. परिणाम जो भी निकले, बीजेपी के माथे पर बल तो जरूर पड़ जाएंगे.
नीतीश कुमार ने अपने सबसे खास सिपहसलार राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को ठीक उसी वक्त झारखंड भेजा है, जिस वक्त अमित शाह झारखंड के तीन दिन के दौरे पर हैं. ललन सिंह भी दो दिन के दौरे पर पहुंच चुके हैं.
गढ़वा पलामू पर है जेडीयू की नजर
ललन सिंह यहां जेडीयू के पुराने विधायकों को इकट्ठा कर रहे हैं. कार्यकर्ताओं की बैठकें ले रहे हैं. वह पार्टी के पुराने गढ़ पलामू और गढ़वा को फिर से हासिल करना चाहते हैं. इन दोनों इलाकों में जेडीयू 18 से 20 सीटों पर कभी जीत तो कभी नंबर दो की पोजिशन पर रही है.
खास बात यह भी है कि इन इलाकों में सामाजिक समीकरण बिहार की तरह ही है. यानी पलामू ब्राह्मण और राजपूतों की बहुलता वाला इलाका है. इससे सटा हुआ इलाका चतरा में भी भूमिहारों की बड़ी संख्या हैं. इसके अलावा कोईरी और कुर्मी भी हैं. पलामू इलाके में बिहारी कुर्मी है. पासवानों की संख्या भी ठीक ठाक है. कुछ मल्लाहों की संख्या है. यानी लब्बोलुआब यह है कि यहां आदिवासी केंद्रित राजनीति नहीं है.
इस लिहाज से देखें तो चतरा, गढ़वा, डाल्टनगंज और लातेहार जिले के नौ सीटों में छह बीजेपी के पास है. इन इलाकों के हुसैनाबाद, चतरा, लातेहार, छतरपुर की सीटें जेडीयू के पास कई बार रही है. ऐसे में अगर एक बार फिर जेडीयू ताल ठोकने की तैयारी कर रही है तो, मुकाबला रोचक हो सकता है.
फंस सकती है बीजेपी की चाल
अगर चुनाव में जेडीयू ने ताल ठोक दिया, नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए मैदान में उतर जाते हैं, बीजेपी की हालत बेहद खराब हो सकती है. क्योंकि इन इलाकों से बीजेपी के पास लगभग 10 एमएलए आते हैं. सोचिए अगर दस सीट पर पर बीजेपी को अपने सहयोगी से ही लड़ना पड़े, वह जनता को क्या जवाब देगी? कैसे समीकरण बनाएगी? इन दोनों इलाकों में बिहार के मंत्री श्रवण कुमार खासे पहुंच रखते हैं. वह भी साथ में पहुंचे हैं.
कहां परेशान कर सकती है बीजेपी को
सबसे अधिक परेशानी शराबबंदी वाले मुद्दे पर कर सकती है. नीतीश कुमार इस मामले में पहले ही लीड ले चुके हैं. देखा–देखी रघुवर दास भी क्रमवार शराबबंदी की बात कह चुके हैं. यहां तक कि राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू भी शराबबंदी की अपील झारखंड सरकार से कर चुकी हैं.
हालांकि इस समय रघुवर सरकार पूरे राज्य में खुद एक हजार से अधिक शराब की दुकान चला रही है. ऐसे में अगर नीतीश कुमार शराबबंदी को झारखंड में मुद्दा बनाते हैं तो उनको चुप कराना बीजेपी के लिए मुश्किल होगा. देखने वाली बात यह होगी कि चुनाव के समय दोनों में पहले कौन इस मुद्दे को लपकता है?
नीतीश कुमार इस्तेमाल होंगे या करेंगे
देखने वाली बात यह होगी कि नीतीश कुमार झारखंड विधानसभा चुनाव में बीजेपी के समर्थन में उतरते हैं या फिर जेडीयू के लिए चुनावी जमीन तैयार करते हैं. अगर जेडीयू के सिमित नेता एक्टिव हो जाते हैं तो वह वोट तो बीजेपी का ही काटेंगे. दो चार सीट भी अगर जेडीयू के पक्ष में दिख जाती है, बीजेपी का सारा गणित ही बिगड़ जाएगा.
चार बार झारखंड विधानसभा में रहे हैं जेडीयू के विधायक
झारखंड में जदयू की हालत कभी अच्छी थी. विभाजन के बाद बाबूलाल मरांडी की अगुआई में बनी पहली सरकार को जेडीयू के आठ विधायकों का समर्थन था. जेडीयू उस सरकार में शामिल भी थी. उस सरकार का गठन बिहार विधानसभा के 2000 के चुनाव के आधार पर हुआ था.
लेकिन उसके बाद 2005 में छह और 2009 में जेडीयू के दो विधायक झारखंड विधानसभा में थे. 2014 के विस चुनाव में वहां जेडीयू का खाता नहीं खुल पाया था.
भला क्यों ना चाहे सीट
जब गठबंधन हो ही गया है तो भला झारखंड में नीतीश कुमार बीजेपी से सीटें क्यों ना मांगे? उनका आधार इतना कमजोर भी तो नहीं है. पिछले चुनाव को छोड़, हर चुनाव में उनके विधायक रहे हैं. ऐसे में देखने वाली बात होगी कि बीजेपी कितना कुर्बानी दे सकती है. ऐसे वक्त में जब जेडीयू के पास गिने-चुने मतदाता रह गए हैं, बीजेपी का सीट देना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही होगा.