view all

झारखंड: सीएम रघुवर दास ने ‘मधुमक्खी के छत्ते’ को छेड़ा

झारखंड के सीएम ने सीएनटी-एसपीटी कानून में संशोधन करके ‘मधुमक्खी के छत्ते’ को छू दिया है

Mukesh Bhushan

झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने सीएनटी-एसपीटी कानून में संशोधन करके ‘मधुमक्खी के छत्ते’ को छेड़ दिया है.

अब तक सरकार में रहने वाली हर पार्टी इस कानून में संशोधन पर पहले भी विचार करती रही है. लेकिन, मधुमक्खी के छत्ते को कौन छेड़े, यह सोचकर अब तक किसी भी आदिवासी मुख्यमंत्री ने इसे नहीं छुआ.


पहली बार 2014 में भाजपा ने एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री पर भरोसा जताया. तभी से यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कुछ ऐसा हो सकता है, जिसे गैर-आदिवासी ही कर पाए.

रघुवर सरकार ने पहले स्थानीय नीति को फिर से परिभाषित करने का जोखिम लिया. अब सीएनटी-एसपीटी नामक ‘मधुमक्खी के छत्ते’ को हाथ लगा दिया.

क्या है माजरा

आखिर रघुवर सरकार ऐसे अलोकप्रिय फैसले क्यों कर रही है?  क्या यह किसी हड़बड़ी में है? क्या वाकई कोई दबाव है, जैसा कि इस सरकार पर आरोप लगाया जाता रहा है?

राज्य के पहले सीएम नेता बाबूलाल मरांडी की माने तो इसका जवाब है- हां, सरकार हड़बड़ी में है.

उनका कहना है कि बीजेपी यह समझ गई है 2019 में उनका लौटना मुश्किल है. राज्य के 28 फीसदी आदिवासी, 17 फीसदी मुस्लिम और करीब 11 फीसदी दलित अगले चुनाव में उसे वोट नहीं देंगे.

पिछले चुनाव में भाजपा की लहर के बावजूद उसे 37 सीटें (वोट शेयर 35 फीसदी) ही मिली थी. तब सबने उसे वोट दिया था.

हालांकि अन्य विरोधियों की राय में सब कुछ पहले से तय है. एक ब्यूह रचना के तहत पहले गैर आदिवासी को सीएम बनाया गया.

एक आदिवासी दिनेश उरांव को विधानसभा अध्यक्ष, एक आदिवासी लक्ष्मण गिलुआ को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष व आदिवासी महिला दौपदी मुर्मू को राज्यपाल नियुक्त किया गया.

उसके बाद आदिवासी विरोधी फैसले करते हुए आदिवासियों को आपस में ही लड़ाने का काम किया जा रहा है.

राजनीतिक सरगर्मी बढ़ी

विधानसभा में सीएनटी-एसपीटी संशोधन विधेयक पारित करके सरकार ने झारखंड में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है.

प्रमुख विरोधी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 07 दिसंबर-16 को चरणबद्ध आंदोलन की रूपरेखा को अंतिम रूप दिया.

पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन अपने पिता और आदिवासियों के ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन को उम्रदराज होने के बावजूद आगे रखकर अपनी रणनीति तय कर रहे हैं. वह इसे झारखंड आंदोलन की तर्जपर ले जाने की हूंकार भर रहे हैं.

अन्य दलों ने भी अपनी-अपनी तैयारी तेज कर दी है. इनमें मरांडी का झारखंड विकास मोर्चा प्रमुख है. उग्रवादी संगठनों को भी नया मौका मिल गया है. सरकार विरोधी ताकतों को अपनी जमीन के फिर से उर्वर होने का भरोसा जगा है.

यह मुद्दा आगामी चुनाव को किस हदतक प्रभावित कर सकता है, इसे सरकार में शामिल ऑल स्टूडेंट स्टूडेंट यूनियन (आजसू) के स्टैंड से समझा जा सकता है.

इन संशोधनों को पारित करनेवाली सरकार का हिस्सा होने के बावजूद आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो खुलकर विरोध कर रहे हैं.

वह किसी भी हदतक जाने की धमकी दे चुके हैं. उनके सहयोगी संगठन ग्रासरूट लेवल पर फैसले के खिलाफ एक्टिव हो गए हैं.

सरकार के अपने भी नाराज

सरकार में शामिल आदिवासी नेताओं को अपनी जमीन खिसकने का डर सताने लगा है. भाजपा में प्रतिनिधि आदिवासी चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने एक्ट में संशोधन पर नाखुशी जाहिर करते हुए 02 दिसंबर को मुख्यमंत्री को कड़ा पत्र लिखा. इसे मीडिया में लीक भी कर दिया गया.

पत्र में मुंडा ने सवाल उठाया कि पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद अध्यादेश का मार्ग क्यों चुना गया? उन्होंने वे तमाम मुद्दे उठाएं हैं जो विरोधी दल उठा रहे हैं.

भाजपा के सांसद रामटहल चौधरी ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी. उन्होंने कहा कि सरकार को विपक्ष से चर्चा करनी चाहिए.

पार्टी में रघुवर दास अलग-थलग पड़ चुके हैं. हालांकि अध्यक्ष अमित शाह का भरोसा उनपर बना हुआ है. अर्जुन मुंडा जरूरी समझाइश लेकर 10 दिसंबर को दिल्ली से लौटे हैं. उसके बाद उन्होंने इस मामले पर कोई बात करने से मना कर दिया है.

पिछले दिनों विपक्ष के नेता हेमंत सोरेन ने यह कहकर सरगर्मी बढ़ा दी थी कि सत्ता पक्ष के 17 विधायक उनके संपर्क में हैं. समझा जाता है कि भाजपा में 28 विधायक संशोधन के खिलाफ हैं पर कोई खुलकर सामने नहीं आया है.

अगले चुनाव की तैयारी

विधानसभा में बहुमत के लिए 41 विधायकों का साथ जरूरी है. अभी भाजपा और सहयोगियों की संख्या 48 है. यानी जबतक भाजपा के नाराज विधायक खुलकर सामने नहीं आते तबतक वर्तमान सरकार को कोई खतरा नहीं है.

इसलिए तैयारी 2019 के चुनाव की ही हो रही है. तब न सिर्फ रघुवर दास बल्कि केद्र की मोदी सरकार भी निशाने पर होगी.

सीएम दास दो बातों पर जोर दे रहे हैं. एक तो यह कि विकास के लिए जमीन चाहिए और इसके लिए वर्तमान कानून में संशोधन जरूरी है. दूसरी बात यह कि संशोधन से आदिवासी-मूलवासी जमीन मालिकों का कोई नुकसान नहीं होगा.

क्योंकि, कृषिभूमि का उपयोग परिवर्तन स्वयं उनके हित में भी है. वे खेती के अतिरिक्त अन्य व्यवसायिक कार्यों के लिए उक्त जमीन का इस्तेमाल कर सकेंगे.

संशोधन विरोधी उनकी नीयत पर शक करते हैं.

कहते हैं कि वर्तमान कानून में भी इसबात के लिए प्रोविजन हैं. आजादी के बाद कई कल-कारखाने यहां लगे हैं, कई डैम बनाए गए हैं. बिजली परियोजनाएं हैं. रेल लाइन बिछाने का मामला हो या सड़क बनाने का क्या कभी जमीन की समस्या हुई?

आदिवासी अपनी जमीन पर खेती करे या कोई और काम क्या किसी ने उसे रोका है? सरकार असली बात दबाना चाहती है. वह अडानी जैसे पूंजीपतियों को जमीन सौंपनेवाली है.

पुराने डिफाल्टर को लाभ नहीं

सीएनटी-एसपीटी में ऐसा कोई संशोधन सीधे तौर पर नहीं किया गया है जिसका लाभ वैसे लोगों को हो सके जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में इस कानून की शिथिल अवस्था का लाभ उठाकर एससी व बीसी की जमीन खरीद ली है.

यदि ऐसा हुआ होता तो राजनीतिक तौर पर भाजपा को कुछ लाभ हो सकता था क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या भी काफी ज्यादा है.

दरअसल, बिहार की विभिन्न सरकारें इस कानून पर शिथिल रहीं. झारखंड बनने के बाद भी इसे सख्ती से लागू नहीं किया जा सका. इस दौरान यह भ्रम बना रहा कि सीएनटी-एसपीटी कानून सिर्फ एसटी पर लागू है, जबकि यह एससी व बीसी पर भी लागू था.

राज्य बनने के बाद यह पहली बार चर्चा में 04 दिसंबर 2010 को उस समय आया जब राजग की अर्जुन मुंडा सरकार के राजस्व व भूमि सुधार विभाग के सचिव संतोष कुमार ने नोटिफिकेशन जारी किया कि यह कानून एससी व बीसी पर भी लागू है. इसने राज्य में खलबली मचा दी.

तब डिफाल्टरों की संख्याबल को देखते हुए अर्जुन मुंडा ने वह नोटिफिकेशन निरस्त कर दिया था. इसके खिलाफ पूर्व सांसद सालखन मुर्मू 04 फरवरी 2011 को हाईकोर्ट चले गए.

हाइकोर्ट ने 25 जनवरी 2012 को फैसला सुनाया कि कोई भी कानून अधिकारियों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों पर निर्भर नहीं होता. सीएनटी का पालन उसकी मूल भावना के अनुसार किया जाए.

तभी से राज्य के वैसे निवासी जो व्यक्तिगत जरूरतों के कारण जमीन की खरीद-फरोख्त करना चाहते हैं या जिन्होंने ऐसा किया है और रीयल इस्टेट कारोबारी व बाहर से आए भूमाफिया सीएनटी-एसपीटी में संशोधन के लिए लॉबिंग करते रहे हैं.

इसे भी पढ़ें: बीजेपी की जमीन खिसका सकते हैं रघुवर दास के फैसले